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आचारांग नियुक्ति
१६५,१६६. वायुकाय जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म वायुकाय के जीव समस्त लोक में तथा बादर वायुकाय के जीव लोक के एक भाग में होते है। बादर वायुकाम के जीव पाच प्रकार के हैं-उत्कलिकावात, मंडलिकाबात, गुंजावात, घनबात, शुद्धवात ।
१६७. जैसे देवताओं का शरीर चक्षुम्नाय नहीं होता है, जैसे अंजन, विद्या तथा मंत्रशक्ति से मनुष्य अन्तर्धान हो जाता है वैसे ही वायु असदूप- चक्षुग्राह्यरूप वाली न होने पर भी उसका व्यपदेश किया जाता है।
१६८, बादर पर्याप्तक वायुकाय संवर्तित लोकप्रतर के असंख्येय भागवतिप्रदेश राशि के परिमाण जितने हैं । शेष तीनों पृथक्-पृथक् रूप से असंख्येय लोकाकाश परिमाण जितने हैं।
१६९. व्यजन, (पंखे आदि से हवा करना), धोंकनी से धमना, अभिधारणा, उत्सिंचन, फूत्कार, (कूफ देना) प्राण-अपान-मनुष्यों की इन प्रवृत्तियों में चादर वायुकाय का उपभोग होता
१७०. व्यजन, तालबंट, सूर्प, चामर, पत्र, बस्त्र का अंचल, अभिधारणा-पसीने से लथपथ हो पानुप्रवेश पारबहाना गंधरय, अग्नि-ये वायुकाय के द्रव्यशास्त्र हैं।
१७१. वामुकाय के कुछ स्वकाय शस्त्र हैं, कुछ परकाय शस्त्र हैं और कुछ उभयशस्त्र हैं। ये सारे द्रव्यशस्त्र हैं । भाषशस्त्र है-असंयम ।
१७२, वायुकाय के शेष द्वार पृथ्वीकाय की भांति ही होते हैं। इस प्रकार वायुकाय की नियुक्ति प्ररूपित है। दूसरा अध्ययन : लोकविजय १७३. दूसरे अध्ययन के छह उद्देशक हैं। उनके अधिकार इस प्रकार है ..
१. स्वजन में आसक्ति करने का निषेध । २. संयम में अदृढत्व-शैथिल्य करने का निषेध । ३. सभी मदस्थानों में अहं का निषेध तथा अर्थसार की निस्सारता का प्रतिपादन । ४. भोगों में आसक्त न होने का प्रतिपादन । ५. लोकनिश्रा का आलंबन ।
६. लोक-संस्तृत तथा असंस्तृत व्यक्तियों में ममत्व का निषेध ।
१७४. लोक, विजय, गुण, मूल तथा स्थान-इनके निक्षेप करना चाहिए । संसार का मूल है कषाय, उसका भी निक्षेप करना चाहिए ।
१७५. लोक और विजय-ये अहययन के सक्षण से निष्पन्न है । गुण, मूल तथा स्थान-- ये सूत्रालापक निष्पन्न हैं।
१७६. लोक शम्द के आठ निक्षेप हैं (नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव तथा पर्यब)। विजय शब्द के छह निक्षेप है-(नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव)। प्रस्तुत में औदयिक भाव कषायलोक के विजय का अधिकार है, प्रसंग है।