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शिष्ट : कथाएं
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जमने पैर से यंत्र को दबाया पर कुछ भी नहीं मिला। वह तिलमिला उठा। राजा ने उसके दंभ को देखकर उसकी भर्त्सना की। मंत्री ने लोगों के सामने वह पोटली दिखा दी और सायंकाल वाली सारी बात बता दी। लोगों ने भी उसका तिरस्कार किया। 'द्वेष को प्राप्त वररुचि मंत्री के दोषों को ढूंढ़ने लगा। वह पुनः राजा के पास आने-जाने लगा। राजा को मंत्री के दोष बताने लगा लेकिन राजा ने विश्वास नहीं किया।
एक बार श्रीयक के विवाह में राजा को भेंट देने के लिए तैयारी की जाने लगी। वररुचि ने एनपी से यह जानकः पिया किसी के जिला मोगा और अन्य सरंजाम किया जा रहा है। वररुचि ने सोचा कि यही अवसर है। उसने बच्चों को मोदक देकर यह गाथा याद कराई
रायनंदु न वि याणइ, जं सगडालु करेसइ। रायनंदुं मारेत्ता, सिरिय रजि ठवेसई ॥
'राजा नंद नहीं जानता कि यह शकडाल क्या करने वाला है? यह नंद को मारकर श्रीयक को राजा बनाएगा।' बच्चे गली-गली में यह गाथा गाने लगे। राजा ने यह सुना और खोज करवाई। 'शकडाल के यहां सारा सरंजाम है' यह जानकारी मिली। राजा कुपित हो गया। जैसे जैसे शकडाल राजा के पैरों में झुकने लगा वैसे-वैसे राजा और अधिक पराङ्मुख होता गया। उसका क्रोध शांत नहीं हुआ। शकडाल ने सोचा-'राजा का क्रोध अत्यंत अनियंत्रित, विकराल और अज्ञात है। इस क्रोध का कितना भयंकर परिणाम हो सकता है? मेरे एक के वध से कुटुम्ब का वध रुक सकता है-यह चिंतन करके शकडाल अपने घर पहुंचा और राजा के अंगरक्षक अपने पुत्र श्रीयक से कहा-'संकट का समय उपस्थित हुआ है । उसका समाधान तथा राजा को विश्वास दिलाने का उपाय यह है कि जैसे ही मैं राजा के चरणों में प्रणाम करूं वैसे ही तुम तत्काल मेरा शिरच्छेद कर देना।' यह सुनकर श्रीयक रोने लगा। वह बोला-'क्या मैं कुल का क्षय करने के लिए उत्पन्न हुआ हूं जो आप मुझे ऐसा जघन्य कार्य करने का आदेश दे रहे हैं? अधिक क्या कहूं? आप राजा के समान मेरा शिरच्छेद कर डालें। कुल के ऊपर आए उपसर्ग के लिए मेरो बलि दे डालें।' मंत्री ने कहा-'तुम कुल का क्षय करने वाले नहीं, बल्कि कुल के क्षय का अंत करने वाले हो। मुझे मारे बिना तुम कुल-क्षय के अंतकर नहीं होओगे, इसलिए मेरे आदेश का पालन करो। श्रीयक ने कहा-'जो होगा वह देखा जाएगा लेकिन में गुरुस्थानीय पिता का वध नहीं करूंगा।' तब मंत्री ने कहा-'ठीक है, मैं स्वयं तालपुट विष खाकर अपने प्राण त्याग दूंगा। फिर तुम मरे हुए मुझ पर खड्ग चला देना। 'बड़ों का वचन अलंघनीय होता है ' अत: तुम्हें यह कार्य करना होगा। यह समय आक्रन्दन करने का नहीं है। तुम संकट में पड़े कुल का उद्धार करो और मुझे अयश के कीचड़ से बाहर निकालो।'
श्रीयक ने सोचा-'मेरे जीवन में कैसा संकट उत्पन्न हुआ है। एक ओर गुरुवचन का उल्लंघन है और दूसरी ओर गुरु के शरीर का व्यापादन। मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है कि मुझे क्या करना चाहिए। यदि मैं स्वयं का घात कर लूं फिर भी कुलक्षय और अयश तो वैसा ही रहेगा।' 'बड़ों के वचन अलंघमीय होते हैं ' ऐसा सोचकर उसने पिता की बात स्वीकार कर ली। श्रीयक राजा के पास गया। उसके पीछे-पीछे शकडाल आ गया। शकडाल को देखकर राजा ने अपना मुंह दूसरी ओर कर लिया। शकडाल ने राजा से बात करनी चाही पर राजा ने कोई उत्तर नहीं दिया।