________________
दशकालिक नियुक्ति
२०७. निरामयाऽऽमयभावा', बालकयाणुसरणा दुवत्थाणा' । सोताईहि' अगहणा, जातीसरणा" यणभिलासा | | दारं || सकम्मफलभोयणा' अमुत्तत्ता । निच्चत्तममुत्तमम्नत्तं ॥ दारं
२०८. सब्वण्णुदिता, जीवस्स सिद्धमेवं",
२०९. 'जीवस्स उ परिमाणं
P
वित्थरओ जाव लोगमेत्तं तु । ओगाहणा थ सुहुमा, तस्स पदेसा असंखेज्जा ।।
२१०. पत्थेण व कुडवेण" व जह कोइ मिणेज्ज सम्वधन्नाई । एवं मविज्जमाणा, हवंति लोगा अनंता उ" || . नाम ठवणसरीरे", गती निकायत्थिकाय दविए य । माउग - 'पज्जब-संगह'"-भारे तह भाव - काए य ॥
२११.
१. निरामय आमय ० (बरा) 1
२. दुबट्टाणा (अ)।
३. सुत्ताहि (हा), सोयाईहि ( अ, ब ) । ४. अग्गहृणं (जिचू) ।
४. जाईसरणं (जिचू ) ।
'प्रकृत संबद्धामेव निर्युक्तिगाथामाह' (हाटी १३१ ) इस गाथा की व्याख्या में दो भाष्यगाथाएं ( ४९, ५० हाटी प १३२) लिखी गयी हैं। टीका के अनुसार भी एतामेव निर्युक्तिगाय लेशतो व्याचिव्यासुराह भाष्यकार: (हाटी प १३२) ।
६. ० भोगणं (जिचू) ।
७. सिद्धिमेवं ( अ ) |
८. जीवथिकायमाणं (जिचू) ।
९. २०९,२१० की गाथा टीका की मुद्रित प्रति में भाष्यगाथा के क्रम में उपलब्ध है। लेकिन अबू में यह नियुक्तिगाथा के क्रम में व्याख्यात है। यह गाथा नियुक्ति की होनी चाहिए
क्योंकि गाथा १९३,१९४ में जीव के १३ द्वारों का उल्लेख है । उनमें प्रायः सभी द्वारों का नियुक्तिकार ने वर्णन किया है। कुछ द्वारों का वर्णन भाष्यकार ने किया इसका स्पष्ट उल्लेख टीका में मिलता है। २०९, २१० की गाथा में अंतिम द्वार 'परिमाण' अतः यह निगा होनी
की व्याख्या है,
चाहिए ।
४७
जिनदास चूर्ण में इस गाथा से पूर्व 'एगस्स अणगाण य' गाथा का संकेत है। यह गाथा पूर्णरूप से किसी भी आदर्श में नहीं मिलती है तथा हाटी और अन्नू में भी निर्दिष्ट नहीं है।
१०. कुलएण (हा, अ), कुलवेण (जिच्) । ११. हाटी भागा ५७
१२. ० सरीरी ( रा ) 1
१३. संग्रह-पज्जव ( अ ) ।