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परिशिष्ट ६ : कथाएं
भगवान् का वचन व्यर्थ है. ५ और न ही मेरी प्रतिज्ञा अगमा हो गकती है अत: आप जाएं, अधिक विचार करने से क्या?' तब महाशोक से संतप्त मन से बलदेव और वासुदेव नगरी में लौट आए। द्वीपायन के प्रतिज्ञा की बात पूरी नगरी में फैल गयी।
दूसरे दिन पूरे नगर में बलदेव ने घोषणा करवाई कि सभी लोग उपवास आदि तपस्या में निरत हो जाएं, धर्मध्यान में लीन हो जाएं। नगरी का वही परिणाम होने वाला है जो भगवान् ने कहा है। इसी बीच भगवान् अरिष्टनेमि विहार करते हुए पुन: रेवतक पर्वत पर समवसृत हुए। यादव लोग भगवान् को वंदना कर अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। धर्मकथा के अंत में संसार की अनित्यता से संवेग को प्राप्त प्रद्युम्न, निषध, शुक, सारण, शांब आदि कुमार भगवान् के पास प्रव्रजित हो गए। रुक्मिणी भी पूर्व कर्मों के भय से उद्विग्न होकर वासुदेव को कहने लगी-' भो राजन्! संसार की ऐसी परिणति है और विशेषत: यादव कुल की अत: आप मुझे आज्ञा दें मैं दीक्षित होना चाहती हूँ।' तब कृष्ण ने वाष्पा आंखों से, बड़े दु:खी हृदय से रुक्मिणों को दीक्षा की आज्ञा दी। रुक्मिणी अन्य श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ प्रजित हो गयी। यादव लोग अरिष्टनेमि को वंदना कर शोकविह्वल होकर द्वारिका नगरी वापिस चले गए। वासदेव भी रुक्मिणी के विरह में स्वयं को श्रीविहीन समझने लगे। भगवान् अरिष्टनेमि भी भव्य-जनों को प्रतिबोध देने के लिए अन्यत्र चले गए।
वासदेव कृष्ण ने दूसरी बार पूरी नगरी में घोषणा करवाई-'नागरिको! द्वीपायन ऋषि का महान् भय उत्पन्न हो गया है अत: विशेष रूप से धर्म में रत रहो। हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह को सभी यथाशक्य छोड़ें। आम्बिल, उपवास, बेला, तेला आदि तप सभी यथाशक्य करें। नागरिक भी वासुदेव की बात स्वीकृत कर धर्म में संलग्न हो गए। द्वीपायन ऋषि भी अति दुष्कर बाल तप करके द्वारिका के विनाश का निदान कर भवनपति देवों में अग्निकुमार देव बना। उसने यादवों के कत्य को याद किया। वह द्वारिका के विनाश हेत आया पर विनाश करने में समर्थ नहीं हो सका क्योंकि सभी यादव तपस्या में निरत थे। वे देवता की अर्चना एवं मंत्रजाप में तत्पर थे अत: उनका कोई पराभव नहीं कर सका।
द्वीपायन ऋषि छिद्रान्वेषण करने लगा। बारह वर्ष बीत गए। द्वारिका के लोगों ने सोचा कि द्वीपायन ऋषि अब निष्प्रभ और प्रतिहत तेज वाला हो गया है अत: वे पुन: आमोद-प्रमोद और क्रीड़ा करने लगे। वे कादम्बरी के पान से मत्त होकर रति-क्रीडा में मस्त हो गए। तब अग्निकमार देवयोनि में उत्पन्न द्वीपायन ऋषि ने द्वारिका का विनाश करना प्रारम्भ कर दिया। उसने अनेक प्रकार के उपद्रव प्रारम्भ कर दिए। द्वीपायन ने संवर्तक वायु की विकुर्वणा की। प्रलयकाल के समान चलने वाली हवा से काष्ठ, तृण और पत्तों के समूह आवाज करते हुए नगर के अन्दर इकट्ठे होने लगे। ऋषि ने भीषण अग्नि प्रज्वलित कर दी। वह अधम देव बार-बार उद्यान से तर, काष्ठ, लता और तृण आदि फेंकने लगा। धूएं और अग्नि के कारण एक घर से दूसरे घर में जाना भी संभव नहीं हो सका। पूरी द्वारिका नगरी चारों ओर से जलने लगी। अनेक मणि, रत्न और सोने से बने प्रासाद तड़-तड़ टूटकर पृथ्वी पर गिरने लगे। भेड़, हाथी, बैल, घोड़ा, गधा, ऊंट आदि पशु अग्नि से जलते हुए भीषण दारुण शब्द करने लगे। यादव लोग अपनी प्रियतमाओं के साथ जलने लगे। उनकी अंगनाएं हाहाकार और रुदन का दारुण शब्द करने लगी। बलदेव और वासुदेव जलती हुई द्वारिका