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ਖਿਆ २४८, लोक के चार प्रकार हैं-द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक । श्रमण के द्रव्य आदि चार प्रकार के चार कैसे होंगे? इसके निर्वचन में कहा गया है-प्रस्तुत में धुति का प्रसंग है । अरस-विरस द्रव्य में धूति रखना श्रमण का द्रव्यपार है। प्रतिकूल क्षेत्र में घृति रखना क्षेत्रचार है । दुष्काल आदि में यथालाभ-प्राप्ति से संतुष्ट रहना कालचार है। भावचार हैप्रतिकूलता में भी अनुद्विग्न रहना । विशेषतः क्षेत्र और काल की प्रतिकूलता में धुति रखना निर्दिष्ट है।
२४९. मुनि के लिए पाप से उपरत रहना तथा अपरिग्रही रहना द्रव्यचार है। गुरुकुलवास में रहना क्षेत्रचार है। सर्वदा गुरुवचनों से युक्त रहना कालचार है। उन्मार्ग का वर्जन करना तथा राग-तष से विरत रहना भावपार है। इस प्रकार श्रमण संघमानुष्ठान के साथ विचरण करे।
छठा अध्ययन : धुत
२५०,२५१. छठे अध्ययन के पांच उद्देशक हैं । उनके अधिकार इस प्रकार है१.पहले उहेमक का अर्थाधिकार-स्वजन का विश्वनन । २. दुसरे उद्देशक का अर्थाधिकार-कर्मों का विधनन । ३. तीसरे उद्देशक का अधिकार-उपकरण तथा शरीर का विधनन । ४. चौथे उद्देशक का अर्थाधिकार-तीन गौरवों का विधनन । ५. पांचवे उद्देशक का अर्थाधिकार-उपसगो तथा सम्मानों का विधूनन ।
द्रव्यधुत है- वस्त्रों को धुनना-रजों का अपनयन करना तथा भाषधृत है-आठ प्रकार के कर्मों को धुनना।
२५२. जो देवता संबंधी, मनुष्य संबंधी तथा तिर्यञ्च संबंधी उपसगों को अत्यधिक सहन कर कमों का धुनन करता है, वह भावधुत है ।
सातवा अध्ययन : महापरिज्ञा
२५३. प्रथम उद्देशक के तीन अधिकार हैं-१. गृहपतिसंयोग परिज्ञा २. कुशीलसेवा परिज्ञा ३. स्वपक्ष (साधर्मिक) संबंध के साथ विवेक।
२५४. द्वितीय उद्देशक में कुमार्ग का त्याग, देहविभूषा, मैथुन-सेवन, गर्भ का आदान, परिशाटन तथा पोषण आदि के बारे में चर्चा करने के परित्याग का निर्देश है।
२५५,२५६, तीसरे उद्देशक में अविनय, उद्दडता का परिहार, आसक्ति के कारण और निवारण की पुच्छा, शयम आदि में सहिष्णुता, प्रसरण तथा उत्सर्ग की विधि, क्रियाएं और वस्त्र धोने के विधान का वर्णन है । इसके अतिरिक्त पंखे आदि का प्रयोग, वैहानस (मरण का एक प्रकार), हस्तकर्म, स्त्रीसंसर्ग तथा देहपरिकर्म का वर्जन किया गया है। इस उद्देशक में साधना के विष्नभूत निमित्तों को छोड़ने का निर्देश भी है।