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निक्तिपंचक २५५. नमि के आयुष्य, नाम, गोत्र का वेदन करने वाला भावनमि होता है। इस अध्ययन में नमि की प्रवज्मा का वर्णन होने के कारण इसका नाम नमिप्रवज्या है।
२५६. प्रवज्या शब्द के घार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और माश्च । अन्यतीयिकों की द्रव्य प्रवज्या है और भाव प्रव्रज्या है-आरम्भ तथा परिग्रह का त्याग ।
२५७. कलिंग में करकंड, पांचाल में दुर्मुख, विदेह में नमीराजा और गंधार देश में नागती राजा प्रतिबुद्ध होकर प्रन्नजित हुए ।
२५८. करकर की बोधि का निमित्त पा वृषभ, दुर्मुख की बोधि का निमित्त था इन्द्रकेतु, नमिराजा को बोधि का निमित्त या कंकण और मंधारराजा (नग्गति) की बोधि वा निमित्त पा आम का पुष्पित वृक्ष।
२५९. गोकुल में श्वेत वर्ण वाले, अहीन अंगोपांग वाले और सुविभक्त सींग वाले बल की ऋद्धि-बलोपचयता तथा अवृद्धि-शक्तिहीनता का सम्यग् पर्यालोचन कर कलिंग राजा ने मुनि धर्म को स्वीकार किया।
२६०,२६१. करकं ने गोजाड़े में एक हृष्टपुष्ट बल को देखा । उसकी गर्जना सुनकर सुतीक्ष्ण सींगों वाले सशक्त, दप्त और बसिष्ठ वृषभ भी पलायन कर जाते थे। कुछ समय बाद राजा करकंडु पुनः मोबाड़े में उसी बैल को देखने गया । उसने देखा वही बल शक्तिहीन, धंसी आंखों वाला, प्रकंपित धूम और होठों को चबाने वाला तथा तत्र स्पित सामान्य भैसों के संघटन को सहन करने वाला हो गया है।
२६२. समलंकृत इन्द्रध्वज को इधर-उधर गिरते हुए और लोगों द्वारा लूटे जाते हुए देखकर उसकी ऋषि–पूर्णता और अवृद्धि-रिक्तता को सोचकर पंचालराजा ने भी मुनि धर्म स्वीकार कर लिया।
२६२६१. चन्द्रमा की हानि और बृद्धि एवं महानदी की पूर्णता और रिक्तता को देखकर तपा यह सोचकर कि यहां सब कुछ अनित्य और अध्रुध है, पंचाल राजा ने भी मुनि धर्म को स्वीकार कर लिया।
२६३. मिथिलापति नमिराजा छह मास से दाह रोग से पीड़ित था। राजा का पह रोग वैद्यों द्वारा भी अचिकित्स्य हो गया । कार्तिक पूर्णिमा के दिन राजा ने स्वप्न में शेषनाग और मेरुपर्वत को देखा । तत्पश्चात् नंदी सूर्य का घोष सुनकर प्रतियुद्ध हो गया ।
२६४. विदेह के दो नमिराजा राज्य को छोड़कर प्रश्नजित हुए थे। उनमें एक तीर्थकर हुए और एक प्रत्येकबुद्ध ।
२६५. ये भगवान् नमितीर्थकर अपने पुत्र को राज्य देकर परिग्रह छोटकर, हजार व्यक्तियों से परिवत होकर प्रनजित हुए।
१. देखें-परि० ६, कथा सं ४९ २. वही, कथा सं०५०
३. वही, कथा सं०५१ ४. वही, कथा सं० ५२