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नियुक्तिपंचक १७७. लोक के विषय में कहा जा चुका है।' विजय शम्द के छह निक्षेपों में नामविजय तथा स्थापनाविजय के अतिरिक्त शेष चार निक्षेप इस प्रकार है
दष्यविजय-तव्य से विजय । क्षेत्रविजय-क्षेत्र पर विजय । भरत का छह खंडों पर विजय पाना । कामविजय-जितने समय मा काल में विजय प्राप्त की जाती है। जैसे-भरत ने साठ
हजार वषों में भारत पर विजय प्राप्त की। भाबविजय-औदयिक आदि भावों पर विजय ।
प्रस्तुत में भवलोक अर्थात् भावलोक पर भावविजय का प्रसंग है। यहीं प्राणिगण आठ प्रकार के कमों से बंधता है तथा मुक्त होता है।
१७८. प्राणी कषायलोक से पराजित है, इसलिए उससे निवतित होना श्रेयस्कर है । साथसाथ जो 'काम' से निवर्तित होता है, वह शीघ्र ही संसार से मुक्त हो जाता है ।
१७९. गुण के पन्द्रह निक्षेप है-नामगुण, स्थापनागुण, द्रव्यगुण, क्षेत्रगुण, कालगुण, फलगुण, पर्यवगुण, गणनागुण, करणगुण, अभ्यासगुण, गुण अगुण, अगुण-गुण, भवगुण, शीलगुण तथा भावगुण ।
१०. स्वयं द्रव्य ही द्रव्य गुण है क्योंकि गुणों का (अस्तिस्त्र) गुणी में संभव होता है । द्रव्य के तीन प्रकार हैं-सचित्त, भपित्त तथा मिथ । इनके अपने-अपने गुण स्वयं में तादात्म्य भाव से अवस्थित हैं।
१५१. संकुचित होना, विकसित होना-ये जीव के आत्मभूत गुण हैं । वह अपने बहुप्रदेशात्मक गुण के कारण समुद्घात के समय संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। १५२. क्षेत्र आदि गुणों का विवरण इस प्रकार है१. क्षेत्रगुण - देवफुरु, उत्तरकुरु आदि भूमियों का गुण (जसे - वहां के मनुष्य
___ अवस्थित योवन वाले, निरूपक्रम आयुष्य वाले, स्वभाव से ऋज, मृदु
होते हैं। २. कालगुण - भरत, ऐरवत आदि क्षेत्रों में एकांत सुषमा आदि तीनों कालों में सदा
यौवन आदि की अवस्थिति । ३. फलगुण · रत्नत्रयी की आराधना का अनाबाध सुख-सिविरूपी फल । ४. पर्यवगुण-पर्याय का गुण है -निभंजना निश्चित विभक्त होते जाना । ५. गणनागुण-एक, दो आदि से इयत्ता का अवधारण |
६. करणगुण-कला-कौशल ।। १. लोक शब्द की व्याख्या आवश्यक नियुक्ति के के दो गुण है-अमूसंख्ख तथा अगुरुलभुपर्याय । चतुर्विशतिस्तव में की जा चुकी है।
ये सभी अरूपी द्रव्यों में मिलते हैं। रूपी २. जैसे - सचित्त द्रव्य अथवा जीवद्रव्य का द्रव्य का गुण है-मूर्तस्व । यह सभी रूपी
लक्षण है-उपयोग । उससे पृथक् अन्य में द्रव्यों में मिलेगा। इस प्रकार द्रव्य और गुण ज्ञान आदि गुण नहीं मिलते । अचित्त द्रव्य के का तादात्म्य है। दो भेद-रूपी और अरूपी। अरूपी द्रव्य