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आचारांग निर्मुक्ति
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पूर्वी मरण का क्रम यह है जो साधक मुमुक्षाभाव से उत्प्रेरित है, उसे पहले दीक्षा दी जाती है। फिर उसे सूत्र की वाचना और पश्चात् अर्थ की वाचना से अनुप्राणित किया जाता है। गुरु से अनुशा प्राप्त कर जब वह तीन प्रकार के अनशनों में से किसी एक को ग्रहण करता है, तब वह आहार, उपधि और कन्या इन तीन के नित्य परिभोग से मुक्त हो जाता है।"
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२८७. अनशन की आज्ञा देने वाले मुनि को आचार्य पुनः संलेखना करने की प्रेरणा देते हैं पर वह कुपित हो जाता है। जैसे राजा की आज्ञा पहले तीक्ष्ण होती है बाद में शीतल बन जाती है। वैसे ही आचार्य की प्रेरणात्मक आशा पहले तीक्ष्ण लगती है, बाद में कुछ शीतल धन जाती है। (यदि इतने पर भी मुनि का क्रोध शांत नहीं होता है तो) अन्य तंबोल पत्रों को सुरक्षित रखने के लिए जैसे कुपित तंबोल पत्र को बाहर निकाल दिया जाता है, वैसे ही उस मुनि को गण से बाहर कर दे। यदि यह आचार्य की आज्ञा मानता है तो उसकी पहले, कदर्थना करे, उसकी सहिष्णुता की परीक्षा करे और फिर उस पर प्रसाद अर्थात् अनशन की आशा देने की कृपा करे।" २०५ ९१. जैसे पक्षिणी अपने अंडों का प्रयत्नपूर्वक निष्पादन करती है वैसे ही गुरु शिष्यों को निष्पादित कर योग्य बनाकर बारह वर्षों की संलेखना स्वीकार करे। उस संसेखना का स्वरूप इस प्रकार है
१. प्रथम चार वर्षों तक विचित्र तप का अनुष्ठान अर्थात् उपवास, बेला - दो दिन का उपवास, तेला-तीन दिन का उपवास, बोला- चार दिन का उपवास पंचोलापांच दिन का उपवास करना होता है। इस काल में पारणक विनय सहित या विगय रहित किया जा सकता है।
२. द्वितीय चार वर्ष में तपस्या के पारणक विहित ही होते हैं ।
३. नौंवें तथा दसवें वर्ष में एक उपवास, फिर आप बिल - इस प्रकार दो वर्ष तक करने होते हैं ।
४. ग्यारहवें वर्ष में पहले छह महीने में अतिविकृष्ट तप नहीं होता, उपवास या बेले के पारणक में नियमित बायबल करना होता है। दूसरे छह महीने में विकृष्टपण के पारणक में आयंबिल करना होता है।
५. बारहवें वर्ष में कोटी सहित आचाम्ल' करना होता है। (तुर्मास शेष रहने पर अनशनकारी रोल के बार-बार कुल्ले करता है)। इस प्रकार क्रमशः संखा करता हुआ साधक अंत में गिरिकन्दरा में जाकर अपनी इच्छानुसार प्रायोपगमन (अथवा इंगिनी या भक्तप्रत्याख्यान ) अनशन स्वीकार करता है।"
१. यदि आचार्य अनशन करना चाहें तो वे सबसे
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पहले शिष्यों का निष्पादन कर दूसरे आचार्य की स्थापना कर, औत्सर्गिक रूप से बारह वर्षों की संलेखना से अपने शरीर को कुश कर, गच्छ की अनुशा से अथवा अपने द्वारा प्रस्थापित आचार्य से अनुज्ञा प्राप्त कर अनशन करने के लिए अन्य आचार्य की सन्निधि में जाए। इसी प्रकार संलेखना लेने वाले उपाध्याय, प्रवत्तंक, स्थविर,
गणावच्छेदक अथवा सामान्य मुनि आचार्य से अनुज्ञा प्राप्त कर अनशन स्वीकार करे । २. देखें परि० ६ कथा सं० ९ ।
३. कोटीसहित आचाम्ल-पूर्व दिन के बाचाम्ल से अगले दिन के आचामल की श्रेणी को मिलाना । भावार्थ में प्रतिदिन आचाम्ल करता है।
४. विशेष विवरण के लिए देखें श्री भिक्षु मागम विषय कोश पृ० ६६०,६६९ ।