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परिशिष्ट ६ : कथाएं
के लिए कहा। वह थैला देव-माया से धीरे-धीरे भारी होता गया। लेकिन वह उसे लेकर चलने लगा। रास्ते में उन्होंने कुछ साधुओं को पढ़ते हुए देखा। वैद्य ने कहा- 'यदि तुम दीक्षा ले लो तो तुम्हें इस भार से मुक्त कर सकता हूं, अन्यथा नहीं।' भार से खिन्न होकर उसने दीक्षा लेना ही श्रेष्ठ समझा। उसने दीक्षा की स्वीकृति दे दी। उसी समय बालक ने मुनि के पास दीक्षा ले ली।
देव के चले जाने पर वह शीघ्र ही श्रामण्य से खिन्न हो गया और गृहस्थ बन गया । देव अभिज्ञान से देखा तो पुनः उसके उदर में जलोदर पैदा कर दिया और उसी उपाय से पुन: दीक्षित किया। इस प्रकार दो-तीन बार इसी उपाय से पुनः प्रतिबोधित किया। तीसरी बार वह मूक देव उसी के साथ रहने लगा ।
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एक बार देव ने दूसरा उपाय सोचा। विहार के समय देव ने मनुष्य की विक्रिया की और वह हाथ में घास का गट्ठर लेकर जलते हुए गांव में प्रवेश करने लगा। यह देखकर मुनि बोला- 'मूर्ख ! तुम तृणभार को साथ में लेकर जलते गांव में क्यों प्रवेश कर रहे हो?' देव ने कहा- 'तुम मुझसे ज्यादा मूर्ख हो क्योंकि तुम क्रोध, मान, माया और लोभ से जलते हुए गृहवास में प्रविष्ट हो रहे हो ।' ऐसा कहने पर भी मुनि प्रतिबोधित नहीं हुआ। कुछ समय बाद वे दोनों अटवी में एक साथ चल रहे थे। चलते-चलते वह देव मार्ग को छोड़कर अटवी के उत्पथ की ओर जाने लगा। मुनि ने कहा- 'अरे मूर्ख ! तुम मार्ग को छोड़कर कुमार्ग की ओर क्यों जा रहे हो?' देव ने मौका देखकर कहा-'मैं तो अज्ञानी हूं लेकिन तुम मुनि होकर मोक्ष मार्ग को छोड़कर संसार रूपी अटवी में क्यों प्रवेश कर रहे हो ?' ऐसा कहने पर भी भुनि प्रतिबोधित नहीं हुआ।
पुनः प्रतिबोध देने के लिए देवता ने व्यंतर का रूप बनाया और देवकुल में ऊपर से नीचे गिरने लगा। यह देख मुनि बोला- 'आश्चर्य है यह व्यंतर देव कितना दुर्भाग्यशाली है जो ऊपर रहता हुआ भी बार-बार नीचे गिर रहा है।' व्यंतर देव ने व्यंग्य में कहा - 'तुम मुझसे भी ज्यादा दुर्भागी हो । मुनिपद के अर्चनीय स्थान को छोड़कर संयम से बार-बार स्खलित हो रहे हो ।' यह बात सुन मुनि ने पूछा- 'तुम कौन हो?" देवता ने अपना मूल मूक का रूप बनाया और पूर्वभव का सारा वृत्तान्त कहा। मुनि ने कहा- 'इसका क्या प्रमाण है कि पूर्वभव में मैं देव था।' विश्वास दिलाने के लिए देव उस मुनि को वैताद्य पर्वत पर ले गया। वहां सिद्धायतन कूट पर पहले ही संकेत चिह्न कर दिया था। वहां सिद्धायतन की पुष्करिणी में नामांकित कुंडल युगल दिखाए। अपने नामांकित कुंडल युगल को देखकर मुनि को जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। वह संबुद्ध होकर पुन: दीक्षित हो गया। अब उसके मन में संयम में रति उत्पन्न हो गयी।
१०. स्त्री परीषह
प्राचीन काल में क्षितिप्रतिष्ठित नामक एक नगर था। जब वह उजड़ गया तब चणकपुर नाम का नगर बसाया गया। उसके उजड़ने पर ऋषभपुर, फिर राजगृह, फिर चंपा और अन्त में पाटलिपुत्र
नगर बसाया गया।
१. उनि. ९९.१००, उशांटी.प. १००-१०३. उसुटी. प. २५-२७।