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नियुक्तिपंचक १०-१३. (काल का कोई मुख्य करण नहीं होता। उसका औपचारिक करण होता है) जिस क्रिया के लिए जितना काल अपेक्षित होता है, वह उसका कालकरण है। अथवा जिस-जिस काल में जो करण निष्पन्न होता है, वह उसका कालकरण है । यह कालकरण का सामान्य उल्लेख है। नाम आदि के आधार पर कालकरण ग्यारह प्रकार का है१.बव ५. गर
९. चतुष्पाद २ बालब ६. वणिज
१०. नाग ३. कोलब ७. विष्टि
११. किस्तुघ्न ४. तेत्तिल
६. शकुनि इनमें प्रथम सात अब अर्थात् चल तथा शेष चार ध्रुव हैं । कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के उत्तरखंड' में सदा शकुनिकरण' होता है। अमावस्या के प्रथम अर्ध भाग में 'चतुष्पादकरण' और दूसरे अर्धभाग में 'नामकरण' होता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के प्रथम अधभाग में विस्तुध्नकरण' होता है। ये चार करण इन तिथियों के साथ निश्चित रहते हैं, इसलिए ये ध्रुवकरण हैं। ___ 'विष्टिकरण' सदा वर्जनीय है।
१४. भावकरण दो प्रकार का है--प्रयोगभावकरण तथा विरसाभामकरण । प्रयोगभावकरण दो प्रकार का है.--मूलकरण तथा उत्तरकरण | उत्तरकरण के चार भेद हैं-ऋमकरण-शरीर की निष्पत्ति के पश्चात् होने वाली बाल्म, योवन आदि अवस्थाएं। श्रुतकरण--भागे से आगे श्रत का परिज्ञान । यौवनकरण-काल कृत अवस्था विशेष | वर्णगंधरसस्पर्शकरण-भोजन आदि में विशिष्ट वर्ण, रस, गन्ध आदि का निष्पादन करना वर्णकरण है।
१५. जो वर्ण, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि दूसरे वर्णादिकों से मिलते हैं वह विनसाकरण है । ये स्थिर भी होते हैं असंख्येय काल तक रहते हैं तथा अस्थिर भी होते हैं जैसे संध्या की लालिमा, इन्द्रधनुष आदि । श्राया, आतप, दूध आदि पुद्गलों के विस्रसापरिणाम से होने वाला परिणाम विरसा भावकरण है। स्तन से निकलने के पश्चात दूध प्रतिक्षण गाहा और अम्ल होता जाता है । यह दूध आदि का विस्रसा मावकरण है।
१६. श्रुत का मूलकरण है--त्रिविध योग तथा शुभ-अशुभ ध्यान । प्रस्तुत में शुभ अध्यबसाम से प्रत स्वसिद्धान्त से युक्त यह ग्रन्थ सूत्रकृत प्रासागक है
१७. (सूत्रकृतांग के रचनाकार को कामिक अवस्था-विशेष का निरूपण) इस सूत्र की रचना गणधरों ने की है । उनके कमों की स्थिति न जघन्य थी और न उत्कृष्ट । कर्मों का अनुभाव-विपाक मंद था । बन्धन की अपेक्षा से कर्मों की प्रकृतियों का मंदानुभाव से बंध करते हए, निकाचित तथा निधत्ति अवस्था को न करते हुए, दीर्घ स्थिति वाली कमप्रकृतियों को अल्प स्थिति वाली करते हुए, बंधने बाली उत्तर प्रकृतियों का संक्रमण करते हुए, उदय में आने वाले कर्मों की उदीरणा करते हुए तथा आयुष्य कम की अनुदीरणा करते हुए, मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति आदि कमों की उदयावस्था में वर्तमान, पुवेद का अनुभव करते हुए तथा क्षायोपशमिक भाव में वर्तमान गणधरों ने इस सूत्र की रचना की। १. तिथि का आधा कालमान 'करण' कहलाता तक दो करण पूर्ण हो जाते हैं।
है। तिथि के आरम्भ से तिथि की समाप्ति