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नियुक्तिपंचक ३१५, पांच महायतों के रूप में व्यवस्थापित संयम का आध्यान करना, विभाग करना तथा उसको जानना सुखपूर्वक हो जाता है, इसलिए पांच महाव्रतों का प्रज्ञापन किया गया है।
३१६. उन महानतों के संरक्षण के लिए प्रत्येक महावत को पांच-पांच भावनाएं हैं। ये आचारचूला में प्रतिपादित हैं । इसलिए यह शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन के अभ्यन्तर है।
३१७. आचाराग्न की पांच चुलाएं हैं. ..
पिलानाध्यापन से : घराह प्रतिमा अध्ययन तक के सात अध्ययन-पहली घूला। ० सात सप्तकक-दूसरी चूला। • भावना-तीसरी कूला। • विमुक्ति - चौथी घूला ! ० आचार प्रकल्प (निशीय)- पांचों चूला ।
३१८,३१९. पिडषणा की जो नियुक्ति है, वही शय्या, वस्त्रषणा, पाषणा, अवग्रह प्रतिमा की है । समस्त वचन-विशोधि की निर्मुक्ति वही है, जो (दशवकालिक के सातवें अध्ययन) वाक्यशुद्धि की है। वही समस्तरूप से भाषाजात की नियुक्ति माननी चाहिए ।
३२०, शय्या, ईर्या तथा अवग्रह के छह-छह निक्षेप हैं। पिडषणा, भाषाजात, वस्त्रेषणा तथा पात्रषणा के चार-चार निक्षेप हैं।
३२१. शय्या के छह निक्षेप ये हैं- नामझाय्या, स्थापनाशय्या, द्रव्यमाय्या, क्षेत्रशय्या, कालशम्मा तथा भावशय्या । इनमें से यहां द्रव्यशय्या का प्रसंग है। संयती मुनियों के लिए कौनसी द्रभ्यशम्या उपयुक्त होती है, उसे जानना चाहिए।
३२२. द्रघ्यशय्या तीन प्रकार की होती है-सचित्त, अचित्त और मिथ । जिस क्षेत्र में शय्या की जाती है, वह क्षेत्रशय्या है । जिस काल में शय्या की जाती है, वह कालपाय्या है ।
३२३. द्रव्यशय्या के अन्तर्गत उत्कस, कलिंग आदि दो भाई, बहिन वल्गुमती तथा नैमित्तिक गौतम का कथानक ज्ञातथ्य है।'
३२४. भावशय्या के दो प्रकार हैं-कायविषया और षडभावविषमा । जीव जब औदयिक आदि छह भावों में प्रवर्तित होता है, वह उसकी षड्भावविषमा भायशम्या है तथा जब जीव स्त्री आदि की काया में गर्भ रूप में स्थित होता है, वह कायविषया भावशय्या है।
३२५. यद्यपि सभी उद्देशक शय्या-विशुद्धि के कारक हैं, फिर भी प्रत्येक उद्देशक में कुछ विशेष प्रतिपादन है । वह मैं संक्षेप में प्रस्तुत कर रहा हूं।
३२६,३२७. पहले उद्देशक में शटया -वसति के उगम दोषों तथा गृहस्थ आदि के संसर्ग से होने वाले अपायों का चिन्तन है।
दुसरे उद्देशक में शोचवादी के दोषों तथा बहविध शय्या-विवेक का चिन्तन है।
तीसरे उद्देशक में संयमी की जो छलना होती है, उसके परिहार का विवेक तथा स्वाध्याय में बाधक न बनने वाले सम-विषम स्थान में श्रमण को निर्जरा के लिए रहना चाहिए-यह विवेक है। १. देखें-परि०६ कथा सं०१०।