________________
दशवेकालिक नियुक्ति
१८. क्षेत्र, काल, पुरुष ( श्रोता) तथा अपने सामर्थ्य को जानकर भ्रमण प्रकृत ( समयानुकूल ) विषय में पापानुबंधरहित कथा करे ।
चौथा अध्ययन : बड़जीवनिकाय
१८९. प्रस्तुत षड्जीवनिकाय के अधिकार में जीव और अजीव का ज्ञान, चारित्रधर्म, यतना का कथन, उपदेश तथा धर्मफल का निरूपण किया गया है ।
१९० षड्जीवनिकाय शब्द का नाम निष्पन्न निक्षेप होता है । अब जी और निकाय) पदों की पृथक् पृथक् प्ररूपणा करूंगा 1
१९१. एक शब्द के सात निक्षेप हैं-नाम स्थापना, द्रव्य, भातृकापद, संग्रह, पर्याय और भाव ! १९२. षट् शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ।
१९३, १९४. 'जीव' शब्द के निक्षेप, प्ररूपणा, लक्षण, अस्तित्व, अन्यत्व, अमूर्त्तत्व, नित्यत्व, स्व, देहव्यापित्व, गुणित्व, ऊर्ध्वं गतित्व, नियंता ( विकार रहितत्व), साफल्य, परिमाण आदि के द्वारा जीव की त्रिकालविषयक परीक्षा करणीय
1
१९५. जीव शब्द के चार निक्षेप हैं—नामजीव, स्थापनाजीव, द्रव्यजीव और भावजीव । ओजीव, भवजीव, तद्द्मदजीव- ये भावजीव के तीन निक्षेप हैं ।
१९६. आयुष्य कर्म के होने पर, जिस ओघआयुष्य कर्म के उदय से जीता है, वह जीव है । उसी 'आयुष्य कर्म के क्षीण हो जाने पर उसे नय की अपेक्षा से 'सिद्ध' या 'मृत' कहा जाता है। यह satta की व्याख्या है।
१९७ जिस मायुष्य के आधार पर जीव किसी भव में स्थित रहता है संक्रमण करता है, वह भवायु है । भवायु चार प्रकार की है-नारक, तिर्यञ्च तद्भव दो प्रकार की है— तिर्यञ्च तद्भवआयु, मनुष्य तद्भवआयु ।'
अथवा उस भव से मनुष्य और देव ।
--
१९८. लोक में जीव दो प्रकार के हैं- सूक्ष्म और बादर सूक्ष्म जीव संपूर्ण लोक में व्याप्त हैं। बादर जीव के दो प्रकार हैं पर्याप्त और अपर्याप्त ।
१९९,२०० आदान, परिभोग, योग, उपयोग, कषाय, लेक्या, अनापान, इन्द्रिय, बंध, उदय, निर्जरा, विश, चेतना, संज्ञा, विज्ञान, धारणा, बुद्धि, ईहा, मति, वितर्क - ये जीव के लक्षण हैं ।
२०१. जीव का अस्तित्व सिद्ध है। 'जीव' इस शब्द से ही जीव के अस्तित्व का अनुमान किया जा सकता है। जो असत् है, जिसका कोई अस्तित्व नहीं है उसके विषय का केवल कोई शब्द नहीं होता ।
२०२. यदि कर्मों के कर्ता और भोक्ता जीव का कोई अस्तित्व न तो सारी पारलौकिक क्रियाएं (पुण्य, पाप आदि) मिष्या हो जाएंगी ।
१. तियंञ्च और मनुष्य ही मरकर पुनः सिर्यञ्च और मनुष्य के रूप में उत्पन्न हो सकते हैं, दूसरे नहीं -- तद्भवजीवितं च तस्मान् मृतस्य
तस्मिन्नेवोत्पन्नस्य यत् तदुच्यत हाटी पत्र १२२ ।
इति -