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उत्तराध्ययन नियुक्ति
७१. परीषद अविरत, विरताविरत तथा बिरत-तीनों के होते हैं । यह तथ्य नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र-ये पारों नय स्वीकार करते हैं। तीन गम्दनयों-शब्द, समभिरुन तथा एवंभूत के अनुसार परीषह केवल विरत-संमत के ही होते हैं।
७२. नैगम नय के अनुसार परीषहों की उदीरणा के बाठ विकल्प है-जीक द्वारा, जीवों द्वारा, अबीच द्वारा, अजीवों द्वारा, जीव-बजीव द्वारा, जीब-अजीवों द्वारा, जीवों-अजीब द्वारा तथा जीवोंमजीवों द्वारा । संग्रह नम के अनुसार जीव अथवा अजीब द्रव्य के द्वारा, व्यवहार नय के अनुसार केवल नोबीव–अर्थात अजीव ट्रव्य के द्वारा तथा शेष नयों के अनुसार केवल जीव द्रव्य के द्वारा परीषहों की उदीरणा होती है ।
७३. परीषहों का मार विषय में से दो पद गारे ' सलस्तार और पुरुष समवतार । इनका नानात्व में क्रमशः बताऊंगा।
७४. ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय भोर अन्तराय इन चार कर्मों की नाना प्रकृतियों में बावीस परीषहों का समवतार होता है।
७५. प्रज्ञा और अज्ञान-ये दो परीषह ज्ञानाबरणीय कर्म के उदय से होते हैं। एक अलाभ परीषह अंतराय कर्म के उवय से होता है।
७६. बरति, अचेल, स्त्री, नषेधिकी, याचना, आक्रोश और सस्कार-पुरस्कार में सात परीषह चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं।
७७. (चारित्र मोहनीय कर्म की अनेक प्रकृतियां हैं।) उनमें अरति मोहनीय के उदय से अति, जुगुप्सा मोहनीप से अचेल, पुरुषवेद से स्त्री, भय से नषेधिकी, मान से याचना, क्रोध से आक्रोश तपा लोभ से सत्कार-पुरस्कार परीवह उत्पन्न होता है।
____७८. दर्शन मोहनीय के उदय से दर्शन परीषह का उदय होता है । शेष ग्यारह परीषह वेदनीय कर्म के उदय से होते हैं।
७९. क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक; चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और जल्ल--- ये ग्यारह परीषह वेदनीय कर्म के उदय से होते हैं।
८०. बादर सम्पराम गुणस्थान (नवमें) तक बावीस परीषह, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान (दसवें गुणस्थान) में चौदह परीषह, छप्रस्थ बीतराग गुणस्थान (ग्यारहवें) में चौदह परीषह तथा केबली में ग्यारह परीषह होते हैं।
८१. तीन नयों माद नगम, संग्रह और व्यवहार के अनुसार एषणीय और अनेषणीय भोजन आदि का अग्रहण और अपरिभोग अध्यासना है। तीन शब्द नयों अर्थात् शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत और ऋजुसूत्रनय के अनुसार मुनि द्वारा प्रासुक अन्न आदि का ग्रहण तथा परिभोग भी अध्यासना है।
१.ज्ञानावरणीय आदि कमों की प्रकृतियां । २३. चारित्रमोहनीय कर्म-प्रतिबद्ध सात परीषह
तथा दर्शनमोहनीय कर्म प्रतिबद्ध एक परीषह-
ये आठ परीषह वहां नहीं होते। ४. वेदनीय कर्म-प्रतिवद्ध क्षत, पिपासा आदि
ग्यारह परीषह होते है।