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उत्तराध्ययन नियुक्ति
२०३ १८१. द्विप्रदेसी, त्रिप्रदेशी आदि स्कन्ध, अभ्र (विद्युत् आदि) तथा अम्रवृक्ष (इन्द्रधनुष मादि) जो निष्पन्न द्रव्य है-विनसाकरण हैं। (यह चाक्षुष, अचाक्षुष द्रव्यों का सादि विस्रसाकरण
१२. प्रयोगकरण के दो प्रकार है-जीवप्रयोगकरण तथा अजीवप्रयोगकरण । जीवप्रयोगकरण दो प्रकार का है-मूलकरण तथा उत्तरकरण । मूलकरण में पांच शारीरों का समावेश होता है। उत्तरकरण है-अंगोपांगनामकर्म । इसके अन्तर्गत तीन शरीर हैं-औदारिक, बैंत्रिम और आहारक । (इन तीनों के ही अंगोपांग होते हैं ।)
१८२२१,२. शिर, छाती, उदर, पीठ, दोनों मुजाएं तथा दो उरू-ये माठ अंग हैं तथा कान, नाक, मांब, जंघा, हाथ, पैर, नख, केश, डाढ़ी-मूंछ, अंगुली-ये उपांग हैं।
१८३. प्रथम तीन शरीरों-औदारिक, वैक्रिय और आहारक' का उत्तरकरण होता है । जैसे कानों की वृद्धि करना, कंधों को दृढ़ करना तथा उपपात और विशुद्धि से इन्द्रियों की अवस्था में परिवर्तन करना। यह उत्तरकरण है।
१८४. करण के दो प्रकार और हैं-संघातनाकरण और परिशादनाकरण । ये दोनों प्रथम तीन शरीरों के होते है। शेष दो शरीरों-तंजस और कार्मण के संघात नहीं होता, (इसलिए संघातनीकरण भी नहीं होता तथा परिशाटनाकरण तो शैलेशी अवस्था के परम समय में होता है।) संघातना, परिशाटना तथा दोनों का कालान्तर जैसा सूत्र में निर्दिष्ट है, वैसा जान लेना चाहिए ।
१८५,१५६. मूलप्रयोगकरण के पश्चात् उत्तरकरण की व्याख्या की जा रही है। शरीरकरण के प्रयोग से निष्पन्न उत्तरकरण कहलाता है। इसके अनेक भेद हैं। संक्षेप में इसके चार भेद ये है-संघातनाकरण, परिशाटनाकरण, मिश्र-संघातना-परिशाटनाकरण तथा प्रतिषेध-संघातनापरिशाटनाशून्य । इनके उदाहरण ये हैं --
• पट (वस्त्र)-इसमें तन्तुओं की संघातना होती है। • शंख-इसमें परिशाटना होती है। • शकट-इसमें संघातना और परिशाटना दोनों होती है-कीलिका आदि की संघातना
और लकड़ी को छीलने की परिशाटना। स्पूणा (स्तंभ)-इसमें दोनों का अभाव होता है। ऊर्ध्वकरण और तिर्थक्करण तथा गमनकरण और उन्नमनकरण-ये भी उत्तरकरण है।
१८७, जीव-प्रयोग के द्वारा पांच वर्ण आदि द्रव्यों में तथा कुसुभे आदि में जो चित्रकरण होता है, वह अजीवप्रयोगकरण है। शेष गन्ध, रस आदि के विषय में भी यही जान लेना चाहिए।
१. आहारक शरीर के ये उपांग नहीं होते। २. . इसकी निष्पत्ति शरीरापेक्ष होती है, अत:
परन्तु उसके गमन आदि का उसरकरण होता यह उत्तरकरण है।