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नियुक्तिपंधक
३३७. दवरती खलु दुविहा, कम्मरती चेव 'नो य कम्मरतो"।
कम्मरतिवेदणीय", नोकम्मरती तु सद्दादी ।। सह-रस-रूव-गंधा, फासा रइकारगाणि दव्वाणि ।
दव्वरती भावरती, उदए एमेव अरती वि ।। ३३९. उदएण समुप्पज्जइ, परीसहाणं तु सा भवे अरई ।
निव्वुइसुहं तु काउं, सम्म अहियासणिज्जा उ' ।। ३४०. वकं तु पुन्वभणियं, धम्मे रइकारमाणि वक्काणि ।
'जेण इह चूडाए, तेण निमित्तेण रइवक्का' ॥ ३४१. जध नाम आतुरस्सिहर सोवणछज्जेसु कोरमाणेसु ।
जंतणमपत्थकुच्छा ऽमदोसविरती हितकरी तु ।।
१. नोकम्म ० (अ)।
यह गाथा दोनों चणियों में तथा 'अ'प्रति में २. रईवेणियं (अ)।
निर्दिष्ट नहीं है। गा. ३३७-३८ का भाव ही हरिभद्र टीका की मुद्रित पुस्तक में ३३७- इस गाषा में है अत: टीका में उपलब्ध होने ३८ दोनों गाथाएं नियुक्तिगाथा के क्रम में पर भी इसको नियुक्ति गाथा में सम्मिलित नहीं हैं। किन्तु टीकाकार हरिभद्र की व्याख्या नहीं किया है। से प्रतीत होता है कि उन्होंने इन्हीं दोनों ३. यह गाथा केवल 'ब' प्रति में प्राप्त है। किंतु गाथाओं की व्याख्या की है (हाटी प. २७०)। गद्य में भावार्थ दोनों चूणियों में है। विषयअगस्त्यसिंह तथा जिनदास ने भी इन गाथाओं वस्तु की दृष्टि से यह अप्रासंगिक नहीं लगती को आधार मानकर व्याख्या की है। पुण्य- तथा हस्तआदर्भ में भी मिलती है। इसलिए विजयजी ने भी इन्हीं दो गाथाओं को स्वीकृत
इसको निमुक्तिगाथा के क्रम में जोड़ा है। किया है। कुछ आदशों में ये गाथाएं नहीं ४. जेणमिमीए तेणं रहवककेसा हवा चूडा (हा)। मिलती। टीका में इन दो गाथाओं के स्थान
__ यह गाथा दोनों चूणियों में अनुपलब्ध है पर यह गाथा मिलती है
किन्तु यह टीका तथा दोनों हस्त आदशों में दब्वे दहा उ कम्मे,
मिलती है। यह नियुक्तिगाथा प्रतीत होती नोकम्मरई म सहदब्वाई ।
है। संभव है चूर्णिकार ने सरल समझकर भावरई तस्सेव उ,
इसकी व्याख्या न की हो । मुनि पुण्यविजयजी उदए एमेव अरई वि ।।
ने इसे नियुक्तिगाथा के क्रम में नहीं रखा है। (हाटी प २७०) ५. आजरिस्सह (रा) । किसी किसी प्रति में इस गाथा का पूर्वाद्धं इस ६. सिषण (अच) । प्रकार है
७. ०मवच्छ० (अच)। दश्वेयरवेणियं णोकम्मे सद्दमाइ रइजणगा। ८. विरुती (अ)।