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निर्युक्तिपंचका
११४. जो प्रायश्चित्त ऋतुबद्ध काल में संचित हुआ है, उसका वहन वर्षावासकाल में सुखपूर्वक होता है क्योंकि वर्षाऋतु में प्राणियों की उत्पत्ति अत्यधिक होती है, इसलिए गमनागमन नहीं होता । चिरकाल तक वहां निवास होता है । वर्षाकाल की शीतलता से उन्मन्त इन्द्रियों के दर्प का परिहार करने के लिए प्रायश्वित में प्राप्त तप उस समय किया जाता । इसलिए वर्षाकाल में स्वाध्याय, संयम और तप के अनुष्ठान में आत्मा को अत्यधिक नियोजित करना चाहिए । ११५. प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकर के समय में कल्प --- - पर्युषणा अर्थात् वर्षावास अवश्य होता है। मध्य तीर्थंकरों के समय में वास विकल्प से होता है । वर्द्धमान के तीर्थ में मंगल के निमित्त वर्षाऋतु में जिनेश्वर देवों, गणधरों तथा स्थविरों के चरित्र का निरूपण होता है ।
११६. सूत्र में यह प्रतिपादित है कि मुनि 'अग्वारिय वर्षा' अर्थात् ऐसी वर्षों जो वर्षांकल्प को भेदकर भीतर भी गीला कर दे, में भक्तवान ग्रहण न करे, भिक्षा के लिए न जाए, किन्तु ज्ञानार्थी, तपस्वी और भूख को न सह सकने वाला मुनि वर्षा में भी भक्तमान ग्रहण कर सकता है, भिक्षा के लिए जा सकता है ।
११७. पार्थी तगडी
रहने में समर्थ मुनि यदि संयम क्षेत्र ( वर्षावास के योग्य क्षेत्र) से च्युत हो जाते हैं तो वे भिक्षाकाल में उत्तरकरण (देखें गाथा १२० ) के द्वारा भिक्षाचर्या कर सकते हैं ।
११८. संयमक्षेत्र वह होता है, जहां मौणिक वर्षाकल्प तथा अलाबु पात्र प्राप्त होते हैं, जहां स्वाध्याय तथा एषणा की शुद्धि होती है और कालोचित वर्षा होती है ।'
११९. जहां वर्षा के कारण भिक्षाचर्या न होने पर पूर्व अधीत ज्ञान विस्मृत हो जाता है। नष्ट हो जाता है, नया ज्ञानार्जन करने में सामर्थ्य नहीं रहता, तपस्वी के पारणक में बाधा आती है तथा बाल मुनि आदि भूख सहने में असमर्थ होते हैं, वह संयमक्षेत्र नहीं होता ।
१२०. (वर्षा बरस रही हो और क्षुधा सहने में असमर्थ मुनि के लिए अथवा किसी रोगी के प्रयोजन से भिक्षा के लिए जाना पड़े तो ) बालों से बने वर्षाकल्प अथवा सौत्रिक वर्षाकल्प से आवृत्त होकर जाए। इनके न होने पर ताढ़सूची (ताड़पत्रों ) अथवा पलाश आदि के पत्तों से बने सिरत्राग से सिर ढक कर अथवा छत्र धारण कर भिक्षा के लिए जाए। यह ज्ञानार्थी, तपस्वी तथा क्षुधा को सहन न करने वाले मुनियों के लिए उत्तरविशेष - विशेष विधि या उत्तरकरण है ।
atri दशा: मोहनीयस्थान
१२१. मोह शब्द के चार निक्षेप हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव | स्थान के विषय में पहले कहा जा चुका है। यहां भाव स्थान का प्रसंग है ।
१. वग्वारिय—वग्वारियं नाम जं भिन्नवासं पडति, वासकष्पं भेत्तूण मंतो कार्य तिम्मेति । (दबू प ६३) वर्षा होती है, भिक्षाकाल तथा
२. कालोचित वर्षा – रात्रि में दिन में नहीं होती । अथवा
संज्ञाभूमि में जाने के समय को छोड़कर वर्षा होती है अथवा वर्षाऋतु में वर्षा होती है, ऋतुबद्ध काल में नहीं ।
( निभा ३२०६, चूर्णि पृ. १५४ )
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