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प्रथमोऽध्यायः ॥ आपने खव निकाली । वाह वाह, मेरे विचार से तो आपने भत्यार्थप्रकाश के आधार पर यह बात लिखी है क्योंकि उम के पष्ठ ९३ में लिखा है ३६ वार रजस्वला होने के पश्चात् वि. वाह करना योग्य है, बस यहीं से जोशी जी ने भी लिया हागा मत्यार्थप्रकाश दयानन्दियों का धर्मग्रन्थ है। __क्या कोइ सनातनधर्मी पगिडत कोई महामण्डल का म. होपदेशक कोई मनातनधर्म सभा का लीडर इमप्रकार की विवाह की रीति चलाने वाले को सनातनधर्मी मान सकता है ? नहीं नहीं ! कोई नहीं !! कदापि नहीं !!! तो फिर उन को सनातनधर्मी माने या आप को ? ॥ .
पाठकगण ! आप किसप्रकार के सनातनधर्मी हैं यह बात तो आप महाशय जान ही चुके हैं, और अधिक हाल भागे खलेगा अभी तो भमिका है वैष्णव धर्म हरिभक्ति का भी रहस्य आगे प्रकट हो जायगा ॥ __जोशीजी, ज्योतिष के प्राचार्य भग, पराशर, गर्ग आदि, ऋषीश्वरों के चरणों की धलिका एक कणा भी मेरे शिर में लय जाता तो मेरे जन्म जन्मान्तर का उद्धार हो जाता ॥
( समीक्षा ) मुनियों के चरण की धलि कहां से मिलेगी सन के ग्रन्थों को यवनों के बनाये बतलाते हो और सनातं. नधन के किद्ध पुस्तक छपाते हो, पश्चात् कन्या के विवाह का प्रोड( लगातेहा, मित्रबर ! ये सभी बातें ऋषि मुनियों के विरुद्ध हैं तो उद्धार किस प्रकार होगा ॥
(जोशी जी) यह काम किसी लोभ या बड़ाई की इच्छा से नहीं किया ॥
(समीक्षा) सत्य है आप को लोभ किस धात का होना था, यदि लाभ की इच्छा से भी यह काम किया जाना तो इस क्षुद्र तुच्छ पुस्तक की रचना से लाभ ही श्राप को क्या हो सकता था, यदि साइन्स मादि की कोई उत्तम पुस्तक आप
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