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उत्तराध्ययन नियुक्ति
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आनन्दमम प्रासाद में प्रमदाओं के साथ दोगदक देवों की भांति क्रीड़ारत रहता था। एक बार वह प्रासाद के झरोखे में बैठा-बैठा नगर के विस्तीर्ण, ऋज तथा सम विपणि-मागों को देख रहा था। उस समय राजमार्ग में उसने श्रुतसागर के पारगामी, धीर-गंभीर, तप, नियम तथा संयम के धारक संयती मुनि को देखा | राजपुत्र उस मुनि का अनिमेषदृष्टि से देखता रहा । उत्तं सगा कि ऐसा रूप मैंने पहले भी कभी देखा है। ऐसा विचार करते-करते उसे संशिज्ञान-जातिस्मृतिज्ञान उत्पन्न हुआ और उसे स्मृति हो आई कि पूर्वभव में मैंने भी ऐसा साधु-जीवन स्वीकार किया था । इस प्रकार बोधिलाभ प्राप्त कर वह माता-पिता के चरणों में प्रणिपात कर बोला- पिताजी ! मैं इस गृहस्थ जीवन को छोड़कर श्रमणत्व-प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूं।'
४११-१५. माता-पिता ने सोचा कि बलश्री (मृगापुत्र) अपने निर्णय के अनुसार करेगा ही तब उन्होंने कहा-पुत्र ! तुम धन्य हो, जो सुख-सामग्री की विद्यमानता में विरक्त हए हो। पूत्र ! तम सिंह की तरह अभिनिष्क्रमण कर सिंहत्ति से ही उसे निभाना । धर्म की कामना रखते हुए काम-भोगों से विरक्त होकर विहरण करना । वत्स ! तुम ज्ञान से, दर्शन से, चारित्र से तथा तपसंयम और नियम से, शांति, मुक्ति आदि से सदा वर्धमान रहना । संवेगजनित हर्ष से हर्षित और मोक्षगमन के लिये उत्कंठित बलश्री ने माता-पिता के भाशीर्वादात्मक वचन को हाथ जोड़कर स्वीकार किया । परम ऐश्वर्य से अभिनिष्क्रमण कर परमघोर श्रामण्य का पालन करके वह धीर पुरुष वहाँ गया, जहां संसार को क्षीण करने वाले जाते है, अर्थात् वह मोक्ष चला गया।' बोसवां अध्ययन : महानिप्रन्योप
४१६. क्षुल्लक शब्द के आठ निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, स्थान, प्रति और भाव । इन झुल्लकों का प्रतिपक्षी ई-महत् । उसके भी आठ निक्षेप हैं।
४१७,४१८, निम्रन्थ शब्द के पार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद है-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के सीन भेद है जशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त में निहव आदि आते है । भाव निक्षेप पांच प्रकार का है, जो निम्नांकित द्वारों से ज्ञातव्य है
४१९-२१. प्रशापना, वेद, राग, कल्प, पारित्र, प्रतिसेवना, शान, तीर्थ, लिंग, शरीर, क्षेत्र, काल, गति, स्थिति, संयम, सन्निकर्ष, योग, उपयोग, कषाप, सेश्या-परिणाम, बंधन, उदय, कर्मोदीरण, उपसंपद्-ज्ञान, संज्ञा, आहार, भव, आकर्ष, काल, अन्तर, समुद्घात, क्षेत्र, स्पर्शना, भाव, परिणाम इत्यादि द्वारों से निर्ग्रन्थ ज्ञातव्य है तथा महानिर्गन्थों का अल्प-बहुत्व भी ज्ञातव्य है ।
___४२२. निर्ग्रन्य वे होते हैं, जो बाल और आभ्यन्तर सावध ग्रन्थ से मुक्त होते हैं । यह महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन की नियुक्ति है। इक्कीसवां अध्ययन : समापालीय
__४२३. समुद्रपाल शब्द के पार निक्षेप हूँ-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य निक्षेप के दो भेद है-आगमतः, नो-आगमत । नो-आगमतः के तीन भेद हैं-सशरीर, भव्यशरीर
१.देखें परि.६, कया सं०५९