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परिशिष्ट ६ : कथाएं
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२४. ज्ञान परीषह (स्थूलिभद्र)
स्थूलिभद्र एक बहुश्रुत एवं चतुर्दशपूर्वी आचार्य थे। उनके गृहस्थ-काल का एक बहुत घनिष्ठ मित्र था। विहार करते हुए एक बार आचार्य उनके यहां गए। मित्र घर पर नहीं था। उसकी पत्नी से आचार्य ने अपने मित्र के बारे में पूछा। महिला ने उत्तर दिया कि वे आजीविका कमाने के लिए गए हुए हैं।
जब आचार्य ने दीक्षा ली तब उनका मित्र बहुत सम्पन्न था, लेकिन तब आचार्य ने उसकी विपन्न अवस्था देखी। चारों ओर गरीबी दिखाई दे रही थी। उसके पूर्वजों ने एक खंभे के नीचे बहुमूल्य द्रव्य गाड़ रखे थे। आचार्य ने ज्ञानबल से वह गड़ा हुआ धन देख लिया। आचार्य उस खंभे की और हाथ कर बोले-'यह ऐसा है, वह वैसा है।' आचार्य के ऐसा कहने पर लोगों ने यह समझा कि घर पहले सम्पन्न था अब विपन्न है, शटित-गलित है। आचार्य अनित्यता का निरूपण करने के लिए ऐसा कह रहे हैं।
वह मित्र इधर-उधर भ्रपण कर घर लौटा। उसकी पत्नी ने आचार्य के आगमन की सारी बात बताई। महिला ने कहा-'आचार्य ने और कुछ नहीं कहा, केवल खंभे की ओर हाथ से संकेत करके कुछ कहा।' यह सुनकर वह वणिक् पूरा रहस्य समझ गया। उसने उस स्थान को खोदा। यहां रत्नों से भरे अनेक कलश निकले। वह पुनः सम्पन्न हो गया। आचार्य अपने ज्ञान परीघह को सहन नहीं कर सके।
२५. दर्शन परीषह
वत्सभूमि में आर्य आषाढ़ नामक बहुश्रुत आचार्य थे। उनका शिष्य परिवार बहुत बड़ा था। उनके संघ में जो शिष्य कालगत होते उन्हें वे पहले भक्तप्रत्याख्यान अनशन करवाते और कहते–'तुम देव बनकर अवश्य ही मुझे दर्शन देना।' अनेक मुनि अनशनपूर्वक दिवंगत हुए पर कोई वापस लौट कर नहीं आया। एक बार एक अत्यन्त प्रिय शिष्य मृत्यु-शय्या पर था। आचार्य ने उसे भक्तप्रत्याख्यान कराते हुए स्नेहपूर्वक कहा-'देवलोक में उत्पन्न होते ही शीघ्र यहां आकर दर्शन करना, प्रसाद मत करना।' उसने कहा-'आऊंगा।' मुनि दिवंगत हो गया लेकिन वह भी लौटकर नहीं आया। आचार्य ने सोचा-'यह निश्चित है कि परलोक है ही नहीं। अनेक लोग विश्वास दिलाकर गए पर कोई वापस नहीं आया। यह कष्टपूर्ण व्रतचर्या निरर्थक है। मैंने व्यर्थ ही भोगों का परित्याग किया।' आचार्य का मन डांवाडोल हो गया। वे उसी वेश में गण का परित्याग कर पलायन कर गए।
इसी बीच उस प्रिय शिष्य ने अवधिज्ञान से आचार्य की स्थिति को जाना । गुरु को प्रतिबोध देने हेतु उसने मार्ग में एक गांव की रचना की और सुन्दर नृत्य का आयोजन किया। नाटक को देखते हुए छह मास बीत गए। नाटक को देखते हुए आचार्य को न भूख सताती थी, न प्यास और न श्रम । देवता के प्रभाव से छह मास का काल बीतना भी उन्होंने नहीं जाना। देवता ने अपनी माया समेटी। आचार्य वहां से चले। देवता ने उनके संयम के परिणामों को परीक्षा करने हेतु षड्जीवनिकाय के
१. उनि.१२२, उशांटी. प. १३०, १३१, उसुटो. प. ५२।