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नियुक्तिपंचक
मेरा भाई सभी लोगों को अत्यधिक प्रिय है विशेषत: मेरे दु:खी हृदय का प्राणवल्लभ है. अत: मेरा भाई तुम्हारी शरण में है तुम इसकी रक्षा करना।' यह कहकर बलराम पानी लेने चला गया।
इसी बीच व्याध वेशधारी जराकुमार धनुष को हाथ में लिए हुए, प्रलंब केश धारण किए हुए, व्याघ्रचर्म से प्रावृत मृग को मारने के उद्देश्य से वहां आया। एक वृक्ष के नीचे कृष्ण तृषातुर होकर बैठे थे। उनको हरिण समझ कर जराकुमार ने धनुष चढ़ा तीक्ष्ण बाण फेंका। उस बाण ने कृष्ण के पैर के मर्मस्थान को बींध दिया। श्रीकृष्ण वेग से उठे और बोले-'बिना अपराध के ही किसने मेरा पैर बाण से बीधा है? मैंने पहले किसी भी अज्ञातबंश वाले पुरुष को नहीं मारा है अतः जिसने यह बाण छोड़ा है वह शीघ्र ही अपना गोत्र बताए।' तब जराकुमार ने कुडंग के अंदर बैठेबैठे सोचा-'यह कोई हरिण नहीं है। यह तो कोई पुरुष है, जो मुझसे गोत्र पूछ रहा है। इसलिए इसे मैं अपना गोत्र बताऊं।' जराकुमार ने कहा-'मैं हरिवंश कुल में उत्पन्न वसुदेव और जरा देवी का पुत्र तथा पृथ्वी के एक-मात्र वीर श्रीकृष्ण का ज्येष्ठ भ्राता जराकुमार हूं। 'श्रीकृष्ण की मृत्यु जराकुमार से होगी' अरिष्टनेपि के इन वचनों को सुनकर मैं अपने बंधुवर्ग को छोड़कर एक बन से दूसरे वन में घूम रहा हूँ। मुझे घूमते हुए बारह वर्ष बीत गए हैं। अब तुम अपना परिचय दा कि तम कौन हो?'कष्ण ने कहा-'आओ-आओ प्रिय सहोदर! मैं जनार्दन हैं। तम्हारा और बलदेव का छोटा भाई हूँ। तुम मेरे प्राणों की रक्षा के लिए घूमते--घूमते यहां आए लेकिन तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ हो गया इसलिए तुम शीघ्र ही मेरे पास आओ।'
तब जराकुमार कृष्ण के पास आया। उसने कृष्ण की अवस्था देखी तब आंसू बहाता हुआ विलाप करने लगा- 'हा! मैंने मेरे भाई को मार डाला । मैं दुरात्मा हूं । हे पुरुषसिंह ! तुम वहां कहां से आ गए? क्या द्रोपायन ने द्वारिका जला दी? यादव नष्ट हुए या नहीं?' तब कृष्ण ने जैसा देखा और सुना था वह सब सुना दिया। जराकुमार विलाप करने लगा-'मैं पापी हूँ। मैंने अच्छा किया कृष्ण का आतिथ्य-सत्कार ! अब मैं कहां जाऊं? मेरी सुगति कैसे होगी? भाई के घातक मुझको कौन देखना चाहेगा? हे केशव! लोग तुम्हारा नाम अपने कंठों में धारण कर रखेंगे। मैं वनवासी बन गया पर मैंने क्रूरता से विपरीत आचरण कर डाला। अब मुझ पापी की बहुत अधिक गर्दा होगी। कहां हैं वे राजा? कहां हैं उनकी हजारों रानियां? हे जनार्दन ! वे कुमार कहां हैं?' तब कृष्ण ने उसे आश्वस्त करते हए कहा-'अरे जरानंदन! भगवान् अरिष्टनेमि ने पहले ही कह दिया था कि संसार में सब प्राणी अपने-अपने कर्मों से अनेकों कष्ट पाते हैं। जो व्यक्ति इस भव में या परभव में जैसा शभ या अशभकर्म करता है उसका फल उसे प्राप्त करना होता है। दसरा तो निमित्त मात्र होता है इसलिए तुम उद्वेग मत करो। तुम्हारा कोई अपराध नहीं है यह तो कर्मों की विचित्र परिणति है । जिनेन्द्र का कथन कभी अन्यथा नहीं होता अतः तुम वक्षस्थल पर स्थित मेरी कौस्तुभ मणि को लेकर पांडवों के पास जाओ और उनको तुम सारी बात बता देना।' मेरी ओर से पांडवों को कहना कि द्रौपदी को ले जाने के समय सामर्थ्य का परीक्षण करने के लिए उन्होंने रथ नहीं भेजा तब मैंने उनका सर्वस्व हरण करके उनको बहिष्कृत कर दिया इसलिए वे मुझे क्षमा करें। 'सत्पुरुष क्षमाप्रधान होते हैं और विशेषत: बंधुजन तो क्षमाप्रधान होते ही हैं।' कृष्ण के कहने पर भी जराकुमार जाने के लिए तैयार नहीं हुआ। तब कृष्ण ने पुन: कहा-'महाभाग ! शीघ्र जाओ। तुम जानते हो बलदेव