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आषारोग नियुक्ति
३४८, यतमान मुनि का दूसरा मुनि यतनापुर्वक जो करता है, वह परक्रिया प्रासंगिक है। जो निष्प्रतिकर्म है, गच्छनिर्गत है, उसके लिए परक्रिया तथा अन्योन्यक्रिया (पारस्परिक क्रिया) अयुक्त है। तीसरी चला: भावना
___३४९. (भावना शब्द के नाम आदि नार निक्षेप हैं ।) जाति कुसुम आदि सुगंधित द्रव्यों के द्वारा तिल आदि को वासिस' करना व्रध्यभावना है । इसी प्रकार शीत से भादित शीतसहिष्णु तथा उहण से भावित उष्णसहिष्ण और व्यायाम से पुष्ट देह व्यायाम सहिष्णु आदि थ्यभावना है। भावभावना के दो प्रकार हैं-प्रशस्त तथा अप्रशस्त ।
३५०. प्राणिषध, मृषावाद, अदासादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की भावना अप्रशस्त भावभावना है।
३५१. दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वैराग्य आदि प्रशस्त भावभावना है। जो भावना जैसे प्रशस्त होती है, उसको उसी प्रकार लक्षण सहित निरूपित करूंगा।
३५२. जिनशासन-तीर्थकर भगवान् का प्रबंधन, प्रावधनिक-युगप्रधान आचार्य आदि, अतिशायी' मौर ऋद्धिधारी मुनि'-इनके अभिमुख जाना, वंदन करना, दर्शन करना, कीर्तन करना, पूजा करना सपा स्तुति करना-यह दर्शनभावना है।
३५३,३५४. तीर्थकरों की जन्मअभिषेक-भूमि, निष्क्रमण-भूमि, दीका-भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिभूमि तथा निर्वाण-भूमि और देवलोक मयनों में, मन्दर पर्वत में, नन्दीश्वर द्वीप में, भौमपातालभवनों में जो शाश्वत चैत्य है, उन्हें मैं वन्दना करता हूं। इसी प्रकार भष्टापद पर्वत, उज्जयन्त पर्वत, दशार्णकूटवर्ती गजानपद, तक्षशिला में स्थित धर्मचक स्थान, अहिच्छत्रा में अवस्थित पार्श्वनाथ और घरणेन्द्र के महिमा स्यान, रथावर्त पर्वत, जहां वज्रस्वामी ने प्रायोपगमन अनशन किया था तथा जहां श्री वर्धमानस्वामी की निश्रा में चमरेद ने उत्पतन किया था-इन स्थानों में यथासंभव अभिगमन, वंदन, पूजन, उत्कीर्तन आदि करना दर्शनशुद्धि है ।
३५५. प्रावधानिक के ये गुणप्ररपयिक विषय है-गणितज्ञता, निमित्ताता, युक्तिमसा, समशिता, शान की अवितपता- इनकी प्रशंसा करना प्रशस्त दर्शन भावना है।
३५६. आचार्य बादि के अन्यान्य गुणों का माहात्म्य प्रकट करना, ऋषियों का नामोत्कीर्तन करना, उनकी पूजा करने वाले देवता तथा राजाओं के विषय में बताना तथा पिरन्तन चैत्यों की पूजा करना-यह प्रशस्त दर्शन भावना है।
. ३५७-५९. तत्त्व दो हैं-श्रीव और अजीच । दोनों को जानना चाहिए । यह परिज्ञान जैन शासन में ही उपलब्ध है। जैन प्रवचन में कार्य-लक्ष्य, करण–साधन (सभ्यग् ज्ञान आदि) कारक मुनि, सिद्धि-मोक्ष, इनका पूर्ण विवेचन है। यहां कर्मबंध तथा उससे मुक्ति का उपाय भी निर्दिष्ट है । (इस प्रकार ज्ञान से वासित करना ज्ञान भावना है।)
बंध बंधहेतु, गंधन तथा बंधन-फल-इनका समुचित विवेचन जैन प्रवचन में है । जनशासन १. अतिशायी मुनि अर्थात् केवलज्ञानी, मनःपर्यवशानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी । २.शिसंपन्न अर्थात आमषं औषधि आदि ऋद्धियों से सम्पन्न ।