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उत्तराध्ययन नियुक्ति
३७. ब्रह्मदत्त ने जातिस्मृति शान द्वारा अपनी पूर्वजन्म की जातियों का दो पचों में प्रकाशन किया तथा उस श्लोक की पूर्ति का निवेदन किया। मुनि चित्र ने यह सुना और वहां आए । चित्र मुनि ने ब्रह्मदत्त को ऋदि के परित्याग का उपदेश दिया । यही सूत्र के अर्थ की परम्परा है।'
४८-५२. बृहद् वृत्तिकार शान्त्याचार्य ने इन पांचों गाथाओं के विषय में लिखा है-इन श्लोकों की परम्परा ज्ञात न होने के कारण इनका विवरण नहीं दिया गया है। आचार्य नेमिचन्द्र द्वारा उत्तराध्ययन सूत्र पर निर्मित 'सुखबोधा' वृत्ति (पत्र १८५-९७) में तदविषयक विस्तृत कथानक है । उसी में से इन पांच श्लोकागत संक्षिप्त तथ्यों का विस्तार से आकलन किया जा सकता है।' चौदहवां अध्ययन : इषकारीय
३५३,३५४. इषकार शब्द के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, प्रव्य और भाष । द्रव्य के यो निक्षेप है--आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमत: के तीन निक्षेप है- शरीर, भव्यशरीर और तत्व्यतिरिक्त । तदव्यतिरिक्त के तीन भेद है एफविक, बद्धायक और ममखनामगोत्र ।
३५५. इषु कार नाम, गोत्र का वेदन करने वाला भाव इषुकार होता है। इषकार से उद्भूत होने के कारण इस अध्ययन का नाम इषकारीय है।
३५६. पूर्वभव के स्नेह से संबद्ध, प्रीतिभाष, परस्पर अनुरक्त छह व्यक्ति भोग्य भोगों को भोगकर, अन्थिरहित होकर प्रबजित हो श्रमण बन गए।
३५७. श्रामण्य का पालन कर वे पपगुल्म नामक विमान में उत्पन्न हुए। यहां उनकी उत्कृष्ट स्थिति चार पल्योपम की थी।
३५८. यहां से च्युत होकर वे छहों व्यक्ति कुरुजनपद के इषुकार नगर में उत्पन्न हुए। ३ चरमशरीरी और विगतमोह थे।
३५९, इषुकार नगर में इषुकार राजा था। कमलावती देवी अग्रमहिषी पी। उसके पुरोहित का नाम भगु और उसकी पत्नी का नाम वाशिष्ठी था।
३६०. इषकार नगर में इषुकार राणा के पुरोहित के कोई संतान नहीं थी। ये दोनों पतिपत्नी पुत्र के लिए बहुत व्याकुल रहते थे ।
___३६१. गोपपुत्र देवों ने श्रमण का रूप बनाकर पुरोहित को बताया कि देवलोक से व्युत होकर पो देव तुम्हारे पुत्ररूप में उत्पन्न होंगे।
३६२. तुम्हारे वे दोनों पुत्र प्राजित होंगे। तुम उनकी प्रवज्या में बाधक मत बनना क्योंकि वे प्रवजित होकर बहुत लोगों को प्रतिबोध देंगे ।
३६३,३६४. उनका वचन सुनकर वह पुरोहित अपनी पत्नी के साथ दूसरे गोकुल ग्राम में चला गया । यहाँ उसके दो पुत्र हुए। वे बढ़ने लगे। पुरोहित उनको असद्भाव-प्रमणों के प्रति मिथ्या धारणा की शिक्षा देने लगा। वह कहता-पुत्रों ! ये श्रमण धूर्त है, प्रेत-पिशाचरूप हैं और नरमांस के भक्षक हैं । तुम उनकी संगति कभी मत करना । पुत्रों ! तुम नष्ट-प्रष्ट मत हो जाना।' १. देखें परि० ६, कथा सं० ५५
२. वही, कक्षा सं०५६