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ज्योतिषचमत्कार सगीक्षायाः ॥ . अन्यच्च-शंक्वादिपण्डितवराः कवयत्वनेके ज्योतिर्विदः समभवंश्चवराहपूर्वाः श्रीविक्रमोऽर्कनृपसंसदिमान्यबुद्धि-स्तैरप्यहनृपसखाफिलकालिदासः ॥ काव्यत्रयं समुदितंसुमतिकृद्रघुवंशपू
र्वम् । इत्यादि ____ भाषा-शंफ प्रादि श्रेष्ठ पणिहत अनेक कवि तथा वराहमिहिरादि ज्योतिर्विद विक्रम महाराज की सभा में थे। मैं कालिदास भी उमी भा में मान्य युद्धि था। रघुवंश प्रादि तीन काव्य मैं ने बनाये इत्यादि लिखा है। पाठकमगा ? कालिदास जी के कथन से भली भांति विक्रम के समय वराहमिहिर जी का होना सिद्ध हो गया। प्रवरही कायल में जाकर फलित सीखने की बात सो वेप्रमाण मिथ्या यात कोई भी नहीं मान सकता। पर शोक है कि जोशी जी मे बेधडक ऐमी झठी बात क्यों लिख दी। सहज्जातक आदि में कहीं भी नहीं लिखा है कि मैंने काबुल में यह विद्या सीखी, यदि श्राप के पास सार या पत्र वराहमिहिर जी का हाल में प्राया हो तो भाप साने ।
देखिये-आदित्यदासतनयस्तदवाप्तबोधः, कापित्थकेसक्तिलव्धवरप्रसादः । बृज्जा अ . २६--आवन्तिकोमनिमतान्यवलोक्यसम्यक-होराम्बराहमिहिरोरुचिराजकार ॥६॥ ___ भाषा-अ वन्तिक देश के उज्जयिनीनगर में प्रादित्यदास के पुत्र बराहमिहिर ने मुनियों का मत अवलोकन कर सथा सर्यनारायगा से बर पाकर और अपने पिता से बोध नाम विद्या पढ़ कर यह ग्रन्थ रचा। वराहमिहिर जो साफ लिख चुके हैं कि पिता से पढ़ना मुनियों के ग्रन्थों को देख कर बहज्जातक रचना । जोशी जी ! पाप कावन इन्हें क्यों ल घले ? ।।
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