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नियुक्तिपंचक
था। उसने उस श्रावक को सारो क्रिया सीख ली। वह भी परिश्रम से भीतर गया और सभी साधुओं को वंदना की, पर ढड्ढर श्रावक को वंदना नहीं की। आचार्य ने देखा यह नया श्रावक आया है। आचार्य ने पूछा-'किसके साथ आए हो?' उसने कहा-'मैं इस श्रावक के साथ आया हं।' आचार्य ने साधुओं से कहा-'यह प्रावकपुत्र है और वही है जो कल हाथी पर आरूढ़ होकर आया था।' साधुओं ने पूछा-'तुम यहां कैसे आए हो?' आर्यरक्षित ने सारा वृत्तान्त सुनाया और कहा-'आर्यवर! मैं आपके पास दृष्टिवाद का अध्ययन करने आया हूं।' आचार्य बोले-'यदि तुम मेरे पास प्रव्रज्या ग्रहण करो तो मैं तुम्हें अध्ययन करा सकूँगा।' आर्थरक्षित बोला-'जैसी आपकी आज्ञ।। मैं आपके पास दीक्षित हो जाऊंगा।' तब आचार्य ने कहा- 'मैं परिपाटी-क्रम से निश्चित काल में पढ़ाऊंगा।' उसने कहा-'मुझे यह स्वीकार हैं। परन्तु गुरुदेत । मैं गहरे पडजिा नहीं हो सकता। यहां का राजा और दूसरे लोग मेरे में अनुरक्त हैं । वे मुझे बलात् घर ले जायेंगे, इसलिए हम अन्यत्र कहीं चलें।'
. . आचार्य तब आरक्षित को साथ ले दूसरे गांव चले गए। यह उनके प्रथम शिष्य की निष्पत्ति थी। आर्यरक्षित ने दीक्षित होकर कुछ ही समय में ग्यारह अंग पढ़ लिए। उसने आचार्य तोसलिपुत्र के पास दृष्टिवाद का यह सारा अंश ग्रहण कर लिया जितना आचार्य को ज्ञात था। उसने सुना कि युगप्रधान आचार्य वज्र दृष्टिवाद के ज्ञाता हैं, तन्त्र आर्यरक्षित आचार्य वज्र के पास जाने के लिए प्रस्थित हुआ। मार्ग में उज्जयिनी नगर आया। वहां वह स्थविर भद्रगुप्त के पास गया। उन्होंने उसे गले लगाकर कहा-'तुम धन्य हो, कृतार्थ हो। मैं अभी संलेखना कर रहा हूं। मेरा कोई निर्यामक नहीं है। तुम मेरे निर्यामक बनो।' आयंरक्षित ने स्वीकार कर लिया। स्थविर भद्रगुप्त मृत्युशय्या पर थे। वे बोले-'वत्स! 'तुम वज्रस्वामी के साथ मत रहना। किसी दूसरे उपाश्रय में रहकर अध्ययन करना क्योंकि जो व्यक्ति । एक रात भी वज्रस्वामी के साथ रह जाता है, वह मर जाता है।' आरक्षित ने यह बात मान ली। भद्रगुप्त के कालगत होने पर वह वज्रस्वामी के पास गया और उपाश्रय के बाहर ठहर गया।
वास्वामी ने उसी दिन स्वप्न देखा कि मेरा एक पात्र दूध से भरा हुआ है। एक आगंतुक आया और सारा दूध पीकर आश्वस्त हो गया, फिर भी कुछ दूध पात्र में अवशिष्ट रह गया। आचार्य ने अपने स्वप्न की बात साधुओं को बताई। वे सब परस्पर आलाप-संलाप करने लगे। आर्य वज्र - बोले-'तुम नहीं जानते आज मेरा नातीच्छिक आयेगा और वह कुछ न्यून दस पूर्व सीखेगा।' प्रात:काल होते ही आर्यरक्षित वहां आ पहुंचे। आचार्य ने पूछा-'कहां से आये हो?' आर्यरक्षित ने कहा-'आचार्य तोसलिपुत्र के पास से आया हूं।' आचार्य ने पुन: पूछा-'क्या तुम आर्यरक्षित हो?' उसने स्वीकृति में अपना सिर हिलाया। आचार्य ने स्वागत करते हुए पूछा-'कहां ठहरे हो?' उसने कहा-'उपाश्रय से बाहर ठहरा हूं।' आचार्य बोले-'बाहर ठहरे व्यक्ति को अध्ययन कैसे . कराया जा सकता है क्या तुम यह नहीं जानते?' तब आर्यरक्षित बोले-'आर्य ! क्षमाश्रमण स्थविर. भद्रगुप्त ने मुझे कहा था कि तुम बाहर ही ठहरना। यह सुनकर आचार्य वन ने ज्ञान का उपयोग लगाया और जाना कि आचार्य किसी को कोई बात निष्कारण नहीं कहते। अच्छा, तुम बाहर ही ठहरो। आचार्य वन उसे वाचना देने लगे। कुछ ही समय में आयरक्षित ने नौ पूर्व पढ़ लिए। दसवां .