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उत्तराध्ययन निईक्ति
१३. तगरा नगरी । अनमित्र आचार्य । उनके पास दस बणिक अपनी भार्या भद्रा एवं पुत्र अन्नक के साथ प्रवजित हुमा। पत्त का स्वर्गगमन । मुनि अहंन्नक एक वणिक् महिला में आसक्त होकर उत्प्रवजित । साध्वी माता द्वारा प्रतिबोध । महन्नक द्वारा तप्त शिलापट्ट पर उष्ण परीषह सहन करते हुए प्रायोपगमन संयारे में स्वर्गगमन।'
९४. चंपानगरी में सुमनोभा युवराज ने धर्मघोष मुनि का शिष्यत्व स्वीकार किया। एक बार वह एकाकी विहार स्वीकार कर अटवी में स्थित हो गया। रात में मच्छरों का उपद्रव । मच्छरों द्वारा रक्त पी डालने के कारण समाधिमृत्यु की प्राप्ति ।।
९५,९६. बीतमय नगरी में देवदत्ता पासी ने गंधार श्रावक की परिचर्या कर सौ गुटिकाएं प्राप्त की।' महाराजा प्रद्योत उसे उज्जयिनी ले गए। दासी का मरण देखकर रानी प्रभावती दीक्षित हो पयी और कालान्तर में कालधर्म को प्राप्त हो गयी। देव प्रभावती द्वारा तीन वर्षा, पुष्कर तीर्थ की स्थापना, दशपुर नगर की उत्पत्ति तथा राजा प्रद्योत की बंधन-मुक्ति ।
९७,९८. आर्य वचस्वामी के पिता का नाम सोमदेव, माता का नाम रुद्रसोमा, भाई का नाम फगुरक्षित तथा आचार्य का नाम तोसलिपुत्र था। सिंहगिरि, भद्रगुप्त और आर्य वच के पास पूर्व तथा दसवें पूर्व का कुछ अंश पहार, बायंरभितशप नगर में पारा भाई और पिता को प्रजित किया।
१९. अचलपुर नगर के जितशत्रु राजा का युवराज राधाचार्य के पास प्रबजित हुआ । प्राचार्य के सद्यःअंतेवासी आर्य राधक्षमण उज्जयिनी में विहरण कर रहे थे। पूछा-क्या क्षेत्र निरुपद्रव है ? कहा-पुरोहित और राजपुत्र बाधा उपस्थित करते हैं।
१००. कौशाम्बी नगरी में तापस नाम का श्रेष्ठी मरकर अपने ही घर में सूकर की योनि में उत्पन्न हुआ । पुत्रों ने मार डाला । पुन: उसी घर में उरग । उसे भी मार डाला । पुनः उसी घर में पुत्र का पुत्र ।
१.१.१०६. ऋषभपुर, राजगृह तथा पाटलिपुत्र नगर की उत्पत्ति । नन्द, शकडाल, स्थूलभद्र, श्रीयक तथा वररुचि । तीन अनगारों ने चार महीनों तक वसतिमात्र निमित्तक अभिग्रह किया। एक अनगार गणिका के घर में, दूसरा अनगार व्याघ्र की गुफा में, तीसरा अनगार सांप की सिंबी पर । इन तीनों में दुष्करकारक कौन ? व्याघ्र और सर्प तो शरीर को पीडा पहुंचाने वाले ही हैं। वे ज्ञान, दर्शन, पारित्र को नष्ट नहीं कर पाते । गणिका गृहवासी भगवान् स्थूलभद्र ने तीक्ष्ण असिधारा पर चंक्रमण किया पर वे छिन्न नहीं हुए। उन्होंने चार मास तक अग्निशिखा में निवास किया पर जले नहीं। सिंहगुफाषासी बनगार ने कहा-मैं भी स्यूलभद्र के समान गणिकाग्रह में बास करूंगा । वह कोशा के पास गया। वेश्या ने रत्नर्कदल की याचना की। उसे लाने वह मुनि नेपाल गया । रत्नकंबल लाकर गणिका को दी। उसने उसे मलमूत्र विसर्जन के स्थान पर फेंक कर मलिन कर डाला । मुनि स्त्रीपरीषह से पराजित हो गया।' १. देखें-परि० ६, कषा सं०५
४. देखें-परि०६, कथा सं०७ २. वहीं, कथा सं०६
५. वहीं, कथा सं.. ३. निशीय चूणि में आठ सौ गुटिकाएं प्राप्त की, ६. वहीं, कथा सं०९ ऐसा उल्लेख मिलता है।
७. वही, कथा सं० १०