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आगरांग नियुक्ति
१९७. द्वितीय उद्देशक में संयम में अदृढ़ता का निरूपण है। कोई मुनि अरति के कारण संयम में शिथिल हो जाता है । यह, अरति अज्ञान, काम, लोभ आदि अध्यात्मदोषों से उत्पन्न होती
तीसरा अध्ययन : शीतोष्णीय
१९८,१९९. तीसरे अध्ययन के पार उद्देशक हैं । उनके अधिकार इस प्रकार है. १. पहले उद्देशक में सुप्त गृहस्थों के दोषों सथा जागृत' गृहस्थों के गुणों का प्रतिपादन है।
२. दूसरे सद्देशक का प्रतिपाद्य यह है--दुःखों का अनुभव ये ही असंयत मनुष्य करते हैं, जो भावनिद्रा ग्रस्त हैं।
३. तीसरे उद्देशक का प्रतिपाद्य है कि केवल दुःख सहने से ही नहीं, उसको न करने से श्रमण होता है।
४. पीथे उद्देशक में कषायों के वमन का उपदेश, पाप कर्मों से विरति. तत्त्वज्ञ के ही संयम की निष्पत्ति तथा भवोपनाही कर्मों के क्षय से मोक्ष होता है - इनका प्रतिपादन है।
२००. शीत और उष्ण के चार-चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ।
२०१. द्रव्यशीत-शीतल द्रव्य, द्रव्यउष्ण-उष्णद्रव्य । पुद्गलाश्रित भावशीत-पुदगल का शीलगुण । पुद्गलायित भावउष्ण पुद्गल का उष्णगुण । जीव का पीतोष्णरूप गुण अनेक प्रकार का है । (जैसे-जीव का ओदायिक भाव उष्ण है, औपमिक भाव शीत है, क्षायिकभाव भी शीत है अथवा समस्त कमा का दहन करने के कारण यह उष्ण है।)
२०२. यहां शीत अर्थात् भावशीत का अर्थ है-जीव का परिणाम | प्रमाद-कार्यथिरुम. शीतलविहारता, उपशम-मोहनीय कर्म का उपशम, विरति---सतरह प्रकार का संयम, मुख-सातवेदनीय का उदय -ये सारे अपीडाकारक होने से भावधीत हैं।
सभी परीषह, तप में उद्यम, कषाय, शोक, देदोदय, अरति तथा दुःख-असातवेदनीय का उदय-ये सारे पीडाकारक होने के कारण भावउष्ण हैं।
२०३. स्त्री परीषह तथा सत्कार परीवह--ये दोनों मन के अनुकूल होने के कारण शीत परीवह हैं । शेष बीस परीषह (मन के प्रतिकूल होने के कारण) उष्ण होते हैं।
२०४. जो तीन परिणाम बाले परीवह होते हैं, वे उष्ण तथा जो मंद परिणाम वाले परीषह है, वे शीत कहलाते हैं।
२०५. जो धर्म में प्रमाद करता है तथा अर्थोपार्जन में शीतल' है-यह शीस है। इसके विपरीत जो संगम के प्रति उद्यमशील है, वह उष्ण है।
२०६. जिसके कषाय उपशांत हैं वह शीतीभूत, कषाय की ज्वाला बुझ जाने से परिनित, राग-द्वेष के उपशमन से उपशांत और कषाय के परिताप के उपशमन से प्रह्लादित होता है। यह सारा परिणाम' उपशांत कषाय वाले के होता है, इसलिए उपशांत कषाय शीत होता है।