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( २२ ) नहीं कहा है। और सम्पदृष्टि श्रावक आदि को "जातिस्मरण ज्ञान" और "अवधि ज्ञान" उत्पन्न हुआ, ऐसे तो कहा है परन्तु "अवधि चैत्य” वा “जातिस्मरणचैत्य" उत्पन्न हुआ,ऐसे किसी स्थान में भी नहीं कहा है । इससे सिद्ध होता है कि सूत्रों में किसी स्थान में भी ज्ञान को चैत्य नहीं कहा है । इसलिये आपका कहना प्रत्येक प्रकार से मिथ्या है।और सुनिए चमरेन्द्र के वणर्नमें अरिहन्तेवा,चेइआइयेवा"
और "अणगारिएवा" ऐसा पाठ लिखा हुआ है, इस पाठ से भी स्पष्ट "चेइयं" शब्द का अर्थ "प्रतिमा” ही सिद्ध होता है, क्योंकि इस पाठ में साधु भी पृथक् और अर्हन्त भी पृथक् लिखे हुए हैं । और "चेइयं" अथवा श्रीजिनप्रतिमा का भी पृथक् वर्णन है, इसलिये इस स्थान में और कोई अर्थ नहीं होसक्ता, आप जो तीनों ही स्थान में केवल "अर्हन्त" ऐसा अर्थ करते हैं सो यह आपकी मूर्खता है आप स्वयं ही विचार ले। क्योंकि कोई साधारण मनुष्य भी शब्दार्थ के जानने वाला कदापि नहीं कहता है कि तीनों स्थानों में केवल अर्हन्त ही अर्थ हो सकता है ॥
ढूंढिया-यदि उक्त वृतान्त में चैत्य शब्द से जिनप्रतिमा का अभिप्राय होवे और चमरेन्द्र प्रतिमा का शरण लेकर सुधर्म देवलोक तक गया होवे तो फिर नीचे के लोग और द्वीपों में शाश्वती जिनप्रतिमा थीं और ऊर्ध्वलोक में मेरुपर्वत
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