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निर्मुक्तिपंचक
१३७. तीर्थंकरों ने सूत्रों में जो निदानस्थान बतलाए हैं, उनका सेवन करने वाला श्रमण आजाति को प्राप्त होता है। संदान, निदान और बंध —ये एकार्थक हैं ।
१३. (बंध के छह निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ) द्रव्य बंध के दो प्रकार हैं- प्रयोगबंध और विस्रसाबंध | प्रयोगबंध के तीन प्रकार हैं-मन का मूल प्रयोगबंध, वचन का मूल प्रयोगबंध तथा काया का मूल प्रयोगबंध कायप्रयोग बंध के दो प्रकार हैं-मूलबंध और उत्तरबंध । शरीर और शरीरी का जो संयोगबंध है, वह मूलबंध है । वह दो प्रकार का होता है - सादि और अनादि ।
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१३९. निगड़ आदि उत्तरबंध है । विश्वसाबंध सादि और अनादि वो प्रकार का होता है । जिस क्षेत्र में बंध होता है, वह क्षेत्र बंध है और जिस काल में बंध होता है, वह कालबंध है ।
१४०. भावबंध के दो प्रकार है- जीवभावबंध और अजीवभावबंध । दोनों तीन-तीन प्रकार के हैं – विपाकज, अविपाकज तथा विपाक - अविपाकज ।
१५. जीवभाव है-कथय उसके प्रयोजन अनेक है। जैसे -- इहलौकिक प्रयोजन पारलौफिक प्रयोजन । प्रस्तुत में पारलौकिक बंध का प्रसंग है ।
१४२. जो मुनि निदान दोषों में प्रयत्नशील होता है, वह निश्चित ही आजाति को प्राप्त होता है। वह विनिपात अर्थात् संसार में भ्रमण करता है । इसलिए अनिदानता ही श्रेयस्करी है । संसार-समुद्र से तरने के ये पांच उपाय हैं
४. अप्रमाद ।
५. अनिदान ।
१४३. साधु के लिए (सभी के लिए) १. पार्श्वस्थता
२. अकुशील आचार
३. अकषाय