________________
देशकालिक निर्मुक्ति
८७ १६१. जो अपने बल और वीर्य का गोपन नहीं करता, जो शास्त्रोक्त विधि से माचार में पराक्रम करता है तथा अपने सामर्थ्य के अनुसार स्वयं को उसमें नियोजित करता है, वह वीर्याचार है।
१६२. कथा के मुख्यत: चार प्रकार है- अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा तथा मिश्रकथा । प्रत्येक कथाविभाग के अनेक प्रकार हैं।
१६३. विद्या, शिल्प, उपाय, अनिर्वेद, संचय, दक्षता, साम, दंड, भेद और उपप्रदान-ये अर्थार्जन के हेतु हैं । इनकी कथा करना अर्थकथा है ।
१६३.१. सार्थवाहपुत्र ने अपनी दक्षता से, श्रेष्ठीपुत्र ने अपने रूप से, अमात्यपुत्र ने अपनी बुद्धि से सथा राजपुत्र ने अपने पुण्य से अर्थार्जन किया।
१६४, सार्थवाहपुत्र ने दक्षता से पांच रुपयों का, श्रेष्ठीपुत्र ने सौन्दयं से सौ रुपयों का, अमात्यपुत्र ने बुद्धि से हजार स्यों का सया रामपुर में युध्य से लाख रुपयों का लाभ कमाया ।'
१६५. सुंदर रूप, उदग्न अवस्था, उज्ज्वल वेष, दक्षता, विषयकला की शिक्षा, दृष्ट', श्रुत, अनुभूत और संस्तब--ये कामकथा के हेतु हैं।
१६६. तीर्थंकरों द्वारा प्रज्ञप्त धर्मकथा के चार प्रकार है-आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निदनी।
१६७. आक्षेपणी कथा के चार प्रकार है-आचार विषयक, व्यवहार विषयक, प्राप्ति विषयक-संघाय निवारण के लिए प्रज्ञापना, दृष्टिवाद विषयक-सूक्ष्म तत्वों का प्रतिपादन ।
१६८. विद्या, चारित्र, तप, पुरुषार्थ, समिति तथा गुप्ति का जिस कथा में उपदेश दिया जाता है, वह आक्षेपणी कथा का रस (सार) है ।
१६९. अपने सिद्धान्तों का निरूपण करके, पर-सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना अथवा परसिद्धान्तों का प्रतिपादन कर स्व-सिद्धान्तों का निरूपण करना-ये विक्षेपणी कथा के दो भेद है। अथवा मिथ्यावाद का प्रतिपादन कर सम्बगवाद का प्रतिपादन करना या सम्यग्रवाद का प्रतिपादन कर मिथ्यावाद का प्रतिपादन करना .. ये चिक्षेपणी कथा के दो भेद हैं।
१७०. जो कथा स्वसिद्धान्त से शून्य केवल रामायण, वेद आदि से संयुक्त है तथा परसिद्धान्त का कथन करने वाली है, वह विक्षेपणी कया है।
१७१. अपने सिद्धान्तों में जो बात कही गई है, उसका दूसरे सिद्धान्तों में क्षेपण करना तथा कन्यमान परशासन के व्याक्षेप के द्वारा पर-समय का कथन करना-यह विक्षपणी कया है ।
१७२. सवेजनी कथा के चार प्रकार है-स्वशरीरविषयक, परशरीरविषयक, इहलोकविषयक तथा परलोकविषक ।
१७३. जिसमें वीर्य, वकियऋद्धि, शामऋद्धि, चरणऋद्धि, दर्शनऋद्धि बताई जाती है, वह संवेजनी कथा का रस (सार) है। १. देखें-परि० ६, कथा सं० २५ ।