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परिशिष्ट-६: कथाएं
खोज में घर से निकल पड़ा । आचार्य उस समय चंपा में विहरण कर रहे थे। बालक मनक भी चंश में आ गया। प्राचार्य जब मंज्ञा भमि में जा रहे थे तब उन्होंने बामक को देखा । हालक ने आचार्य को बंदना की।बालक को देखते ही आचार्य के मन में बालक के प्रति स्नेह उमर आया । चालक के मन में भी आचार्य के प्रति अनुरक्ति जाग गयी। पार्य ने पूछा- 'वत्स ! तुम हो से
आए हो?' बालक बोला-'राजगृह नगरी से।' आचार्य ने पूछा - 'राजगह नगरी में तुम किसके पुत्र या पात्र हो ?' बालक ने कहा- मैं शय्यंभव ब्राह्मण का पुत्र हूं।' आचार्य ने पूछा-'तुम यहाँ किस प्रयोजन से आए हो ?' बालक बोला- मैं भी दीक्षित होना चाहता हूं।' बालक ने आचार्य से पूछा - 'क्या आप मेरे पिता को मानते हैं ?' आचार्य ने कहा- मैं उनको जानता हूं.' बालक ने फिर पूछा 'वे अभी कहा हैं?' आचार्य बोले- मेरे एक शरीरभूत बभिन्न मित्र हैं। तुम मेरे पास प्रवजित हो जाओ। उसने अपनी स्वीकृति दे दी। माचार्य उसको साथ लेकर उपाश्रय में आए और सोचा-यह सचित्त उपलब्धिहई है।' उन्होंने बालक को प्रजित कर दिया।
दीक्षित करने के बाद आचार्य ने अपने ज्ञान-बल से उसका आयुष्य जानना चाहा । ज्ञान से उन्होंने जाना कि इसका आयुष्य केवल छह मास काहीहै। माचार्य ने सोचा-'इसका आयुष्य बहुत कम है अत: क्या करना चाहिए? वे जानते थे, चतुर्दशपूर्वी किसी भी कारण के उपस्थित होने पर अवाय ही पूर्षों से ग्रंथ का नियूं हण करते हैं । अन्तिम दशपूर्वी भी अवश्य ही नियूं हण करते हैं। भाचार्य ने सोचा- मेरे सामने भी कारण उपस्थित हुआ है अतः मुझे नियूं हग करना चाहिए। उन्होंने पूर्वो से नि!हण करना प्रारम्भ कर दिया । नि हण करते-करते विकास की वेला आ गई, दिन कुछ ही अवशिष्ट रहा इस अध्ययनों का नियूहण सम्पान हा. इसलिए इस ग्रन्ध का नाम 'दसवेआलिय' रखा गया ।' २ रत्नवणिक
एक गणिक दारिद्रप से अभिभूत था । एक बार वह घूमते इए रत्मद्वीप में पहुंचा। वहाँ उसने लोक्य सुन्दर अमूल्य रत्नों को देखा । उनकी गटरी बांध वह घर की ओर चल पड़ा । लम्बे रास्ते में चोर आदि के भय से उन्हें सफशल घर ले जाना सम्भव नहीं था। बुद्धि-कौशम से उसने एक उपाय किया । उन रत्नों को एक स्थान पर गाहकर अपने हाथ में जीर्ण-शीर्ण पत्थरों को लेकर पागल के वेश में 'यह रत्नवणिक जा रहा है', 'यह रत्नवणिक जा रहा है'-थों चिल्लाता हुआ चोरों की पल्ली के पास से गुजरा । आगे जाकर पुनः लौटते हुए उन्हीं शब्दों को दोहगता हुआ यहां से गुजरा। उसने तीन बार ऐसे ही किया। चोरों ने उसे देखा पर पागस समझकर उस ओर ध्यान नहीं दिया। चौथी बार वह गडे रत्नों को लेकर सुखपूर्वक चोर-पल्ली को पार कर गया। अटवी लंबी थी अतः वह तीन प्यास से अभिभूत हो गया । अरबी मैं उसने एक गड्ढा देखा । गहढे मैं थोड़ा पानी था। उस पानी में अनेक हिरण मरे थे। इसलिए सारा पानी बसामय हो गया था। उसने श्वास रोककर स्वाद न लेते हुए उस पानी को पीया | पास शांत हुई । वह रत्नों के साय सुरक्षित रूप से घर पहुंच गया।
१. दशअच पृ. ४,५, हाटी प. १०-१२
२. दशअचू पृ. ८, हाटी प. १९।