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निर्युतिमं चक
३८. संज्ञा के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य संज्ञा है - सचित्त आदि । भाव संज्ञा के दो प्रकार हैं- अनुभवसंज्ञा तथा ज्ञानसंज्ञा मतिज्ञान आदि पांच ज्ञान ज्ञान संज्ञाएं हैं ।' अनुभवसंज्ञा अपने किए हुए कर्मों के उदय से उल्पित होती है ।
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३९. अनुभव संज्ञा के सोलह प्रकार हैं- १. आहारसंज्ञा २ भयसंज्ञा, ३ परिग्रहसंज्ञा, ४. मैथुनसंज्ञा, ५. सुखसंज्ञा, ६. दुःखसंज्ञा, ७ मोहसंशा, ८ विचिकित्सा संज्ञा' ९. क्रोधसंज्ञा, १०. मानसंज्ञा, ११. मायासंज्ञा, १२. लोभसंज्ञा १३ शोकसंज्ञा १४. लोकसंज्ञा, १५. धर्मसंज्ञा, १६. ओषसंज्ञा ।
४०. दिशा शब्द के सात निक्षेप ज्ञातव्य हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, ताप, प्रशापक तथा
भाव ।
४९. द्रव्यदि तेरह प्रदेशात्मक होती है तथा तेरह आकाश-प्रवेशों में अवगाढ़ होती है । जो द्रव्य दश दिशाकों के उत्थान का कारण है, वह द्रव्यदिशा है।
४२. तिथंग् लोक के मध्य में अष्ट प्रदेशात्मक रुचक प्रदेश है।" वे ही दिशाबों और अनुदिशाओं के उत्पत्ति-स्थल हैं।
४३. ऐन्द्री (पूर्व). आग्नेयी, याम्या (दक्षिण), नेती, वारुणी (पश्चिम), वायव्या सोमा (उत्तर), ईशानी, विमला (ऊडवं ), तमा ( अधः ) - ये दश दिशाएं है ।
४४. देशात्मका बार महादिशाएं दो-दो प्रदेशों की वृद्धिसहित होती हैं ।" चार विदिशाए एक प्रदेशात्मिका होती हैं और वृद्धिरहित होती हैं। ऊर्ध्व और अधः- मे दो दिशाएं चार आकाश प्रवेशात्मिका होती । ये भी वृद्धिरहित होती है ।
४५. सभी दिशाएं मध्य में आदि सहित हैं तथा बाह्यपार्श्व में अपर्यवसित - अन्तरक्षित हैं । (बाह्य भाग में अलोकाकाश के आश्रय से अपर्यवसित हैं। सब दिशाएं उत्कृष्टतः अनन्त प्रदेशात्मिका हूँ। सभी दिशाओं की आरमिक संज्ञा कडजुम्म* ( कृतयुग्म ) है ।
४६. चार महादिशाएं शकटोद्धि के संस्थान बाली होती है। चार विदिशाएं मुक्तावलि के आकार वाली तथा ऊंची और नीची- ये दो दिशाएं हचक के समान आकार वाली होती हैं ।
१. मननं मतिः अवबोधः सा च मतिज्ञानादि
पंचधा । तत्र केवलसंज्ञा क्षायिकी, शेषास्तु aratva fear | (आटी पु ८) २. चित्तविप्लुति ।
३. लौकिक आचार-व्यवहार ।
४. अव्यक्त उपयोग ---वल्लरी का वृक्ष पर चढ़ना ।
५. तिर्यक्लोक के मध्य में रत्नप्रभापृथिवी के ऊपर बहुमध्यदेश भाग में मेद पर्वत के अन्तर दो सर्व क्षुल्लक प्रतर हैं। उनके ऊपर तथा नीचे चार-चार प्रदेश है। यह आठ आकाश
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प्रदेशात्मक चतुष्कोण रुचक प्रदेश हैं ।
६. मेरु के मध्य अष्ट प्रदेशी रुचक हैं। वहां चार दिशाओं में से प्रत्येक दिशा के प्रारंभ में दो-दो प्रदेश निकलते हैं, फिर चार-चार छह-छह आठ माठ - इस प्रकार दो-दो के क्रम से उनकी वृद्धि होती जाती है।
७. आटी ९: सर्वासां दिशां प्रत्येकं ये प्रदेशास्ते चतुक केनापह्रयमाणाश्चतुष्का शेषर भवन्तीति कृत्वा तत्प्रदेशात्मिकाश्च दिश आगमसंज्ञया कड जुम्मति शब्देनाभिधीयन्ते ।