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आचारांग नियुक्ति
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२४०. द्रव्यसार का प्रतिपादन - समस्त संपत्तियों में धन सार है। स्थूल पदार्थों में एरंड, भारी पदार्थों में बध, मध्यम पदार्थों में खदिर, देशप्रधान' में जिन तथा शरीरों में औधारिक शरीर (मुक्तिगमन की योग्यता के कारण ) सार है (आदि शब्द से स्वामित्व, करण और अधिकरण की सारता, जैसे- स्वामित्व - गोरस में सारभूत है घृत, करणत्व में सारभूत है- मणिसार वाले मुकुट से शोभित राजा, अधिकरण में सारभूत है- दही में भी बल में सारभूत है पद्म आदि )
२४१. भावसार के प्रसंग में फल-साधनता अर्थात् फल की प्राप्ति सार है। फलावाप्ति का सार है- उत्तम मुख वाली वरिष्ठ सिद्धि उसके साधन हैं ज्ञान, दर्शन, संयम और तप । प्रस्तुत में उसी का अधिकार है।
२४२. लोक में अनेक कुसमय कुसिद्धान्त प्रचलित है। वे काम तथा परिग्रह से कुत्सित मार्ग वाले हैं। लोग उनमें लगे हुए हैं। संसार में सारभूत हैं- ज्ञान, दर्शन, तप तथा चारित्रगुण । ये सिद्धि प्राप्ति के प्रयोजन को सिद्ध करने वाले हैं।'
२४३. शंका के निमित्त कारण को छोड़कर इस (ज्ञान, दर्शन, तप, चारित्रात्मक ) सारपद को दृढ़ता से ग्रहण करना चाहिए। जीव है, परमपद - मोक्ष है, यतना - राग-द्वेष का उपशमन - संयम है। इनमें कभी संदेह नहीं करना चाहिए।
२४४. लोक का सार क्या है? उस लार का सार कौनसा है? उस सारसार का सार क्या है ? मैंने पूछा है, यदि तुम जानते हो तो बताओ।
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२४५. लोक का सार है-धर्म धर्म का सार है-ज्ञान शान का सार है-संयम । संयम का सार है निर्वाण ।
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२४६. चार, चर्या और परण- ये तीनों शब्द एकार्थक हैं। चार के नाम स्थापना आदि वह निक्षेप निक्षेप हैं । द्रव्यचार - दाद संक्रम ( लकड़ी का पुल), जलचार, स्थलचार आदि अनेक प्रकार का होता है।'
२४०. जिस क्षेत्र में चार होता है, उसे क्षेत्रचार कहा जाता है। जिस काल में चार होता है, उसे कालचार कहा जाता है। भावचार के दो प्रकार हैं- प्रशस्त तथा अप्रशस्त । प्रशस्त भावचार है-ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र (शेष अप्रशस्त भावचार है।)
१. प्रधान भाव तीन प्रकार का है-सचित, अचित्त और मिश्र । सवित्त के तीन प्रकार हैं द्विपद, चतुष्पद तथा अपद द्विपद में जिन, चतुष्पद में सिंह तथा अपक्ष में कल्पवृक्ष अचित में वैडूर्य मणि तथा मिश्र में विभूषित तीर्थकर टीकाकार ने देश और प्रधान को भिन्न भिन्न मानकर अर्थ किया है। उनके अनुसार देश में सारे नाम तथा प्रधान में सार जिन है (आटी पू. १३१)
२. हिडाए - हिता - सिद्धिस्तदर्थत्वादिति । ३. जल में सेतु आदि का
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निर्माण स्थल में गों को लांघना आदि जलवार है- नौका से यात्रा करना । स्थलबार - रथ आदि से यमन करना आदि शब्द से प्रासाद आदि में सोपानपक्ति का निर्माण, जिससे एक स्थान से दूसरे स्थान की प्राप्ति होती है। यह द्रष्पचार है ।