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उत्तराध्ययननियुक्ति
इकतीस अध्ययन : चरण-विधि
५०९, ५१०. चरण शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य चरण के दो भेद हैं- आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं ज्ञशरीर भव्यशरीर, तदुत्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त शिक्षा आदि की गति अर्थात् भक्षण लिया गया है। आचार को क्रमान्वित करना भावचरण है ।
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५११, ५१२ विधि शब्द के चार निक्षेप हैं नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य विधि के दो भेद है - आगमतः, नो- आगमतः । नो-आगमता के तीन भेद हैं- शारीर, मध्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त विधि में इन्द्रियों की विषयचारिता ज्ञातव्य है । भाव विधि दो प्रकार की है— संगमोपयोग और तपोयोग ।
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५१३. प्रस्तुत अध्ययन में भाव चरण और भाव विधि का प्रसंग है। अतः अचरणविधि को छोड़कर चरणविधि में उद्यम करना चाहिए ।
बत्तीसवां अध्ययन : प्रभाव स्थान
५१४, १५, प्रमाद के चार निक्षेप है नाम स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य प्रमाद के दो भेद है – नागमतः, नो- आगमतः । नो- अगमतः के तीन भेद हैं शरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त | सद्व्यतिरिक्त प्रसाद मय आदि जनित है। भाव प्रमाद है- निद्रा, विकथा, कषाय और विषय ।
५१६. स्थान शब्द के चौदह निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, अद्धा, ऊठवं उपरति, वसति, संयम, प्रग्रह, योध, अचल, गणना और संधना ।
५१७. यहां भावप्रमाद और संख्या युक्त भाचस्थान का अधिकार है अतः प्रमाद को छोड़कर अप्रमाद में प्रयत्न करना चाहिए।
५१८ हजार वर्ष तक उपतप तपने वाले आदिमाथ ऋषभ का संकलित प्रमादकाल अर्थात् समस्त प्रभावकाल एक अहोरात्र का था ।
५१९. बारह वर्ष से अधिक उग्र तप तपने वाले चरम तीर्थंकर महावीर का संकलित प्रमादकाल का है ।
५२०. धर्म के प्रयोजन से शून्य जिनका काल निरर्थक बीतता है, वे प्राणी प्रमाद के दोष से अनन्तकाल तक संसार में चक्कर लगाते हैं ।
को प्रमाद छोड़कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अप्रमाद करना
५२१. इसलिए पंडित 'पुरुष
चाहिए ।
तेतीसवां अध्ययन : कर्मप्रकृति
५२२, ५२३. कर्म शब्द के चार निक्षेप हैं-- नाम, स्थापना, दृष्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के दो भेद हैं-कर्म, नोकर्म कर्म में गृहीत है ।
और भाष । द्रव्य निक्षेप हैं- शशरीर, भव्यशरीर,
कर्म की अनुवयावस्था