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उत्तराध्ययन निर्मुक्ति
२११ २६६. दूसरे नमिराजा भी शतशः गुण समन्वित राज्य को छोड़कर, परिग्रह का त्याग करके प्रवजित हुए। यहां दूसरे नमिराजा का अधिकार है ।
२६६।१. फरकंड आदि चारों राजाओं का दुशोत्तर प्रमाग से 41, एयः हेदुः । प्रतिबोध, प्रवज्या, कैवल्य-प्राप्ति तमा सिद्धिगमन-ये सारे एक ही समय में अर्थात् समसमय में हुए थे।
२६७, बहुत कंकणों का शब्द सुनकर तथा एक कंकण का अशब्द मानकर मिथिलाधिपति नमि राजा ने अभिनिष्क्रमण कर दिया ।
२६८, मंजरियों, पल्लवों और पुष्पों से उपचित एक मनोभिराम आम्रवृक्ष की (वसंत में) ऋद्धि और (पतझड़ में) अऋद्धि को देखकर गंधार राजा ने मुनि धर्म स्वीकार कर लिया ।
२६९, दुर्मुख ने करकंड़ से कहा-'तुम राज्य, राष्ट्र, पुर, अन्त:पुर आदि का त्याग कर प्रवजित हुए हो तो फिर संचय क्यों करते हो ? (कंड्रयक को छिपाकर क्यों रखते हो ?) ।
२७०. तब नमि ने दुर्मुख से कहा - 'तुम्हारे पैतृक राज्य में अनेक फमकर थे, जो दूसरों के अपराध, दोष आदि का ध्यान रखते थे। प्रव्रज्या लेकर तुमने उन कर्मकरों के कृत्य को छोड़ दिया। आज तुम दूसरों का दोष देखने वाले कैसे बन गए ?'
२७१. सन गंधारराजा ने नमि से कहा-'तुम सब कुछ त्याग कर मोक्ष के लिए प्रयत्नशील बने हो तथा आत्मा से आबद्ध कर्मों का सर्वथा नाश करने वाले हो तो फिर सुम दूसरों की नहीं क्यों करते हो?'
२७२. तब करकंडु ने कहा- 'जिन्होंने मोक्षमार्ग को स्वीकार किया है, जो मुनि है, ब्रह्मचारी है-शान, दर्शन, चारित्र की आराधना करने वाले हैं, ये यदि अहित का निवारण करते हैं तो उसे घोष नहीं कहा जा सकता है।' दसवां अध्ययन : दुमपत्रक
२७३,२७४. दुम शब्द के पार निक्षेप है-नाम, स्थापना, दथ्य और भाव । द्रध्य म के दो निक्षेप है—भागमतः और नो-आगमतः । नो-आगमत: द्रुम के तीन प्रकार हैं- शरीर, भव्यशरीर और सद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद हैं- एकविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र ।
२७५. द्रुम आयुष्य, नाम, गोत्र का वेदन करता हुआ भावद्रुम होता है। इसी प्रकार पत्र शब्द के भी चार निक्षेप होते हैं-नाम, स्थापना, द्रश्य और भाव ।
२७६. आयुष्य को एमपत्र की उपमा दी गई है। जैसे- द्रुमपत्र काल का परिपाक होने पर स्वतः वृक्ष से गिर जाता है अथवा उपक्रम- वायु आदि के द्वारा वृक्ष से अलग हो जाता है, वैसे ही आयुष्य की स्थिति पूरी होने पर अथवा आयुष्य का उपक्रम पूर्ण होने पर प्राणी मर जाता है। इस अध्ययन के प्रारम्भ में द्रुमपत्र शब्द है, इसलिए इस अध्ययन का नाम द्रुमपत्रक है ।
२७७. मगधदेश के रामगृह नगर से भगवान महावीर ने शाल, महाशाल शिष्यों को गौतम स्वामी के साथ भेजा । वे वहां से विहार कर पृष्ठचंपा पहुंच गए।