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१. तीर्थकर, अहंत्, सूत्रकार तथा गणधरों को नमस्कार कर मैं मूत्रकृतांग की नियुक्ति का प्रतिपादन करूंगा।
२. 'सूत्रकृत' यह अंगों में दूसरा अंग है। उसके ये गुणनिष्पन्न नाम है--सूतकृत, सूत्रकृत, सूचाकृत !
३. द्रव्यसूत्र है-कार्पास से उत्पन्न सूत । भावसूत्र है-सूचक ज्ञान अर्थात् श्रुतज्ञान । श्रुतज्ञानसूत्र चार प्रकार का है--संज्ञासूत्र, संग्रहसूत्र, वृत्तनिबद्ध तथा जातिनिबद्ध । जातिनिबन के चार प्रकार है-कथ्य, गद्य, पद्य तथा गेय आदि ।
४. करण, कारक और कृत--इन तीनों के छह-ग्रह निक्षेप है । कारक शब्द के छह निक्षेप हैंजामकारक, स्थापनाकारक, द्रव्यकारक, क्षेत्रकारक, कालकारक और भावकारक 1 भावकारक जीव है।
५. द्रश्यकरण के दो प्रकार हैं-प्रयोगकरण तथा वित्रसाकरण । प्रयोगकरण दो प्रकार का है--मूलकरण तथा उत्तरकरण । जिस उपस्कर--सहकारी सामग्री से पदार्थ की अभिव्यक्ति होती है, वह उत्तरकरण है, (जैसे-दंड, चक्र आदि मे वट' की अभिव्यक्ति होती है ।) कर्ता का जो उपकारक है, वह सारा उपस्कर है।
६. औदारिक आदि पांच शारीर मूलकारण हैं । औदारिक, वक्रिय तथा आहारक---इन तीन शरीरों के कर्ण, स्कंध आदि अंगोपांग की निष्पत्ति उत्तरकरण है । औदारिक शरीर की द्रव्येन्द्रियां मूलकरण है । विष, औषधि आदि से उनमें पटुता आदि का निष्पादन करना उत्तरकरण है।
७, अजीवाश्रितकरण के चार प्रकार हैंसंघातकरण-वस्त्र में ताने-बाने के रूप में तन्तुओं का संघात । परिशाटकरण--करपत्र आदि से शंख का निष्पादन 1 मिश्रकरण (संघातपरिणाटकरण)--शकट' आदि । तमयनिषेधकरण स्थूणा-खंभे को ऊंचा-तिरछा निष्पादित करना।
८. द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों में तथा अभ्र, विद्युत् आदि कारें में परिणत पुद्गल दृष्य विससाकरण है।
९ आकाश के बिना (उत्क्षेप, अवक्षेप अदि) कुछ भी नहीं किया जा सकता। अतः क्षेत्र आकाश है । यही क्षेत्रकरण है । व्यंजनपर्याय की अपेक्षा से क्षेत्र के इक्षुक्षेत्रकरण', शालिक्षेत्रकरण आदि अनेक भेद होते हैं। १. कथ्य-उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा, ऋषि- २. पुरुष की प्रवृत्ति से निष्पन्न ।
भाषित आदि। गद्य आचारांग आदि। पद्य- ३. शकट में कोलिका आदि की संघातना तथा छान्दोनिबद्ध। गेय--स्वर-संचार से गाया लकड़ी को खोलने की परिपाटना होती है। जाने बाला । जैसे-उत्तराध्ययन का आठवां ४, हल आदि से क्षेत्र को संस्कारित करना कापिलीय अध्ययन ।
क्षेत्रकरण है।