Book Title: Murtimandan
Author(s): Labdhivijay
Publisher: General Book Depo
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूर्तिमंडन मूर्तिमंडन श्रीयुत मुनिलब्धिविजयजी कृत For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra she loots of ote for ****** O ०७ www.kobatirth.org © श्री वीतरागायनमः मूर्तिमंडन आ.श्री. फेeearnर मृरि ज्ञान मंदिर श्री मारो आराधना केन्द्र, कोबा श्री १००८ श्रीमद्विजयानंदसूरीश्वरजी के पट्टधर श्री १००८ श्रीमद्विजयकमल सूरिजी के शिष्य Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ००००००००००००० श्रीयुत मुनि लब्धिविजयजी महाराज प्रसिद्ध कर्त्ता मौर • प्रथमावृत्ति १००० ] do so do co मिलने का पताजनरल बुकडिपो, सैद मिट्ठा बाज़ार, लाहोर । बाम्बे मैशीन मैस, लाहौर । [मूल्य चार आने രെരെരെരെരെ For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जैनधर्मोपदेशक श्रीयुतमुनि लब्धि विजयजी महाराज जन्म १९४०. दक्षिा १६५६. For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना श्रीमद्विजयानन्दसूरिभ्योनमः हंहो विचक्षणशेमुषीधरा नराः पुरा किलात्र भारतक्षेत्रेऽस्मज्जैनमण्डले निजबुद्धिबलाधस्कृतबृहस्पतयो जैनशास्त्रादिसकलसंस्कृतविद्यापारावारपारीणाः पराजिताखिलवादिनिवहा बहवो मुनिपतयो बभूवुः । ते च सर्वे प्रायशो गृहस्थद्रव्यव्ययानपेक्षाः स्वयं जैनशा. स्त्राभ्यासोपलब्धविनयादिगुणोपेतान् नानाशास्त्रार्थग्रहणधारणपटनखशिष्यबटन सम्यगध्याप्य दीपाः प्रतिदीपानिव स्वसमानांस्तानियांचक्रिरे । अथ चैवं शिष्यमशिष्यपठनपाठनप्रणालिका कियत्कालं यावच्चलिता परन्त्वधुना कालदोषादापतितेन गरीयसा प्रमाददोषेण पानीयसिञ्चनादिसाधनविरहेणोद्यानभूखि जीर्णतामावहति । तद्वदाचरणेऽपि तत्कालापेक्षया महान भेदो जातः ॥ अतोऽस्यातिपवित्रस्यापि जिनोक्तधर्मस्य हासो दरीदृश्यते । ततोऽधुनापि विनिद्रीभूय हस्ताभ्यां नेत्रे उन्मील्य साव. धानीभूय प्रतिबन्धकान्यपनीय कुर्वन्त्वस्य जिनेश्वरोक्तधर्मास्य परां वृद्धि प्रतिबोधयन्तु नानानिबन्धैरनेकाँल्लोकानिति स्वप्रान्तरोत्थितविचारविवशेनाल्पमेधसाऽपि मया प्रतिबोधप्रत्ययोऽयं निबन्धो निरमायि । कोऽत्रविषय इति चेनिशम्यताम,जैनानां तिसः शाखाः सन्ति तास्वातप्राचीनाः श्वेताम्बरा अर्वाचीनदिगम्बराश्च मन्वन्ते मूर्तेरुपाशनां फलवतीम् किन्तु ढूंढकनाम्ना प्रसिद्धा या शाखाऽस्ति साऽवमन्यते मूर्तेरुपाशनामापायशोत्र शाखायां भूयांसो निरक्षरानरावरीवर्तन्ते यद्येतेषु कश्चित् किञ्चिज्ज्ञोभवति तदा सस्त्र सर्वज्ञं मन्यते । इमे तीर्थङ्करदेवप्रतिकृतेरवज्ञाकारका मलक्लिन्न-. For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan ( २ ) शरीराः सर्वदैव मुखवस्त्रिकया मुखं बध्वाऽवतिष्ठन्ते । पश्चनद देशीयानामेतेषामर्धदेशीया बाढं पुण्योदयवन्तोऽभवन् । यदेतेषाममुनहाय स्खयशःसुधाकरचन्द्रिकाधवलिताखिलवसुन्धरा अमेरिकैलेन्डादि नानाविदेशविस्तृतभूरिकीर्तयो धर्ममूर्तयो विजयामन्दसूरयः प्रसिद्धख्यात्यात्मारामामुनिपतयो वादिगणलब्धविजया अत्र पञ्चनददेशे समभवन् । यैरेते निर्धूतकलिकल्मषैः सूरीश्वरैरनेकयुक्तिप्रयुक्तिभिर्नानासूत्रस्थमूर्तिपूजाविधिविधानकपाछैश्च प्रतिबोधिताः सन्तोऽतीव प्राचीनश्वेताम्बरमूर्तिपूजकशाखायां संपविष्टा जाताः, परन्तु येऽवशिष्टाः सन्ति ते पक्षपातग्रस्ता न भवेयुः किन्तु यथा सत्यं सत्यमसत्यमसत्यं ज्ञात्वा दिध्यागमज्ञाननेत्रमदातुर्महोपकर्तुर्जिनेशितुर्मूर्ति सक्रियरंस्तथोपदेशायारय पुस्तकस्य पूर्वाद्धार्दै ढूंढकमतावलम्बीनां शास्त्रानुसारेणैव मूर्तेमण्डनकृतमस्ति । पश्चात् प्रसंगवशादन्यधर्मिणां मध्ये ये मूर्तिमवमन्यन्ते तानुद्दिश्यानेका युक्तयस्तेषामागमप्रमाणानि च दर्शितानि सन्ति । पश्चात् कीदृश्या मूर्तेः पूजनमात्मकल्याणायालंभवेदिति निर्णीतिर्विहिता।चास्य सम्यग् ज्ञाने बालो ऽप्यलंभूष्णुतामालम्बेतैतदर्थमेवेदं पुस्तकं कल्पितनृपतिमन्त्रिसंवादरूपं निबद्धमस्ति । यद्यस्य पक्षपातशून्यस्यापि पुस्तकस्य पागत् केषांचिञ्चित्तानि माप्नुयुर्दुःखं तदा ते ममोपरि क्षमां कुर्बीरनित्यभ्यर्थयतेश्रीमद्विजयकमलमरिचरणोपासक मुनीनामनुचरोऽयं मुनिलब्धिविजयः। किमधिकेन । For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * श्रीवीतरागायनमः * मूर्ति मण्डन * रागद्वेषपरित्यक्ता विज्ञाता विश्ववस्तुनः सेव्यः सुधाशनेशानां गिरीशो ध्यायते मया ॥१॥ जिनवर! तव मूर्ति ये न पश्यन्ति मूढाः कुमतिमतकुभूतैः पीड़िताः पुण्यहीनाः ? सकल सुकृतकृत्यं नैव मोक्षाय तेषां । सुनिविड़तृणराशि श्वामिसंगाद्यथैव ॥२॥ सूरि श्रीविजयानन्दं तं नमामि निरन्तरम् । यस्याभूवं प्रसादेन बालोऽपि मुखरीतरः ॥३॥ प्रणम्य सदगुरुं भक्त्या सूरि श्रीकमलाव्हयं ? क्रियते मूर्तिपूजाया मण्डनं दुःख खण्डनम् ॥४॥ इस संसार में जितने मतानुयायी पुरुष हैं वे सब कहते हैं कि ईश्वर परमात्मा का ध्यान इस असार संसार से पार करने परन्तु इस बात का विचार नहीं करते कि निराकार का ध्यान कैसे होसक्ता है, क्योंकि जिसका कोई आकार ही नहीं है उसका कोई भी मनुष्यमात्र अपने हृदय में ध्यान नहीं कर सक्ता, यथा किसी पुरुष को कहा जाए कि सीतलदास For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २ ) जो कि बड़ा ही योग्य पुरुष है, और बम्बई नगर में रहता है, तुम उसका ध्यान करो, जिस पुरुष को सीतलदास का ध्यान करने के लिये कहा गया, उसने सीतलदास का कभी भी दर्शन नहीं किया है. अब वह बिचारा उसका ध्यान कैसे कर सक्ता है, यदि उस समय उसको सीतलदास का चित्र दिखला कर कहा जावे कि अब तुम उसका ध्यान करो, तो उसी समय उसका चित्त से ध्यान कर सक्ता है, परन्तु केवल नाम मात्र से कार्य नहीं होसक्ता । यदि नाम के सुनने से ही कार्यसिद्ध होजाए तो आर्यस्कूल ( पाठशाला ) में अथवा ईसाईस्कूल में पढ़ने वाले लड़के अथवा कन्याओं के विवाह के समय एक दूसरे के चित्र न देखते । केवल लड़के लड़की का नाम ही पूछ लेते, परन्तु ऐसा नहीं करते हैं, जिससे विवाह करना होवे उनके चित्र आपस में अवश्य देख लेते हैं। अब ध्यान कीजिए कि लड़का लड़की तो एक प्रत्यक्ष वस्तु है, जब उनके चित्र विना कार्य नहीं होसक्ता,तो वह निराकार परमात्मा है उस का स्वरूप चित्र के विना अवलोकन करना अतीव दुःसाध्य है । और उसका ध्यान करना भी चित्र के विना कठिन है। यदि कोई यह कहे कि पुरुष तो स्वरूप वाला है, इसलिये इसका चित्र तो वन सक्ता है, परन्तु ईश्वर परमात्मा की तो कोई मूर्ति ही नहीं है, इसवास्ते उसकी मूर्ति नहीं होसक्ती, पुरुष मात्र को इस बात का ज्ञान होना चाहिये कि हमारे ढूंढिये भाई तो ऐसा कह ही नहीं सक्ते, क्योंकि वे भी हमारी तरह चौवीस अवतारों को साकार मानते हैं। बतलावें कि यह लोग मूर्तिपूजा से कैसे छूट सक्ते हैं। शेष जो अन्यमतानुयायी हैं For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वह भी मूर्तिपूजा से नहीं छूट सक्ते । केवल उनका यह व्यर्थ कथन है कि हम मूर्ति को नहीं मानते । सो यह वार्ता आप को यथाकथन राजा के दृष्टान्त से अच्छी तरह मालूम हो जाएगी, यदि ईर्षा के उपनेत्र को उतारकर ध्यान करेंगे, तो अवश्य मूर्तिपूजा के सूक्ष्म विषय को मान लेंगे, अब दत्तचित्त होकर मुनिये । एक नगर में एक राजा था, वह बड़ा धर्मात्मा जिज्ञासु और समदर्शी था । इसके दो मन्त्री थे, उन में से एक मन्त्री तो मूर्तिपूजा को मानता था और दूसरा नहीं मानता था और राजा साहिब स्वयं ही मूर्तिपूजा किया करते थे। राजा साहिब प्रतिदिन प्रातःकाल को इष्टदेव की भक्ति पूजा करके न्यायालय में आया करते थे, इसवास्ते मायः कुछ विलम्ब होजाया करता था । एक दिन मूर्तिपूजा को न मानने वाले मन्त्री ने हाथ जोड़कर कथन किया कि महाराज ! आप बहुत विलम्ब से न्यायालय में आते हैं इसका क्या कारण है ? श्रीमहाराजने प्रत्युत्तर दिया कि मैं पूजन करके माया करता हूं, इसवास्ते प्रायः देर होजाती है, तब मन्त्री ने कहा कि महाराज ! अपमान न समझिए, आप ऐसे बुद्धिमान होकर मूर्तिपूजा करते हो, मूर्तिपूजा से कुछ भी लाभ नहीं होसक्ता ( मूर्तिपूजा क्यों करते हैं ? ) क्योंकि जड़ वस्तु को ईश्वर मानकर पूजना बुद्धिमानों का कर्तव्य नहीं है, अन्त में उस मन्त्री ने ऐसी २ बहुतसी वाते सुनाई कि तत्क्षण महाराज जी का ख्याल बदल गया, और मूर्तिपूजा करनी छोड़दी। जब दो चार दिन व्यतीत हुए तो मूर्तिपूजक मन्त्री ने भी यह बात मुनी कि महाराज ने मन्त्री के ऐसे मूर्तिपूजा निषेध For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपदेश से मूर्तिपूजा करनी छोड़दी है। तब एक दिन मूर्तिपूजक मन्त्री ने महाराज से निवेदन किया कि स्वामिन् ! हे नाथ ! क्या बात है, सुना जाता है कि आपने भगवान् की मूत्ति का पूजन करना छोड़ दिया है । तब महाराज ने प्रत्युत्तर दिया कि हां सत्य है मैं जड़ पूजा नहीं करूंगा । जड़ वस्तु हम को कुछ नहीं दे सक्ती । मूर्तिपूजक मन्त्री ने कहा कि हे स्वामिन् ! यदि ऐसा था तो आप पूर्व क्यों मूर्तिपूजन किया करते थे ? महाराज ने प्रत्युत्तर दिया कि मैं पहिले अज्ञान में था, परन्तु मुझे अब दूसरा मन्त्री सन्मार्ग पर ले आया है, इसलिये मैंने यह कार्य छोड़ दिया है । मूर्तिपूजक मन्त्री ने कहा,महाराज ! इस संसार में पायः ऐसा कोई भी मत है जो मूर्तिपूजन से रहित हो ? और किसी न किसी दशा में वह मूर्तिपूजा न मानता हो ? राजा साहित्र ने कहा कि आप का यह कहना असत्य है, क्योंकि हमारा दूसरा मन्त्री ही 'मूर्तिपूजन को नहीं मानता ? और " ढूंढिये " " यवन" "सिक्ख" "आर्य" " ईसाई " इत्यादि मतवाले मूर्तिपूजन को नहीं मानते हैं । मूर्तिपूजक मन्त्री ने कहा कि आपको यह भी मालूम है कि आपके दूसरे मन्त्रीजी किस यत के अनुयायी हैं ? राजा ने कहा, हां ! मुझे मालूम है कि वह आर्य हैं। मूर्तिपूजक मन्त्री ने कहा कि आपको निश्चय हो गया है कि " आर्य " " ढूंढिये " " सिक्ख " "यवन" "ईसाई" आदि मतानुयायी मूर्तिपूजन को नहीं मानते हैं। राजा ने कहा कि हां ! मुझ को दूसरे भन्त्री ने सुनाया है कि हम लोग मूर्ति को नहीं मानते हैं ॥ मूर्तिपूजक मन्त्री ने कहा कि महाराज! For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५ ) आंखों और कानों में चार अंगुलियों का अन्तर है आपने मन्त्री से केवल सुना ही है परन्तु अवलोकन नहीं किया है कि सत्य है यह लोग मूर्तिपूजन को नहीं मानते । यदि देखलें तो आपको स्वयं ही मालूम होजाए, कि यह लोग क्या २ करते हैं । मैं आपको अच्छी तरह से दिखला सक्ता हूं कि यह लोग मूर्तिपूजन से कदापि दूर नहीं होसक्ते । राजा ने कहा कि हां ! बड़े हर्ष की बात है कि यदि आप युक्ति प्रमाण से सिद्ध करके दिखलाओगे कि वस्तुतः ही यह उक्त धर्मावलम्बी मूर्तिपूजन को मानते हैं, तो मैं तत्क्षण मूर्तिपूजन करने लग जाऊँगा, और मान लूंगा । मूर्तिपूजक मन्त्री ने कहा कि हे स्वामिन् ! बहुत अच्छा, तीसरे दिन आप एक सभा लगाएं । और 'ढूंढिये' 'सिक्ख' 'यवन' और 'आर्य्य' इन धर्मावलम्बिओं के चार सुयोग्य पुरुषों को बुलवाएं। राजा ने यह बात स्वीकार करली और नियत दिन आने पर सभा लगाई गई और सर्वमतानुयायी सज्जनगण एकत्रित होगये, और वे चार आदमी भी बुलाए गए। इस के अनन्तर राजा ने मूर्तिपूजक मन्त्री को आज्ञा दी, कि अब आप इन चार आदमियों से प्रश्न उत्तर कीजिए और मूर्त्तिपूजा सिद्ध दरिए । मन्त्री ढूंढिये भाई के सन्मुख हुए और कहा, भ्रातृगण ! क्या आप मूर्तिपूजा को नहीं मानते हैं ? ढूंढिया नहीं इम जड़ मूर्ति को नहीं मानते, क्योंकि मूर्तिपूजा न तो युद्ध में मिद्ध होती है, और का ही हमारे सूत्रों में तीर्थङ्कर महाराज का मूर्तिपूजा के विषय में कथन है ॥ For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६ ) मन्त्री - प्रथम मैं आपको युक्ति से सिद्ध करके दिखलाता हूँ । लो सुनिए ! क्या आप खण्ड के बने हुए १ " हस्ती, अश्व, वृषभ" आदि खिलौने खाते हो या नहीं ? ढूंढिया - देखिए साहिब ! मैं साफ २ कह देता हूं कि हम खाते तो कदापि नहीं हैं, परन्तु जब से मूर्तिपूजा की विपदा हमारी ग्रीवा में चिमड़ने लगी- उस समय से तो हमको यही कहना पड़ता है कि हां ! खा लेते हैं | मन्त्री - वाह जी वाह ! ठीक मनुष्यों के भय से आप ने अपना मन्तव्य छोड़ दिया। इन बातों को जाने दो ज़रा आप यह तो बतलाएं कि माला के कितने मणके होते हैं ॥ ढूंढिया - (१०८) एकसौ आठ मन्त्री - न्यूनाधिक क्यों नहीं होते ? एकसौ आठ ही की संख्या क्यों नियत है ? ढूंढिया - मुझे मालूम नहीं, इसलिये मैं आपको अपने गुरु जी से पूछकर निवेदन कर सक्तः हूं ॥ १- नोट - जिस मनुष्य को इसमें शंका हो वह किसी ढूंढिये भाई को अपने सन्मुख खण्ड का खिलौना खिलावे, वह कदापि 'नहीं खाएगा। यही कारण है कि वस्तुतः मूर्त्तिपूजन मानते हैं । केवल ईर्षा में आकर हठ में पडकर कुछ परमार्थ का ख्याल नहीं करते | For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७ ) मन्त्री-अच्छा जाइए परन्तु शीघ्र पधारिये, देर किसी प्रकार न हो। इंढिया-श्रीमान् जी ! मैं पूछ करके आगया हूं ॥ मन्त्री-कहिए क्या ? दंदिया-गुरुजी ने कहा है कि अर्हन्त भगवन्त के द्वादश गुण, और सिद्ध महाराज के आठ, और आचार्यजी के छत्तीस, और उपाध्याय जी के पच्चीस, और माधु महाराज जी के सत्ताईस, इन सब का योग करने से १०८ गुण होते हैं, इसलिए मणके भी १०८ रक्खे गए हैं। मन्त्री-आप कुछ समझे ? इंढिया-नहीं श्रीमान् जी मैं कुछ नहीं समझा हूं ॥ मन्त्री-आप तनक ध्यान से सुनिए, मैं आपको समझाता है। पांच * परमेष्ठी के गुण एकसौ आठ होने से माला के मणके भी १०८ बनाकर उन में उन महात्माओं के गुणों की स्थापना ( मूर्ति ) क्यों नहीं मानी जाएगी ? जरूर ही माननी पड़ेगी। दंदिया-यह बात तो ठीक है, भला कोई और भी युक्ति है ? मन्त्री-लो ध्यान दीजिए, आप यह कहें आप लोगों के गुरु और गुरुणी के चित्र होते हैं ? वा नहीं ? * जैनियों के मूलमन्त्र का नाम है, जो नवकार मन्त्र के नाम से प्रसिद्ध है। For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८ ) इंढिया-हां साहिब, उनके तो सैंकड़ों ही चि. मिल सक्ते हैं परन्तु हम लोक उनके केवल दर्शन ही करते हैं फल फूलादिक चढ़ाकर कच्चे पानी से स्नान कराकर हिंसा तो नहीं करते ॥ मन्त्री-अच्छा जी यदि आप लोक हिंसा नहीं करते तो आपके गुरु करते होंगे ॥ ढूंढिया-वह कैसे ? मन्त्री-जिस समय चित्र लिया जाता है आप नहीं जानते कि कच्चे पानी से धोना पड़ता है जिस से असंख्य जीवों का नाश होता है आपके गुरू जान बूझकर चित्र खिचवाते हैं। तो वे स्वयं जानकर ही हिंसा करवाते हैं इसलिए आपके गुरु हिंसा से पृथक नहीं होसक्ते । और हिंसा समझ कर ईश्वर परमात्मा की मूर्ति की पूजा से हटजाना आपकी बड़ी भारी मूर्खता है चित्र खिचवान से मूर्ति का स्वीकार करना प्रसक्ष प्रतीत होता है। बड़े शोक की बात है कि आप लोक ईश्वर परमात्मा की मूत्तिएं नहीं बनवाते और नाही उनके सन्मुख सिर नमाते हो किन्तु गुरु जी की मूर्ति के सन्मुख मस्तक झुकाते हो इन बातों से आपके गुरुओं में अभिमान भी पाया जाता है। जो कि अपने चित्र खिचवाकर"उनके सन्मुख जब आपलोक सिर झुकाते है" तो आपको मना नहीं करते और मूर्तिपूजा नहीं बतलाते क्या ईश्वर के साथ ही शत्रुता है ? और क्या वे तीर्थङ्कर महाराज से जो कि जगद्गुरु कहलाते हैं उन से भी बड़े हैं ? यदि For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आप लोग पक्षपात को छोड़कर ध्यान देंगे तो मूर्तिपूजा से कदाचित् भी दूर नहीं होसक्ते । भला एक बात मैं आपसे और पूछता हूं कि जिस स्थान में स्त्री की मूर्ति हो ब्रह्मचारी साधु वहां रहें वा न रहें ! द्वंदिया-कदाचित् भी वहां न रहें, क्योंकि जैनसूत्रों में लिखा है कि जिस स्थान पर स्त्री की मूर्ति हो वहां पर साधु न ठहरें इस बात को हम लोग भी मानते हैं । मन्त्री-अब आप तनक ध्यान तो दें कि सूत्रों में निषेध क्यों लिखा है ॥ "विना प्रयोजनं मन्दोऽपि न प्रवर्तते” अर्थात् मूर्ख भी बिना प्रयोजन कोई काम नहीं करतो तो फिर सूत्रों में तो सर्वज्ञों का ज्ञान है क्यों निषेध किया है ? द्वंदिया-सूत्रों में इसलिये निषेध किया है कि वार२ स्त्री की मूर्ति की ओर देखने से बुरे भाव उत्पन्न होते हैं । । मन्त्री-तो फिर क्या वीतराग परमात्मा की मूर्ति देखने से शुद्धभाव नहीं उत्पन्न होंगे ? क्यों नहीं अवश्य ही उत्पन्न होंगे ? इसलिये ही सूत्रों में निषेध किया है, कि जिस दीवार पर स्त्री की मूर्ति हो साधु वा ब्रह्मचारी उसको न देखे । जैसे सूर्य को देखकर अपनी दृष्टि पीछे हटा ली जाती है. इसी प्रकार ही मुनि अपनी दृष्टि पीछे बँचले, क्योंकि दीवार पर स्त्री की मूर्ति को देखकर साक्षात् उस स्त्री का स्मरण होता है जिस की वह मूर्ति है। For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १० ) अब ज़रा ध्यान से देखें कि जब तुच्छ स्त्री की मूर्ति को देखकर साक्षात् स्त्री का भान होता है तो क्या तीर्थङ्कर भगवान की मूर्ति को देखकर उनका स्मरण नहीं आएगा ? अवश्य ही स्मरण आएगा । और आप लोक अपने गुरुओं के चित्रों का सम्मान तो करते हैं, यदि उनके चित्रों का अपमान करें, तो उसको बहुत ही अयोग्य प्रतीत होता है, तो फिर क्या परमात्मा की ही मूर्ति से द्वेष है ? यदि आप यह कहेंगे कि हम अपने गुरुओं की मूर्ति का सन्मान नहीं करते हैं तो आपका यह कथन भी मिथ्या है क्योंकि यह बात तो हम उस समय मानें जब आपके गुरु की मूर्ति किसी ऐसे स्थान पर गिरी पड़ी हो जो कि अपवित्र स्थान हो, और आप न उठाएं। फिर तो हम भी मानें कि निस्सन्देह आप लोक सन्मान नहीं करते, आप लोक तो विरुद्ध इसके शशि में जड़ा कर अपने निवासस्थान में अपने शिर के ऊपर लटकाते हैं | ॥ यथा सती पार्वतीजी और उदयचन्दजी और सोहनलालादि अपने गुरुओं के चित्र क्यों बनवाते हो ? क्योंकि आपकी धार्मिक युक्ति से मूर्ति को सम्मान करना और शिर झुकाना विरुद्ध है। क्योंकि वह भी तो स्याही और पत्र के विना और कोई वस्तु नहीं हैं | जैसे आप तीर्थङ्कर महाराज की मूर्तिओं को जड़ कहते हैं, इसप्रकार वे भी तो जड़ हैं ? इसलिये आप के गुरुओं को भी योग्य नहीं कि वे खिचवाएं, क्योंकि बनाने में असंख्य जीवों का नाश होता है, आप लोग मूर्ति से कुछ लाभ ही नहीं समझते हैं तो फिर आपके गुरु हिंसा समझकर रात्रि को जलतक भी नहीं रखते, परन्तु चित्रकार For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ११ ) के मिसाले से असंख्य जीवों की हिंसा के पाप के भागी होते हैं, सो यह बात विचारास्पद है, हठ को छोड़िए और पक्षपाद से मुख मोड़िए सन्मार्ग में अनुराग जोड़िये । हँढिया-हां साहिब ! युक्ति से तो निस्सन्देह सिद्ध हो गया परन्तु सूत्रपाठ के विना हम नहीं मान सक्ते ॥ मन्त्री-यदि जैनसूत्रों से मूर्तिपूजा सिद्ध होजाए तो आप मान जायेंगे ? द्वंदिया-हां साहिब ! अवश्य २॥ मन्त्री-लो तनक ध्यान दीजिए, आवश्यक सूत्र की नियुक्ति में लिखा है कि भरत चक्राी ने अष्टापद पर्वत पर जिनमन्दिर बनवाए, और चौबीस तीर्थङ्करों की मूर्तिएं विराजमान की। द्वंदिया-श्रीमानजी, तनक धैर्य करें,हम लोग 'नियुक्ति' 'भाष्य"चूर्णी"टीका' इत्यादि नहीं मानते हम को तो सूत्र का मूलपाठ ही स्वीकार है ॥ मन्त्री-आप घबराते क्यों हो, लो सुन लीजिए, श्री भगवती सूत्र में साफ लिखा है कि नियुक्ति को मानना चाहिए जो नहीं मानता यह सूत्र के अर्थ का शत्रु है यदि इस बात में सन्देह हो तो श्रीभगवती सूत्र का पाठ मुनलो पाठ यह हैनिज्जुतिमन्तव्या सुत्तत्थो खलु पढमो बीओनिज्जुति For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२ ) मिस्सओ भणीओ तइओय निर्विसेसो। एस विही होइ अणुओंगो॥ इस पाठ में साफ लिखा है कि प्रथम सूत्रार्थ का कथन करना, फिर नियुक्ति के साथ द्वितीय वार अर्थ करना, और तीसरी वार निर्विशेष अर्थात पूरा २ अर्थ करना, अब ख्याल करना चाहिये कि इस पाठ से नियुक्ति मानना साफ प्रतीत होता है। हँढिया-भरत महाराज ने धर्म जानकर नहीं प्रत्युत बाप के मोह से मन्दिर और मूर्तियें बनवाई ॥ . मन्त्री-आपका यह कथन मिथ्या है क्योंकि भरत महाराजजी ने श्रीऋषभदेवजी की ही नहीं प्रत्युत. और तेईस तीर्थङ्कर महाराजजी की मूर्तियां बनवाई थी, आप लोगों ने तो नियुक्ति-भाष्य-टीका-और चूर्णी-यह जो पांच अङ्ग हैं उनमें से केवल एक सूत्र को ही माना शेष छोड़ दिये । इस कारण से ही आप जैनश्वेताम्बरधर्म के अनुयायी नहीं हैं। यथा पैदिकधर्म में स्वामी दयानन्दजी ने वेद के मूल पाठ को माना टीका और भाष्य को नहीं माना, और नया मत प्रकाशित किया और मुसलमान मत में जिन्होंने कुरान को माना,और हदीस को न माना वह राफ जी मत कहलाया, वैसे हो आप लोगों ने भी ठीक बात को न मानकर उलटी बात को माना और ढूंढिए कहलाए। For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३ ) द्वितीय प्रमाण। श्रीसूगडाङ्ग के दूसरे श्रुतस्कन्ध की नियुक्ति में लिखा है कि आर्द्रकुमार ने जिनमूर्ति को देखकर प्रतिबोध पाया ॥ तृतीय प्रमाण। श्रीमहावीरजी स्वामी के सम्मुख अंबड़ परिव्राजक ने अर्हन्त की मूर्ति को नमस्कार करना स्वीकार किया है ॥ पाठ यह है__अंवडस्सणं परिवायगस्स नो कप्पइ अण्ण उथ्थिएवा अण्ण उथिय देवयाणि वा अण्ण उथ्थिय परिग्गाहियाइं अरिहंत चेइयाइं वा वंदित्तए वानमंसित्तए वा णण्णथ्थ अरिहंतेवा अरिहंतचेइआणिवा ।। आशय इस पाठ का यह है कि मुझ को अन्य मत के देवों की मूर्ति और यदि अन्य धर्मावलम्बी लोगों ने अन्ति की मूर्ति को लेकर अपना देव मान लिया हो उनको बन्दना नमस्कार करना स्वीकार नहीं है परन्तु अर्हन्त और अर्हन्त की प्रतिमा को बन्दना नमस्कार करूंगा। चतुर्थ प्रमाण । आनन्द श्रावक के पाठ मे प्रयक्ष भान होता है कि वह श्रीतीर्थकर महावीर स्वामीजी के सन्मुख गया और उसने यह नियम स्वीकार किया कि मुझ को अन्य मत की मूर्ति को और अपने देव की मूर्ति को जो अन्यने स्वीकार कर ली हो उनको For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४ ) बन्दना नमस्कार करना स्वीकार नहीं है । सो श्रीउपासक दशाङ्ग सूत्र का वह पाठ पाठकगणों के प्रतीत होने के लिये नीचे लिखा जाता है। पाठ यह हैनोखलु मे भंते कप्पइ अजप्पभिइंचणं अन्न उथ्थियावा अन्नउथ्थिय देवयाणिवा अन्न उथ्थिय परिग्गहियाई अरिहंतचेइयाई वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा पुब्बिं अणालित्तेणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउंवा अणुप्पदाउंवा णण्णथ्थ रायाभिआगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकंतारेणं कप्पइमे समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिजेणं असण पाण खाइम साइमेणं वथ्थपडिग्गह कंबल पाय पुच्छणेणं पाडिहारिय पीढ फलग सेजा संथारएणं ओ सहभेसज्जेणय पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए तिकटुइमं एयाणुरूवं अभिग्गह अभिगिण्हंइ ॥ पञ्चम प्रमाण । श्रीज्ञातासूत्र में लिखा है कि जिनमन्दिरों में जाकर जिन For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५ ) पतिमाकी द्रौपदीने सतारह भेदी पूजा की और "नमुथ्थुणं" पढ़ा है, सो पाठ यह है तएणं सा दोवइ रायवर कन्ना जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ मज्जणघर मणुप्पविसइण्हायाकयबलिकम्मा कयकेउय मंगल पायंत्छित्ता सुद्धपावेसाइं वत्थाइं परिहियाई मजणघराओ पीडणिकखमइ जेणेव जिनघरे तेणेव उवागच्छइ जिनघर मणुपविसइ पविसइत्ता आलोए जिणपडिमाणं पणामं करेइ लोमहत्थयं परामुसइ एवं जहा सुरियाभो जिण पडिमाओ अचेई तहेव भाणियब् जाव धुवं डहइ धुवं डहइत्ता वामं जाणु अंचेइ अंचेइत्ता दाहिण जाणु घरणी तलंसि निहट्ट तिखुत्तो मुद्धाणं धरणीतलंसि निवेसेइ निवेसेत्ता इसि पच्चुणमइ करयल जावकटु एवं वयास नमोथ्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जावसंपत्ताणं वंदइ नमसइ जिनघराओ पडिणिक्खमइ ॥ षष्ठ प्रमाण। श्रीमहानिशीथ सूत्र में लिखा है कि जो पुरुष जिनमदिर बनवाएगा उसको द्वादश स्वर्ग की गति प्राप्त होगी, देखलो For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस में जिनमन्दिर बनवाने वाले को वारहवा देवलोक की गति का मिलना पसल है । ढूंढिया-हम महानिशीथ मूत्र को नहीं मानते ॥ मन्त्री-श्रीनन्दी सूत्र को आप मानते हो वा नहीं ? ' इंढिया-हां साहिब ज़रूर ॥ मन्त्री-उसी श्रीनन्दी सूत्र में श्रीमहानिशीथ का नाम लिखा है, बड़े ही शोक का स्थान है कि जिस नन्दी सूत्र को आप मानते हैं, उसके मूलपाठ में श्रीमहानिशीथ का नाम लिखा है, तो फिर आप उसको क्यों नहीं मानते ? ॥ - - सप्तम प्रमाण। श्रीमहाकल्प सूत्र के पाठ से प्रयक्ष सिद्ध है कि साधु और श्रावक जिनमन्दिर में सदैव जावें इस पर श्रीगौतम स्वामीजी ने भगवान से पूछा कि यदि न जाएं तो क्या दण्ड लगता है। भगवान ने उत्तर दिया कि यदि प्रमाद के कारण न जावें तो दो व्रत का या तीन व्रत का दण्ड लगता है। फिर श्रीगौतम स्वामीने पूछा कि हे भगवन् ! क्या पौषध ब्रह्मचारी श्रावक पौषध में रहा हुआ जिनमन्दिर में जावे ? भगवान ने उत्तर दिया कि हां गौतम ! जावें ॥ फिर श्रीगौतम स्वामीजी ने भगवान से पूछा कि वह मन्दिर में किस लिये जावे, भगवान ने उत्तर दिया कि ज्ञान दर्शन चारित्र के वास्ते जावे ॥ श्रीमहा कल्प सूत्र का पाठ यह है ॥ For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७ ) से भयवं तहारुवं समणं वा माहणं वा चेइयघरे गच्छेजा हंता गोयमा दिणे दिणे गच्छेजा। से भयवं जत्थ दिणे ण गच्छेजा तओ किं पायच्छित्तं हवेजा गोयमा पमायं पडुच्च तहास्वं समणं वा माहणं वा जो जिणघरं न गच्छेजा तओ छ, अहवा दुवालसमं पायच्छित्तं हवेजा। से भयवं समणो वासगस्स पोसहसालाए पोसहिए पोसह वं भयरि । किं जिणहरं गच्छेजा । हंता गोयमा। गच्छेन्जा । से भयवं केणद्वेणं गच्छेजा । गोयमा णाण दंसण चरणट्ठाए गच्छेजा। जे केई पोसहसालाए पोसह बंभयारी जओजिणहरेन गच्छेजा तओ पायच्छित्तं हवेजा ? गोयमा जहा साहू तहा भाणियब्बं छठं अहवा दुवालसमं पायच्छित्तं हवेना ॥ ढूंढिया-महोदय ! यह सूत्र भी बत्तीस सूत्रों में नहीं हैं इसलिये हम लोक नहीं मानते ॥ मन्त्री-रे भ्रातः ! श्रीनन्दीसूत्र के मूलपाठ में इसका नाम है या नहीं ? दंदिया-हां श्रीनन्दीसूत्र के मूलपाठ में तो अवश्य है। For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १८ ) मन्त्री-तो फिर आप श्रीनन्दीसूत्र को मानते हो वा नहीं दंढिया-हां मानते हैं। मन्त्री-तो बड़े ही शोक की बात है कि फिर श्रीमहाकल्प सूत्र को क्यों नहीं मानते॥ अष्टम प्रमाण । श्रीभगवती सूत्र में लिखा है कि तुंगीया नगरी के श्रावकों ने श्रीजिनप्रतिमा पूजी है। नवम प्रमाण । श्रीरायपसेणीसूत्र में लिखा है कि सूर्याभ देवता ने श्री जिनप्रतिमा की पूजा की है। दशम प्रमाण। श्रीउत्तराध्ययनसूत्र की नियुक्ति अध्ययन १० में लिखा है, श्रीगौतम स्वामीजी अष्टापद की यात्रा करने को गए। एकादश प्रमाण। श्रीआवश्यकसूत्र की नियुक्ति में लिखा है कि गुर श्रावक ने श्रीमल्लीनाथजी का मन्दिर बनवाया, इसी सत्र में लिखा है कि फूलों से यदि जिनपूजन किया जावे तो संसार For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में आवागमन नहीं होवे अर्थात् मोक्ष प्राप्त होवे,इसी सूत्रमें लिखा है कि प्रभावती श्राविका उदायन राजा की रानी ने जिनमन्दिर बनवाया । और श्रीजिनप्रतिमा के आगे नाटक किया, इसी सूत्र में लिखा है कि श्रेणिक राजा प्रतिदिन सोने के यव बनवाकर श्रीजिनप्रतिमा के आगे साथिया किया करता था । . । द्वादश प्रमाण । श्री प्रथम अनुयोग में अनेक श्रावक और श्राविकाओं ने जिनमन्दिर बनवाये, और श्रीजिनप्रतिमा पूजी ऐसा वृत्तान्त है। दंढिया-प्रमाण तो महोदयजी आपने उत्तम २ दिये, परन्तु चैत्य शब्द पर सन्देह है, क्योंकि इसका अर्थ मूर्ति वा भगवान की प्रतिमा नहीं होसक्ता ॥ मन्त्री-तो और क्या होसक्ता है ? ॥ ढूंढिया-इस शब्द का अर्थ साधु होता है। मन्त्री-किसी कोश में भी “चैत्य" शाब्द का अर्थ साधु नहीं किया है, कोश में तो "चैत्यं जिनौकस्तविम्ब चैत्यं जिनसभातरुः" अथवा जिनमन्दिर और श्रीजिनप्रतिमा को चैत्य कहा है, और चौतराबन्ध वृक्ष का नाम चैत्य कहा है, आपने जो चैत्य शब्द का अर्थ साधु किया है, वह किसी प्रकार से भी ठीक नहीं है क्योंकि सूत्रों में तो किसी स्थान पर भी साधु शन्द को चैत्य कहकर नहीं बुलाया है, सूत्रों में तो .... .. For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । २० ) "निग्गंथाणवा निग्गंथिणवा” “साहुवा साहुणीवा" "भिक्खु वा भिक्खुणी वा” ऐसे लिखा है परन्तु "चैत्यं वा चैत्यानि वा"ऐसे तो किसी स्थान में भी नहीं लिखा है। यदि चैत्य शब्द का अर्थ साधु हो तो चैत्य शब्द का अर्थ स्त्री लिंग में नहीं बोला जाता है तो फिर साध्वी को क्या कहना चाहिए । श्रीमहावीर स्वामीजी के १४००० चैत्य नहीं कहे ! और श्रीऋषभदेवजी महाराज के ८४००० साधु कहे हैं परन्तु ८४००० चैत्य नहीं कहे, इसी प्रकार सूत्रों में कई स्थानों पर आचार्यों के साथ इतने साधु हैं ऐसा तो कहा है परन्तु किसी भी स्थान में इतने चैस हैं ऐसे नहीं कहा, केवल आपने अपनी इच्छा से ही चैस शब्द का अर्थ साधु किया है, सो असन्त ही मिथ्या है, जहां २ चैस शब्द का अर्थ साधु करते हो, सो यदि यथार्थ अर्थ के जानने वाले विद्वान देखेंगे, तो उनको मालूम होजाएगा कि आपका किया हुआ अर्थ विभक्ति सहित वाक्ययोजना में किसी रीति से भी नहीं मिलता है और जब सर्वत्र "देवयं चेईयं" का अर्थ साधु और तीर्थकर मानते हो तो श्रीभगवतीसूत्र में डाड़ों के वर्णन में भगवान ने श्रीगौतमस्वामीजी को कथन किया है कि जिनदाढ़ा देवताओं को पूजने योग्य हैं। "देवयं चेइयं पज्जु वासामि” इस स्थान में "चईयं" शब्द का क्या अर्थ करेंगे? । यदि साधु अर्थ करेंगे तो यह दृष्टान्त डादों के साथ नहीं आसक्ता, यदि "तीर्थङ्कर" ऐसा अर्थ करोगे तो डाढ़ें श्रीतीर्थङ्करदेव के तुल्य For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २१ ) सेवा पूजा करने योग्य होगई, जब तीर्थङ्कर महाराज की डाढ़ा सेवा पूजा के योग्य होगईं, तो फिर तीर्थङ्कर भगवान की मूर्ति क्यों पूजने योग्य नहीं होसक्ती ?। अवश्य ही पूजने योग्य है । अतः चैत्य शब्द का अर्थ जो हमने किया है वह ही ठीक है. और पूर्वाचार्यों ने यही अर्थ किया है ॥ दंढिया-चैत्य शब्द का अर्थ ज्ञान भी होसक्ता है, मूर्ति अथवा प्रतिमा नहीं होसक्ता ॥ मन्त्री-यह आपका कथन भी सर्व प्रकार से मिथ्या है क्योंकि सूत्रों में ज्ञान को किसी स्थान में भी चैत्य नहीं कहा है । श्रीनन्दीजी सूत्र में तथा निस २ सूत्र में ज्ञान का वर्णन है वहां सर्वस्थानों में ज्ञान अर्थ वाचक "नाण" शब्द लिखा है। और सूत्रों में जिस २ स्थानों में ज्ञानि मुनि महाराज का वर्णन है वहां पर "मईनाणी""सुअनाणी" "ओहिनाणी" 'मनपजवनाणी" "केवल नाणी” ऐसे तो कहा है। परन्तु "मइचैत्यी सुअचैत्यी" आदि २ किसी स्थान में भी नहीं कहा है, और जिस २ स्थान में भगवन्त को और साधु को "अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान,परम अवधिज्ञान," और "केवलज्ञान” उत्पन्न होने का वर्णन है वहां पर ज्ञान उत्पन्न हुआ, ऐसे तो कहा है, परन्तु “अवधिचैत्य" "मनः पर्यवचैत्य" और "केवलचैत्य" आदि ऐमा किसी स्थान में For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २२ ) नहीं कहा है। और सम्पदृष्टि श्रावक आदि को "जातिस्मरण ज्ञान" और "अवधि ज्ञान" उत्पन्न हुआ, ऐसे तो कहा है परन्तु "अवधि चैत्य” वा “जातिस्मरणचैत्य" उत्पन्न हुआ,ऐसे किसी स्थान में भी नहीं कहा है । इससे सिद्ध होता है कि सूत्रों में किसी स्थान में भी ज्ञान को चैत्य नहीं कहा है । इसलिये आपका कहना प्रत्येक प्रकार से मिथ्या है।और सुनिए चमरेन्द्र के वणर्नमें अरिहन्तेवा,चेइआइयेवा" और "अणगारिएवा" ऐसा पाठ लिखा हुआ है, इस पाठ से भी स्पष्ट "चेइयं" शब्द का अर्थ "प्रतिमा” ही सिद्ध होता है, क्योंकि इस पाठ में साधु भी पृथक् और अर्हन्त भी पृथक् लिखे हुए हैं । और "चेइयं" अथवा श्रीजिनप्रतिमा का भी पृथक् वर्णन है, इसलिये इस स्थान में और कोई अर्थ नहीं होसक्ता, आप जो तीनों ही स्थान में केवल "अर्हन्त" ऐसा अर्थ करते हैं सो यह आपकी मूर्खता है आप स्वयं ही विचार ले। क्योंकि कोई साधारण मनुष्य भी शब्दार्थ के जानने वाला कदापि नहीं कहता है कि तीनों स्थानों में केवल अर्हन्त ही अर्थ हो सकता है ॥ ढूंढिया-यदि उक्त वृतान्त में चैत्य शब्द से जिनप्रतिमा का अभिप्राय होवे और चमरेन्द्र प्रतिमा का शरण लेकर सुधर्म देवलोक तक गया होवे तो फिर नीचे के लोग और द्वीपों में शाश्वती जिनप्रतिमा थीं और ऊर्ध्वलोक में मेरुपर्वत For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऊपर और सुधर्मदेवलोक में और सिद्धायतन में समीप ही शाश्वती जिनप्रतिमा थी तो जिस समय शकेन्द्र ने चमरेन्द्र पर वज्रपात किया था उस समय वह जिनप्रतिमा की धारण क्यों न गया ? और श्रीमहावीर स्वामी की शरण क्यों गया ? मन्त्री-यह भी आपकी चालाकी केवल भोले लोगों को ही धोखा देने के लिये है , परन्तु दत्तचित्त होकर मुनिए । इसका उत्तर प्रत्यक्ष है कि जिस किसी की जो शरण लेकर जाता है और फिर जब वह आता है तो उसी के समीप ही आता है । चमरेन्द्र श्रीमहावीर स्वामी की शरण लेकर गया था, जब शक्रेन्द्र ने इस पर वज्रपात किया तो चमरेन्द्र श्रीमहावीरजी की शरण ही आया, यदि आपका ऐसा ख्याल होवे कि मार्ग में समीप ही शाश्वती प्रतिमा और सिद्धायतन थे, चमरेन्द्र इनके समीप क्यों न गया ? सो यह ख्याल भी केवल आपकी अज्ञानता ही है, क्या मार्ग में श्रीसिमन्दरस्वामी और दूसरे बिहरमान जिन विद्यमान नहीं थे ? उनकी कारण चमरेन्द्र क्यों न गया? फिर तो आपकी मति के अनुसार बिहरमान तीर्थङ्कर शरण लेने के योग्य न हुए, वाह जी ! वाह ! आपकी ऐसी बुद्धि पर शोक है ॥ हँढिया-वन आदि को "चैत्य” कहा जासक्ता है । मन्त्री-जिस वन में यक्ष आदि का मन्दिर होता है उस बन को सूत्रों में "चैत्य" कहा है, दूसरे किसी वन को भी सूत्रों में "चैत्य" नहीं कहा है इसलिये आपका यह कथन भी मिथ्या है , For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २४ ) ढूंढिया-यक्ष को भी चैत्य कहा है। मन्त्री-आपका यह कहना भी असत्य है, क्योंकि जैनसूत्रों में किसी भी स्थान में यक्ष को "चैस" नहीं कहा है । यदि कहा है तो आप सूत्रपाठ दिखलावें, ऐसे ही बातें बनाने से नहीं माना जाता और जो आप लोग मूर्ति नहीं मानते हैं तो आप लोगों को कोई पुस्तक न पढ़ना चाहिये क्योंकि पुस्तक भी केवल ज्ञानस्थापना है । ज्ञान एक अरूपी पदार्थ आत्मा का ज्ञान गुण है, (क) (ख) (ग) अथवा (आ) (ब) (प) (त) आदि २ अक्षरों में स्थापना बनाई हुई है। इसलिए उनको भी जैनशास्त्रों में अक्षर श्रुतज्ञान माना है। इस वार्ता को आपलोग भी मानते हैं, । अब तनक ध्यान दीजिए कि जब पत्र और मसी जड़पदार्थों को अक्षरज्ञान माना, तो भगवान् की मूर्तिको भगवान क्यों न मानाजाए ? और यथा सन्मान और पूजाभक्ति शास्त्रकी की जाती है वैसे ही भगवान् की मूर्तिकी पूजा क्यों नहीं करते हो ? ॥ दंढिया-अक्षरको हम श्रुतज्ञान नहीं मानते हैं प्रत्युत उससे जो ज्ञान उत्पन्न होताहै उसका नाम श्रुतज्ञान है ॥ मंत्री-इमारा भी तो यह कहना है कि हम भी मूर्तिको भगवान्, नहीं मानते हैं प्रत्युत उससे जिस पदार्थका ज्ञान होता है, उसको ही हम भगवान मानते हैं, अब आपको ध्यान देना चाहिए कि आप लोग शास्त्र को पढ़ने वाले मूर्ति पूजासे कैसे दूर हो सक्ते हैं । क्योंकि समस्त शास्त्र भी जड़ स्वरूप हैं और ज्ञान की स्थापना हैं। यदि प्रत्येक भाषा में अक्षरों For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २५ ) की बनावट पृथक् २ भी क्यों न हो, परन्तु अक्षरों के आकार को तो फिर भी ज्ञान का कारण स्वीकार करना ही पड़ेगा। चाहे उर्दू नागरी. अरवी आदि किसी भाषा के कों न हों, ऐसे ही मूर्तियां भी पृथक् २ श्रीऋषभदेव जी स्वामी और श्रीमहावीर जी स्वामी की हुई हैं। इन मूर्तियों को भी जिनकी यह मूर्तियां हैं, उनके ज्ञान का कारण स्वीकार करना ही पड़ेगा, क्योंकि हमने ईश्वर पतिमा नहीं देखी है इसलिये उसकी मूर्ति के विना ईश्वर प्रतिमा के सरूप का बोध हम को कदाचित नहीं होसक्ता, जो लोग मूर्ति को नहीं मानते हैं वे लोग ईश्वर परमात्मा का ध्यान कदाचित नहीं करसक्ते ॥ दंदिया-इम लोग अपने हृदय में परमात्मा की मूर्ति की स्थापना कर लेते हैं। मन्त्री -वाह जी ! वाह ! आपकी कैसी समझ है, अरेभाई ! जब आप हृदय में कल्पना कर लेते हैं तो बाहिर क्यों नहीं करते ? यह तो केवल कहने की बातें हैं कि हम मूर्तिके विना ध्यान कर सक्ते हैं। मूर्ति बड़ा भारी प्रभाव रखती है, यदि मूर्ति कुछ प्रभाव नहीं रखती, तो आप लोगों को परमात्मा की मूर्ति दखार द्वेषभाव क्यों प्रगट होता है, इससे सिद्ध होता है, मूर्ति बड़ा भारी प्रभाव रखती है। द्वेषियों को द्वेषभाव और रागियों को राग आता है। यदि आपको द्वेष आता है तो हमको आनन्द आता है जब परमात्मा की मूर्ति हम को इस संसार में आनन्द देती है तो परलोक में भी For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६ ) हम को आनन्ददायक होगी। आप इस संसार में परमात्मा की मूर्ति को देखकर अप्रसन्न होते हैं तो परलोक में भी अप्रसन्न रहोगे । जो लोग इस संसार में धर्म करने से प्रसन्न हैं वे परलोक में भी अवश्य प्रसन्न और सुखी होंगे और जो लोग इस जगत में धर्म्म करने से रुष्ट रहते हैं वे परलोक में भी अवश्य दुःखी होंगे, इससे सिद्ध होता है कि परमात्मा की मूर्ति दोनों लोक में लाभदायक है, और न मानने वालों को दुःखदायक है || ढूंढिया - फिर तो भगवान् वीतराग सिद्ध न हुए जो कि सुख और दुःख देते हैं || मन्त्री - परमात्मा की मूर्ति तो एक प्रकार का साधन है, वस्तुतः तारने वाली तो हमारी आन्तरिक भावना ही है । जो मनुष्य परमात्मा की मूर्ति को देखकर परमात्माभाव लाएगा, और इनके इतिहास पर ध्यान करेगा, और शुभ भावना को विचारेगा तो वह अवश्य ही अच्छा फल पाएगा, और जो परमात्मा की मूर्ति देखकर द्वेष करेगा और अशुभ भावना करेगा वह अवश्य ही बुरा फल पाएगा ॥ ढूंढिया - जड़ वस्तु से अच्छे और बुरे भाव किस तरह आमक्ते हैं आप दृष्टान्त के साथ समझाएं || मन्त्री - एक सुन्दरी स्त्री वन में अकेली जा रही थी मार्ग में विचारी को सर्प ने काटा सर्प अति विषयुक्त था । इसलिये तत्क्षण विचारी देहान्त होगई । अकस्मात् इसी मार्ग से एक पथिक जारहा था, उसने मृत स्त्री के शरीर को For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २७ ) देखकर अपने हृदय में विचारा, कि अहो! यह कैसी सुन्दरी युवति है, परन्तु खेद यह है कि यह मृत हुई २ है, यदि जीवित होती तो मैं अवश्य इससे अपनी इच्छा पूरी करता । नम्रता से वा लोभ से वा मीठी २ बातों से मान जाती तो अच्छा होता, नहीं तो मैं हठ से भी इसको न छोड़ता, चाहे मुझे कारागार जाना ही पड़ता, ऐसा दुष्टभाव हृदय में रखता हुआ आगे चला गया। थोड़ी देर पीछे फिर इसी मार्ग से एक और पथिक का आगमन हुआ, वह कोई बड़ा धर्मात्मा था और सदाचारी था, इसने जब उस मत स्त्री को देखा तो वह बड़े शोक समुद्र में डूब गया, और हृदय में विचार करने लगा कि यह संसार अप्तार है, इस संसार में जन्म जरा मरण रोग शोक आदि प्राणियों को नित्य ही दुःख दे रहे हैं। इन सर्व दुःखों में से मृत्यु का दुःख अधिक है, धन्य योगीश्वर महात्मा पुरुष हैं जिन्होंने इस संसार को अमार जानकर साग दिया। यह तो कोई बड़ी सदाचारिणी अच्छे भावों काली मधुरभाषिणी सत्कुलोत्पन्ना स्त्री प्रतीत होती है तथा प्रतीत होता है कि विचारी किसी आवश्यक कार्य के लिए जारही थी। हाय ! कर्म कैसे बलवान हैं, कि यह विचारी अकेली इस भयानक निर्जन बन में सर्प के काटने से मरगई। यदि मैं उस समय इस विचारी के समीप होता तो अवश्य इस सदाचारिणी को बचाने के लिये हृदय से यत्न करता, सम्भावना थी कि यह विचारी मृत्यु के वश न होती और अपना नित्यधर्म कर्म करके जन्म सफल करती। देखो कैसी मोहिनी मूर्ति है यह तो कोई साक्षात देवी है, ऐना विचार करके वह मनुष्य आगे चला गया। अब ध्यान करना चाहिये कि दोनों मनुष्यों ने For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८ ) इस स्त्री के मृत तथा जड़ शरीर को देखकर पृथक् २ भावना के वा से पाप पुण्य का बन्धन किया। इस दृष्टान्त से सिद्ध होता है कि पाप पुण्यका फल केवल अपनी आन्तरिक भावना से ही मिलता है। भगवान् वीतराग तो न किसी को सुखी और न किसी को दुःखी करते हैं और न किसी को पुण्य और न किसी को पाप देते हैं। भगवान तो वीतराग ही हैं। किसी वस्तु को देखकर जो भाव उत्पन्न होता है, वह वस्तु तो उस भाव के उत्पन्न होने में एक निमित्त कारण है ऐसे ही भगवान की मूर्ति भी निमित्त कारण है, वस्तुतः तारने वाली तो हमारी आन्तरिक भावना ही है परन्तु निमित्त के विना भावना नहीं आसक्ती, इसलिये भगवान् वीतराग की मूर्ति भी बड़ा भारी निमित्त कारण है जिस किसी को जैसा निमित्त प्राप्त होता है उसको वैसे ही भाव प्रगट होजाते हैं। मूर्तिपूजक तो शुभभाव आने से पुण्य उत्पन्न कर लेते हैं और मूर्तिनिन्दक भगवान वीतराग की मूर्ति को देखकर भ्रकुटी को चढ़ाकर दुष्टभाव हृदय में लाने से पाप उत्पन्न कर लेते हैं अब आप तनक सांसारिक व्यापार की भोर भी दृष्टि करें, कि वह भी मूर्ति विना कदाचित नहीं चलसक्ता ॥ दंदिया-यह बात भी दृष्टान्त के साथ समझाएं, क्योंकि दृष्टान्त से बात हृदय में आरूढ़ होजाती है । मन्त्री-जब किसी मकान को नीलाम या कुड़क कराना हो या किसी गृह आदि पर दावा करना हो तो उसका चित्र बनाकर न्यायालय में देना पड़ता है, क्या न्यायालय में वृत्तान्त For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २९ ) मुनाकर चित्र के दिये विना कार्य नहीं चलसक्ता ? मान्यवर ! न्यायालय में यदि कहें कि चित्र की आवश्यकता नहीं, हम अपने मुख से सब वृत्तान्त समझा देते हैं, तो शीघ्र ही मुख पर चपेट लगती है, और धक्के भी मिलते हैं कि जाओ चित्र बनाकर लाओ, चित्र के विना कार्य का होना असम्भव है । और जब किसी को लम्बी यात्रा करनी हो तो प्रायः प्रथम ही रेलवे चित्र देख लिया जाता है कि अमुक मार्ग (लैन ) कहां से पृथक् होता है अमुक नगर किस तरफ है विना चित्र के कुछ भी समझ में नहीं आता। और स्कूलों में भी लड़के चित्र के आश्रय से नगरों का वृत्तान्त समझते हैं। आपको शुद्धचित्त होकर विचार करना चाहिये कि जब सांसारिक काम भी मूर्ति के विना नहीं चलसक्ते तो उस परोक्ष परमात्मा का ध्यान मूर्ति के विना कैसे होसक्ता है। और बड़े शोक की बात यह है कि आप लोग अपने गुरु की समाधि को जिसमें कि केवल शिला और चूनें के विना और कुछ भी नहीं है, मस्तक झुकाते हैं और वहां पर प्रसाद बांटते हैं, किन्तु केवल परमात्मा वीतराग की मूर्ति के सन्मुख ही सिर झुकाना आपको व्यर्थ प्रतीत होता है, समाधि आदि का सत्कार तो किया जाता है परन्तु किस की शक्ति है जो वहां पर जूता तो लेजाए ॥ ढूंढिया-क्यों साहिब ! हम गुरु की समाधि पर जूता कैसे जानेदें। और इसका अपमान हम लोग कैसे कर सक्ते हैं। मन्त्री-वीतराग परमात्माकी मूर्ति जो कि जगद्गुरुकी मूर्ति For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है, क्या इसी से द्वेष है ? आप लोग वीतराग परमात्मा की मूर्ति का सन्मान क्यों नहीं करते, और इसे नमस्कार क्यों नहीं करते और निन्दा क्यों करते हो ? यह तो केवल आपकी मूर्खता है मालूम होता है कि आपके गुरुओं का संयम भी नहीं है, क्योंकि उन में मान पाया जाता है और जिस स्थान में मान होता है वहां संयम नहीं रहसक्ता॥ द्वंदिया-हमारे गुरुओं में मान कैसे सिद्ध होता है । मन्त्री -आपके गुरु अपने चित्र का सत्कार तो कराते हैं अपने चित्र का असन्मान कदापि सहार नहीं सक्ते, और आप लोग अपने गुरुओं की * समाधि की पूजा करते हैं इनके विद्यमान शिष्य ऐसी बुरी बात से आपको क्यों नहीं रोकते। और समाधियां बनानेके समय आप लोगों को क्यों न रोक दिया ? कि समाधि इत्यादि जड़ वस्तुओं को मत बनाओ। वीतराग परमात्मा की मूर्ति के सन्मुख सिर झुकाने से तो. निषेध करते हैं, प्रत्युत शपथ कराते हैं कि मन्दिरों में मत जाओ तो यह मान और ईर्षा नहीं तो और क्या है ? अब अधिक कहांतक कहा जाए आप को चाहिये कि * रायकोट और जगराओं में रूपचन्द की और फरीदकोट में जीवणमल की और अम्बाले में लालचन्दजी की समाधियां विद्यमान हैं। वहां पर ढूंढिये भाई जाफर लड्डू बांटते हैं, और मस्तक झुकाते हैं । पाठकगणो! यह मूर्तिपूजा नहीं तो और क्या है ? जिस साहिब को उक्त बात में संशय हो स्वयं देखकर निश्चयकर सकता है। For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३१ ) पक्षपात छोड़ो और विद्या ग्रहण करो फिर आपको अच्छी तरह से ज्ञान होजाएगा कि मूर्तिपूजा के करने से कोई प्राणी भी शेष नहीं है। जो लोग कहते हैं कि हम मूर्तिपूजा को नहीं मानते वे लोग केवल मिथ्या बातें बनाने वाले हैं ॥ ढूंढिया भाई निरुत्तर होकर शान्त होगया। तदनन्तर मन्त्रीजी मौलवी साहिब की तरफ ध्यान देने लगे ॥ मन्त्री-क्यों जी मौलवी साहिब ! आप भी मूर्ति को नहीं मानते ? मौलवी-अपराध क्षमा कीजिये, आपको कुछ भी समझ नहीं, ऐसे ही मन्त्री पदवी मिल गई, आप इस बात को नहीं जानते कि हमारा मत मूर्तिपूजक नहीं है । यह बात तो प्रसक्ष स्पष्ट है कि हम लोग हिन्दुजातिवत् मूर्तिपूजा नहीं करते । क्या पत्थर भी कभी खुदा होसक्ता है ? और कोई बुद्धिमान जड़ में परमात्मा की स्थापना कर सक्ता है ? जो आप हमारे से ऐसी बातें पूछते हैं । __ मन्त्री -मौलवी साहिब ! इतना न घबराइये, तनक धैर्य से मुंनिए, हमारे पास यह पत्र का खण्ड है इस पर खुदा लिखा है क्या आप इस पत्रखण्ड पर अपना पाद स्थापित कर सक्ते हैं। मौलबी-रक्तमय आंखे करके कहने लगे, बड़े ही शोक की बात है कि आप ऐसे निर्भय होकर बुद्धि के प्रतिकूल कठोर अक्षर क्यों कहते हैं । क्या आपको परमात्मा का भय नहीं है, और मृत्युका भय नहीं है ? आप मन्त्री पद को ग्रहण For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३२ ) करके यह अभिमान हृदय कदापि न करिये कि प्रत्येक स्थान में हमारा आधिपस चल जाएगा, धर्म के लिए मरजाना कोई बड़ी बात नहीं ॥ . मन्त्री - वाह जी ! वाह ! शोक है । मौलवी साहिब तनक ध्यान तो दो, कि मैंने पूर्व क्या कहा और अब क्या कह रहा हूं । यद्यपि मैंने आपको बुरा भला नहीं कहा, केवल यही पूछा है कि क्या आप इस पत्रखण्ड पर अपना पाद स्थापित करसके हो ? जिस पर आप कपड़ों से बाहर होगये और बहुत क्रोध में आगए। अब तो आपही अपने मुख से जड़ वस्तु का सम्मान करने लगगए, यह क्या ? मौलवी - हमने कर जड़ मूर्तिका पूजन माना है ? ॥ मन्त्री - क्या पत्र और मसी जड़ वस्तु नहीं है ? मौलवी - हां हां ! जड़ नहीं तो और क्या हैं । मन्त्री -- मौलवी जी यदि ऐसा ही है तो पत्र और मसी आपस में एकत्रित होकर खुदा लिखा जाता है इस में पत्र और Hira fear और कोई तीसरी वस्तु नहीं है न तो इस में खुदा का हाथ है और न हि इस में खुदा का पाद है तो फिर आप को को कैसे आया ? ॥ For Private And Personal Use Only मौलवी --हां जी हां ! बस इस में परमात्मा का नाम प्रत्यक्ष लिखा हुआ है इस पर हम पाद कैसे स्थापित कर सक्ते हैं ॥ मन्त्री - जब आप पत्र और मसी के द्वारा लिखे हुए परमात्मा के नाम पर अपने प्राणों को बलिदान करने लगे हैं तो परमात्मा की मूर्ति पर क्यों बलिदान नहीं होते । और आप कैसे Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कह सक्ते हो कि हम जड़ वस्तु को नहीं मानते । अच्छा मौलवी साहिब एक बात आप और बतलाएं कि आप लोग माला के मणके गिनते हो कि नहीं। मौलवी-हां जी जरूर। मन्त्री-माला के मणकों की जो विशेष संख्या नियत है इसमें जरूर कोई कारण है जो यही प्रतीत होता है कि अवश्य किसी न किसी बात की स्थापना है। कई लोग कहते हैं कि खुदा के नाम एक सौ एक हैं-इसलिये माला के मणके १०१ रक्खे गए हैं। अभिप्राय यह है कि कोई न कोई कारण विशेष संख्या नियत का अवश्य है । बस यह जो नियत कर लेना है इसी का नाम स्थापना है । बस जिसने स्थापना स्वीकार करली उसने मूर्ति अवश्य मानली, केवल आकार का भेद है। कोई किसी मूर्ति को मानता है परन्तु मूर्ति के विना निर्वाह किसी का भी नहीं हो सक्ता । इसलिए आप भी मूर्ति से पृथक कदापि नहिं हो सक्ते । यह तो केवल आपकी अज्ञानता है । जब आप लकड़ी के या पत्थर के टुकड़ों में परमात्मा के नामकी स्थापना मानते हो तो इस नाम वाले की स्थापना क्यों नहीं मानते। मोलवी-जबकि परमात्मा का आकार ही नहीं है तो इसकी मूर्ति कैसे बन सक्ती है। __मन्त्री -कुरानशरीफ में लिखा है कि मैंने पुरुष को अपने आकार पर उत्पन्न किया । अथवा जिसने पुरुष के आकार की पूजा की उसने परमात्मा के आकार की ही पूजा की। और इससे प्रत्यक्ष सिद्ध है. कि परमात्मा का आकार अवश्य है। कुरान की शिक्षा यह है कि खदा फरिस्तों की कतार के साथ For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३४ ) विशाल स्थान में आएगा और इसके सिंहासन को आठ फरिस्तों ने उठाया हुआ होगा । भला यदि परमात्मा मूर्त्तिमान् नहीं है तो इस के सिंहासन को आठ देवताओं के उठाने का क्या अर्थ है । और मूर्तिमान् आकार के बिना हो भी नहीं सक्ता । और भी आप लोगों का मानना है कि परमात्मा एकादश अर्श में सिंहासन पर बैठा हुआ है। अच्छा मौलवी जी तनक यह तो बतादें क्या आपने कभी हज भी किया है ? | मौलवी - हज से तो स्वर्ग मिलता है, फिर काबा शरीफ का हज क्यों न करना चाहिए। मैंने तो दो वार किया है ॥ मन्त्री - क्योंजी वहां पर क्या वस्तु है इसका तनक वर्णन करो। मौलवी - हज मक्काशरीफ में होता है। वहां पर एक कृष्ण पाषाण है, जिसका चुम्बन किया जाता है और काबा के कोट की प्रदक्षिणा करते हैं । मन्त्री - क्या यह मूर्तिपूजा नहीं है ? | मौलवी - कदाचित नहीं । मन्त्री - पाषाण का चुम्बन करना और प्रदक्षिणा करना और वहां जाकर सिर झुकाना मूर्तिपूजा ही है | मौलवी साहिब, आप जो खुदा के घरका इस कदर सत्कार करते हो तो परमात्मा की प्रतिमा का सत्कार क्यों नहीं करते । और इसकी मूर्ति क्यों नहीं मानते । भला मौलवी जी यह जो ताज़िये निकाले जाते हैं यह बुत नहीं तो और क्या है ? | और जो आप काबा की ओर मुख करके निमाज़ पढ़ते हो, यह भी एक प्रकार की मूर्तिपूजा ही है । For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३५ ) मोलवी-कावा तो खुदा का घर है इसलिए हम उधर मुख करते हैं। मन्त्री-क्या शेष स्थान ईश्वर से खाली हैं? तो आपका यह कथन कि परमात्मा सामान में है, उड़ जाएगा। मोलवी-काबा की तरफ हम इसलिए मुख करते हैं कि काबा खुदा का घर है-इस तरफ मुख करने से दिल प्रसन्न होता है और स्थिर रहता है। __ मन्त्री-काबा तो एक परोक्ष वस्तु है, जो कि दूर से दृष्टि गोचर नहीं होता, ईश्वर का मूर्ति को तो सन्मुख होने से और दृष्टि गोचर होने से ध्यान अधिक लगेगा, और स्थिर रहेगा। यद्यपि आप लोक जो नमाज़ पढ़ते हो याद किसी ऐसे स्थान पर नमाज़ पढ़ा जाए कि जिस स्थान पर पुरुषों का आगे से चलने का संभव हो, तो आप लोक मध्य में लोटा अथवा वस्त्र वा और कोई वस्तु रखलेते हैं ताकि नमाज़ में विन न पड़ जाए, यह जो वस्त्र अथवा लोटा आदि स्थापना वस्तु रक्सी जाती है यह भी एक प्रकार की खुदा के लिए कैद है, मानो सम्भावना की हुई वस्तु है। मौलवी साहिब ! आप एक बड़ा दृढ़ प्रमाण और सुनिए, मूअल्लिफ किताब दिलबस्तान मुज़ाहिब अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि मुहम्मद साहिब ज़ोहरा अर्थात् शुक्कर की पूजा करते थे। मालूम होता है कि इस कारण से ही शुक्रवार को यवन पुरुष पवित्र जानकर प्रार्थना का दिन समझते हैं। और मुहम्मद साहिब का पिता मूर्ति की पूजा, किया करता था। मौलवी साहिब ! आपका कोई मततो ताजीया की पूजा करता है और कोई कुरान की पूजा और कोई कबर की For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३६ ) पूजा करता है । ऐ मौलवी साहिब ! आप तनक पक्षपात को छोड़ कर ध्यान करें तो आप लोगों का भी मूर्तिपूजा के विना निर्वाह कदाचित नहीं होगा। मोलवी साहिब लज्जित होकर चुप्प होगए। मन्त्री जी फिर सिक्ख साहिब की ओर ध्यान देकर कहने लगे कि ऐ भाई साहिब ! आप मूर्तिपूजा को क्यों नहीं मानते ?। सिक्ख-नहीं जी हम जड़ मूर्ति को किसी प्रकार भी नहीं मानते। मन्त्री-क्यों जी भला आप गुरुनानक. जी और गुरु गोविन्दसिंहजी की मूर्तिओं को देखकर प्रसन्न होते हैं वा नहीं। 'सिक्ख-भला साहिब, गुरु की मूर्ति देखकर पुरुष रुष्ठ कैसे होसक्ता है । हम तो प्रसन्न होते हैं, क्योंकि इन्हों ने धर्म की रक्षा के लिए प्राणों की भी परवाह नहीं की है। और ऐसे ही गुरु नानक जी साहिब और गुरु गोविन्दासंह जी जिनको कि भविष्य पुराण में भी अवतारों में माना है । भला इनके चित्र देख कर हम रुष्ठ हो सक्ते हैं ?। और यदि रुष्ठ होते हों तो द्रव्य खर्च करके इनके चित्र अपने मकानों में क्यों रक्खें। और चित्रकारों को रुपैया देकर इनके चित्र दीवारों पर क्यों बनवाएं। मन्त्री-क्यों जी आप लोक अपने गुरुओं की मूर्तिओं के आगे शिर झुकाते हो वा नहीं। और उनका सन्मान करते हो वा नहीं। सिक्ख-हां जी जरूर। मन्त्री-मूर्ति के सन्मुख शिर झुकाना और उसका सन्मान करना क्या मूर्तिपूजा नहीं है ?। मूर्ति के सन्मुख शिर झुकाना और उसका सन्मान करना मूर्ति पूजा ही है। कोई किसी प्रकार करता है और कोई किसी प्रकार से करता है। कोई किसी For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३७ ) आकार में मानता है और कोई किसी आकार में मानता है। परन्तु मूर्तिपूजा से कोई छुट नहीं सक्ता। आप लोक गुरुग्रन्थसाहिब को तो उत्तम २ वस्त्रों में लपेट कर चारपाई वा चौंकी पर रखते हो और इसकी समाप्ति होने पर भोग पाते हो और इसके आगे धूपादि जला कर घण्टे बजाते हो और भी कई प्रकार के राग और शब्दादि इसके सन्मुख बोलते हो और भी कई प्रकार से इसकी पूजा करते हो, तो फिर आप मूर्तिपूजा से कैसे छूट सक्ते हैं, क्योंकि यदि मूर्ति जड़ है तो ग्रन्थ साहिब भी कोई चैतन्य वस्तु नहीं है, वह भी तो केवल पत्र और स्याही मिलकर ही बना है कि जिसके नीचे रखने वाली चारपाई को भी आप लोक मंजा साहिब के नाम से कहते हो, अब आपको तनक ध्यान देना चाहिए, कि आप जड़ की किस प्रकार पूजा करते हो । ___भ्रतृगण ! जब कि इसके साथ स्पर्श करने वाली वस्तु की पदवी इस प्रकार अधिक होजाती है तो परमात्मा की मूर्ति की पदवी सबसे अधिक क्यों न मानी जाए और इसकी पूजा क्यों न की जाए। - सिक्ख-महोदय ! वह गुरुओं की वाणी है इसलिये हम इसका सन्मान और पूजा करते हैं। मन्त्री-भाई जी ! जैसे आप लोग गुरुओं की वाणी या गुरु साहिब का सन्मान व पूना करते हैं। इसी तरह हम भी परमात्मा की मूर्ति का सन्मान और पूजा करते हैं। और जब कि आप गुरुओं और इनकी वाणी की प्रशंसा करते हैं तो फिर आप को परमात्मा की मूर्ति की भी जो कि गुरुओं की वाणी For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से भी अधिक पवित्र है, पूजा और सन्मान करना चाहिए, परन्तु आप साहिब उक्त वृत्तान्त से जड़ वस्तु की पूजा करते हुए भी मूर्तिपूजा पर आक्षेप करते हैं, सो अत्यन्त अयोग्य और समझ के प्रतिकूल है। अन्त में सिक्ख भाई तो निरुत्तर होकर चुप्प होगए, परन्तु एक आर्य साहिब मूछों पर हाथ फेर कर तत्क्षण आगे बढ़े और इनके साथ मंत्री जी के निम्न लिखे हुए प्रश्नोत्तर हुए। मन्त्री-क्यों महाशय जी भला आप मूर्तिपूजा को मानते हो या नहीं। आर्य-नहीं, श्रीमन् ! हम तो मूर्ति को कदापि नहीं मानते, क्योंकि मूर्ति तो जड़ है और जड़ से कोई लाभ भी प्राप्त नहीं हो सकता है। मन्त्री-महाशय जी ! यह तो केवल कहने की मिथ्या वार्ता है कि हम मूर्ति को नहीं मानते हैं, यदि इर्षाभाव को छोड़ कर ध्यान किया जाए आप तो क्या कोई मत भी मूर्तिपूजा से किसी प्रकार से छूट नहीं सक्ता है । महाशय जी ! मुझे इस बात में सन्देह है कि आप भी ईसाइ साहिबान की तरह तो नहीं कहते, जिनका यह कथन है कि हमलोग मूर्तिपूजक नहीं हैं वस्तुतः तो इनका एक रोमन कैथलिक मत भली प्रकार मूर्ति पुजक है, क्योंकि वह हजरत मप्तीह और मरिअमके चित्रों को गिर्जाघर में रख कर फल फूलादि चढ़ाते और उनकी पूजा करते हैं और रूस के तो सर्व मतानुयायी मूर्तिपूजक हैं। तदनन्तर मुअल्लिफ किताब दिल्लबस्तान मजाहिब अपने पुस्तक में लिखते हैं कि हजरत ईसामसीह सूर्य की पूजा करते थे और For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३९ ) रविवार के दिन सूर्य की पूजा करते हैं। इसी वास्ते ईसाइ लोग आदित्यवार के दिनको पूजा और सन्मान का दिन मानते हैं। आर्य- नहीं श्रीमन् ! नहीं, भला हम स्वामी दयानन्द के अनुयायी होकर जड़की पूजा कर सक्ते हैं ? । तीनों काल में अर्थात् भूत भविष्यत वर्त्तमान काल में यह वार्ता असम्भव है | मन्त्री - महाशय जी ! मूत्तिपूजा जड़पूजा में मिश्रित नहीं है क्योंकि मूर्त्तिपूजा जड़की पूजा नहीं हो सक्ती । प्रत्युत वह तो चेतन की पूजा होती है । आर्य - श्रीमन् ! यदि ऐसे हो तो आप कोई दृष्टान्त देकर भली प्रकार समझा देवें । मन्त्री - लो जी तनक सावधान होकर सुनो, कि याद कोई आर्य समाजी किसी परम विद्वान् संन्यासी की प्रत्येक प्रकार से सेवा करता है और जब संन्यासी महाराज जी समस्त दिन ज्ञान ध्यान के कारण थक जाते हैं, तो समाजी उनकी टांगों और शरीर आदि को अत्यन्त दबाता है, महाशय जी ! अब आप बतलाइए कि उस आर्य समाजी को इस तरह दिन रात्री परम भक्ति और सेवा से कुच्छ फल प्राप्त होगा या नहीं ? | आर्य-अजी क्यों नहीं, अवश्य प्राप्त होगा, क्योंकि यदि ऐसे महात्मा की सेवा करने से भी फल प्राप्त न होगा, तो और किसकी सेवा से फल माप्त होगा । मन्त्री - वाह ! जी वाह ! यह सेवा तो जड़ शरीर की थी और जड़की सेवा निष्फल होती है, तो फिर आप इस सेवा का फल कैसे मानते हो ? आय - श्रीमन् ! विद्वान् का शरीर जड़ नहीं हो सक्ता, क्योंकि इसमें तो जीवात्मा विद्यमान है। For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 57 17 ( ४० ) . मन्त्री - सत्य है, शरीर में जीवात्मा के होने से चेतन ही की सेवा मानी जाती है परन्तु सेवा तो वस्तुतः जड़शरीर की ही की जाती है, जीवात्मा की नहीं । और इसी तरह मूर्तिपूजा में भी जानना चाहिए, अथवा जैसे विद्वान के शरीर में जीवात्मा माना जाता है, वैसे ही मूर्ति में भी आपके मत के अनुसार ईश्वर माना जाता है क्योंकि ईश्वर सर्व व्यापक हैं ऐसा आप कहते हैं, इसवास्ते मूर्ति में भी ईश्वर का होना अवश्य है, इससे सिद्ध हुआ कि मूर्तिपूजा जड़पूजा नहीं है, क्योंकि मूर्तिपूजा करते समय प्रत्येक मतके भक्त यही प्रार्थना करते हैं कि हे सच्चिदानन्द ! ज्योतिः स्वरूप ! हे ईश्वर ! हे परमात्मन् ! tataराग! हे देवेश ! हे परमब्रह्म भगवन् ! हम को अपनी कृपा करके इस संसार सागर से पार करो । और ऐसे तो कोई भी नहीं कहता है कि जड़ पत्थर ! वा अयि मूर्त्ते ! तूं हमको इस संसार समुद्र से पार कर अथवा हमारा कल्याण कर । इससे स्पष्ट कि पूजा मूर्त्ति वाले की होती है और मूर्ति से तो केवल इस मूर्ति वाले का अनुभव होता हैं, वा ऐसे कह सक्ते हैं कि जैसे विद्वान की सेवा में विद्वान का शरीर ही एक कारण होता. है, वैसे ही मूर्ति वाले की सेवा वा पूजा में मूर्ति भी कारण होती है। और जैसा कि शरीर के विना केवल अकेले जीवात्मा की सेवा असम्भव है क्योंकि जीवात्मा निराकार वस्तु है, वैसे. ही ईश्वर परमात्मा की सेवा वा पूजा भी जो कि जीवात्मा से बहुत सूक्ष्म है मूर्ति के बिना कदाचित नहीं हो सक्ती है । आय - मला सच्चिदानन्द की सेवा में जड़को कारण Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बनाने की क्या आवश्यकता है, क्या वेदको श्रुतिओं से मूर्ति के बिना ईश्वर की प्रशंसा और पूजा नहीं हो सक्ती है । मन्त्री-वाह ! साहिब! क्या वेदकी श्रुतिएं चैतन्य हैं ? वह भी तो जर अपरों का समूह ही है । इस प्रकार से ईश्वरपूजा का कारण जड़ ही सिद्ध हुआ। .. आर्य-श्रीमन् ! हम उन जड़ अक्षरों से ईश्वर ही का जाप करते हैं। मन्त्री-महाशय जी ! हम भी तो मूर्ति द्वारा ईश्वर के स्वरूप को ही स्मरण करते हैं । अथवा जैसे आपनें जड़ अक्षरों में ईश्वर का जपन किया ऐसे ही हमने भी ईश्वर की जड़मूर्ति द्वारा ईश्वर के स्वरूप को स्मरण किया, भाई साहिब ! बात तो एक ही है । आप को भी मौलवी साहिब की तरह चक्कर खाकर स्थान पर आना ही पड़ेगा वा मूर्तिपूजा को मानना ही पड़ेगा। - आर्य-अच्छा जी, हम वेदकी श्रुतिओं को भी न पढ़ा करेंगे और केवल अपने मुख से ईश्वर की सेवा और प्रशंसा किया करेंगे कि हे परमात्मन् ! तूं ऐसा है और कहा करेंगे कि हे परमात्मन्! तूं हमको तारदे आदिर,तो फिर इसमें क्या व्यङ्गय है। .. मन्त्री -वाह साहिब ! आपके ऐसे कहने से तो यह सिद्ध होता है कि आप विद्या से रहित हैं क्योंकि केवल विद्या के प्रभार से जो कुच्छ मुख से बोला जाए उसे पद कहते हैं और कई अक्षरों के मिलने से पद बनता है तो फिर आपने जो कहा कि ऐसा तूं है तूं ऐसा है तूं हमको तारदे आदि २ क्या पद नहीं हैं ? और क्या जड़ नहीं हैं ? सर्व पद चाहे किसी ही भाषा के क्यों न होवें, जड़ही कहलाएंगे । इससे सिद्ध हुआ कि For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४२ ) ईश्वर की प्रशंसा और उपासना करना जड़के विना ग्रहण करने के असम्भव है, क्योंकि यदि आप जड़के विना कारण ईश्वर की उपासना करना चाहोगे तो आपको हूं, हां,कौन, और क्यों, आदि पदों को त्याग कर मूक बनकर मोक्ष मार्ग को सिद्ध करना पड़ेगा। __ आर्य-माना कि पद जड़ हैं परन्तु इनसे हम प्रशंसा तो सच्चिदानन्द की ही करते हैं। ___ मन्त्री-महाशय जी ! निस्सन्देह इस प्रकार से तो हम भी मानते हैं कि मूर्ति जड़ पदार्थ है परन्तु इसके कारण से हम मूर्तिवाले ईश्वर की पूजा करते हैं वा यह कि हमारी प्रार्थना भी मूर्ति के कारण ईश्वर परमात्मा की ही होती है। इसलिए मूर्तिपूजा से आपको विरुद्ध होना योग्य नहीं है क्योंकि तत्वपदार्थ के प्राप्त करने में जड़ भी कारण हो सक्ता है। अच्छा अब आप यह बतलाइए कि यदि किसी महर्षि का शुद्धभाव से दर्शन किया जाए तो इसका फल अच्छा प्राप्त होगा कि नहीं ? आर्य-अजी क्यों नहीं, अवश्य अच्छा फल प्राप्त होगा। मन्त्री-अब आप यह बतलाएं कि महात्मा जी के जीवास्मा का दर्शन हुआ या जड़ शरीर का ? तो इसके उत्तर में आपको कहना पड़ेगा कि अरूपी जीवात्मा का तो दर्शन नहीं हो सक्ता, महाराजजी के शरीर का ही दर्शन हुआ । अब ध्यान करना चाहिए कि यदि मनुष्य जड़ शरीर के देखने से पुण्य उत्पन्न कर सक्ता है तो क्या परमात्मा की निर्दोष मूर्ति से पुण्यबंधन नहीं कर सकेगा ? अवश्य प्राप्त कर सकेगा। आर्य-श्रीमन् ! महर्षि का दृष्टान्त तो मूर्ति से कदाचित् सम्बन्ध नहीं रखता है क्योंकि महर्षि जी के दर्शन से तो इस For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४१ ) वास्ते पुएय होता है कि वह हमको शिक्षायुक्त बातों का उपदेश करते हैं जिस पर वर्ताव करने से हम बहुत कुछ लाभ उठा सक्ते हैं परन्तु मूर्ति हमको कुछ भी उपदेश नहीं कर सक्ती और नही कोई लाभ देस की है, इसलिए मूर्ति का मानना ठीक नहीं है। . मन्त्री-महाशय जी ! आपका यह कथन सत्य है कि महर्षि जी अच्छी बातें और अच्छा उपदेश सुनाते हैं, जिससे हमें लाभ होता है, परन्तु आप यह तो बताओ कि यदि हम महर्षि जी के कहने पर वर्ताव न करें तो क्या महर्षि जी के दर्शन से हमें कोई लाभ या फल मिल सक्ता है ? कदाचित नहीं। क्योंकि याद महर्षि जी के कहने पर ध्यान और वर्ताव ही न किया जाएगा और इनकी बातों पर निश्चय भी नहीं किया जाएगा तो केवल महर्षि जी के मुख देखने से तो हमारा कल्याण कदापि नहीं हो सकेगा, इससे सिद्ध हुआ कि फलका प्राप्त करना वा न करना हमारे ही आधीन है। और जबकि हमको निश्चय दिलाने और वर्ताव करने से ही शिक्षा मिल सक्ती है तो फिर इसमें महर्षि जी की क्या बड़ाई हुई क्योंकि फलका प्राप्त करना हमारे ही हाथ में है, इसमास्ते हम अपनी भावना करके मूर्ति से भी अवश्य अच्छा फल प्राप्त कर सक्ते हैं। हम वीतराग ईश्वरमूर्ति की वीतराग आकृति को देख कर वीतराग बनने की इच्छा वा यन करें, और उनके गुणों का स्मरण करें, और उनके गुणों को ग्रहण करके रागद्वेष के परिणाम को रोकें, तो निस्सन्देह मूर्ति हमें तारने वाली होती है । आप भी इस बातको ऊपर मान चुके हैं कि यदि हम शिक्षा मानकर इस पर वाव करेंगे तो हमारा ही लाभ होगा ॥ और सुनिए मैं आपको एक For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४४ ) दृष्टान्त सुनाता हूं और यह सिद्ध करके दिखलाता हूं कि कइ एक चैतन्य पुरुषों से भी हमें इतना लाभ नहीं प्राप्त हो सक्ता जितना कि जड़ वस्तु से, यथा एक मनुष्य जोकि बड़ा विद्वान् है और ऐसी अच्छी २ शिक्षाएं दे रहा है कि जिनका वर्णन करना शक्ति से बाहिर है परन्तु इसको अपने मतका उपदेश न समझने वा इसका वर्णन अपने मतके प्रतिकूल देखने से और इसके वचनों पर निश्चय न करने के कारण हम इसके उपदेश पर वर्ताव नहीं करते , प्रत्युत ऐसा ध्यान करते हैं कि ऐसे मूर्ख प्रायः उपदेशक फिरते ही हैं,अब आपही बतलाइए कि क्या इस चैतन्य से हमारा कल्याण हो सकता है ? कदाचित् नहीं होसक्ता, और यदि हम इससे घर बैठे ही अपने मतके जड़ पुस्तकों को विचारें वा पढ़ें और इसकी बातों पर अपना धर्मशास्त्र होनेके कारण निश्चय करके यथाकथन पर वर्ताव करें तो निस्सदेह उस जड़ पुस्तक से हमको बहुत कुछ लाभ प्राप्त होसक्ता है । अब आपही न्याय से कहें कि चैतन्य लाभ देने वाला हुआ वा जड़ शास्त्र ?। आपका यह कहना कि जड़से कुच्छ लाभ प्राप्त नहीं होसक्ता' प्रत्युत व्यर्थ और मिथ्या सिद्ध हुआ॥ - आर्य-हां साहिब ! आपकी युक्ति तो वस्तुतः सत्य है परन्तु इसमें केवल इतना ही संदेह है कि निराकार ईश्वर का आकार कैसे बन सक्ता है। मन्त्री-महाशय जी ! आप यदि ध्यान से विचार करेंगे तो अवश्य समझ जायेंगे, कि निराकार साकार भी होसक्ता है आपके कथनानुकूल ईश्वर निराकार है परन्तु साकार वाले ओंकार शब्द में ही इसका समावेश हो जाता है और देखें आप For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४५ ) जो सदैव काल कहा करते हैं कि ईश्वर सर्व व्यापक है और वह परिच्छिन्न मूर्ति में कदापि नहीं आसक्ता है, अब सोचना चाहिए कि जब सर्वव्यापक ईश्वर एक छोटे से ओंकार शब्द में समा सक्ता है तो क्या वह मूत्ति में नहीं समा सक्ता । और जब कि एक छोटासा ओंकार शब्द सर्वव्यापक ईश्वर का बोध करा सक्ता है तो फिर मूर्ति क्यों न करा सकेगी ? जैसे कि निराकार ईश्वर ओंकार के स्वरूप में ही लिखा या माना जाता है, तथैव यदि पत्थर या धातुकी मूर्ति में भी इसकी स्थापना मानली जाए, तो क्या हानि की बात है। ईश्वरज्ञान निस्संदेह निराकार है ऐसा भी आप मानते हैं और देखें साकार जड़ वेदों में भी ईश्वर का ज्ञान मानते हो, भला यह स्थापना नहीं तो और क्या है ? । इसलिए आपको ऐसा तो अवश्य ही मानना पड़ेगा कि निस्सन्देह परमात्मा के निराकार ज्ञान की साकार वेदों में स्थापना की हुई है और ईश्वर परमास्मा का ज्ञान निःसंदेह अनन्त है, परन्तु प्रमाणवाले शास्त्रों में तो इसकी स्थापना करनी ही पड़ती है, अथवा कहना पड़ता है कि वेदों में परमात्मा का ज्ञान है * । इस प्रकार यदि निराकार ईश्वर की प्रतिमा बनाली जावे तो क्या दोष है ?। और मुनिए, कि आर्यप्रतिनिधिसभा पंजाव के बनाए हुए जीवनचरित्र स्वामी दयानन्द जी के पृष्ट ३५९ में लिखा हुआ हैकि ईश्वर का कोई रूप नहीं है, परन्तु जो कुच्छ इस संसार में दृष्टि गोचर हो रहा है वह इसी का ही रूप है । इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि मूर्ति भी परमात्मा का रूप है जब कि संसार की सर्व साकार वस्तु परमात्मा का रूप है तो क्या मूर्ति परमात्मा के रूपसे पृथक् रहगई। * मार्य सिद्धांताफल यह लिखा है, जैनों को मान्य न । For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आर्य-यह बात तो अपकी सत्य है परन्तु जड़की पूजा करने से चेतन का ज्ञान कदापि नहीं हो सक्ता है। मन्त्री-महाशय जी! यदि ऐसे माना जाए तो जड़ वेदों से भी चेतन ईश्वर परमात्मा का ज्ञान न होना चाहिए, परन्तु आपका विश्वास है कि वेदों से ईश्वर परमात्मा का ज्ञान प्राप्त होता है इसलिए सिद्ध हुआ कि जड़ पदार्थ से चेतन का ज्ञान ज्ञात हो सक्ता है। आर्य-भला यदि कोई तुम्हारी मूर्तिओं के भूषण चुरा कर लेजाए या मूर्तिको तोड़ देवे या निरादर करे तो वह मूर्ति इसका कुच्छ नाश नहीं कर सक्ती है, तो फिर हमको वह क्या लाभ पहुंचा सक्ती है ?॥ मन्त्री-महाशय जी! याद आप ऐसा मानते हो तो फिर तो आपको ईश्वर परमात्मा को भी न मानना चाहिए, क्योंकि बहुत से नास्तिक लोग ईश्वर को नहीं मानते, प्रत्युत भला बुरा कहते हैं कि ईश्वर कौन है और क्या वस्तु है इत्यादि २॥ परन्तु ईश्वर परमात्मा इनका कुछ नहीं कर सक्ता। इसलिए तुम्हारे विश्वास के अनुसार तो ईश्वर को भी न मानना चाहिए, और क्या ईश्वर परमात्मा पहिले न जानता था कि यह पुरुष मुझको नहीं मानेंगे, मैं इनको उत्पन्न न करूं, यदि जानता था तो मानो ईश्वर भी. बहुत मूर्ख है जो जान बूझकर अपने शत्रु: उत्पन्न करता है और यदि नहीं जानता था तो ईश्वर ब्रह्मज्ञानी न रहा । महाशय नी ! ऐसा मानने से तो आपके ईश्वर पर कई तरह के आक्षेप होसक्ते हैं, परन्तु वस्तुतः तो केवल इतनी बात For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४७) है कि जो कुछ होता है सब अपनी ही भावना से होता है, इस लिए मूर्ति के भूषण चुराने या तोड़ने और मूर्तिका खण्डन करनेवाले को तो इसके संकल्प के अनुसार वैसा ही फल मिलता है, और ईश्वर परमात्मा के आदेश के प्रतिकूल चलने या निन्दक और न मानने वाले को इनकी भावनानुकूल वैसाही फल मिलता है। आर्य-श्रीमन् ! मूर्ति तो अपने ऊपर से माक्षिका तक भी नहीं उड़ा सक्ती तो दूसरों को इसकी भक्तिसे क्या लाभ हो सक्ता है । मंत्री-वाह ! जी वाह ! अच्छा मुनाया, आपके वेद भी तो कि मूर्ति की तरह अपने ऊपर से मक्खी भी नहीं उडा सक्ते जिनसे कि आप परमपद मुक्तिका फल प्राप्त करना मान रहे हो, यदि कहोगे कि वेदों से तो ज्ञान प्राप्त होता है तो हम यह पूछते हैं कि क्या वेद स्वयं ज्ञान कराने में समर्थ हैं या पुरुष अपनी बुद्धि से प्राप्त कर सक्ता है ? याद कहोगे कि वेद स्वयं ही ज्ञान कराने में समर्थ हैं तो आपका यह कहना कदापि सत्य नहीं है, क्योंकि याद ऐसा ही हो तो मूर्ख पुरुष भी अपने पास वेद रखने से वेदों के ज्ञान से योग्य होजाएं, परन्तु ऐसा कदापि देखने में नहीं आता है,क्योंकि वेदों को पास रखने वाले तो सहस्त्रों हैं, परन्तु उनके समझने वाले सैंकड़ों में से केवल एक या दो ही निकलेंगे । और यदि कहोगे कि अपनी बुद्धि से ही ज्ञान प्राप्त होता है तो ऐसे तो मूर्ति से भी ज्ञान प्राप्त होसक्ता है, जैसाकि हाथी की मूर्ति देखकर उस पुरुष को जिसने कभी हाथी नहीं देखा हाथी का ज्ञान होजाता है कि हाथी For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४८ ) ऐसा ही होता है । और यदि केवल इसको हाथी का नामही बतलाया जाये तो इसको हाथी का ज्ञान प्राप्त न होगा कि हाथी कैसा होता है। इस दृष्टान्त से भी सिद्ध होता है कि मूर्ति अवश्य माननी चाहिए । और भी तुम्हारे गुरु स्वामी दयानन्दजी की बनाई हुई सत्यार्थप्रकाश से सिद्ध होता है कि मूर्ति अवश्य माननी चाहिए। आर्य-हां ! आपने तो यह आश्चर्ययुक्त बात मुनाई भला यह बात होसक्ती है कि हमारे स्वामी जी मूर्ति का मानना लिखें? कदापि नहीं। मन्त्री-आप क्यों व्याकुल होते हैं, यदि हमारे कहने पर आपको विश्वास नहीं आता, तो सत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ ३७ पर देखलो । जहां अग्निहोत्र की विधि और इसके सम्बन्ध में आपश्यक सामग्री का व्याख्यान किया है । इतनी लम्बी चौड़ी चौकोन वेदी और ऐसा प्रोक्षणी पात्र और इस प्रकार का प्रणीतापात्र और इस प्रकार की आज्यस्थाली और इस नमूनें का चिमचा बनाना चाहिए अब तनक ध्यान करो कि यदि स्वामीजी मूर्ति को नहीं मानते थे तो वह अपने सेवकों को चित्र के बिना उक्त स्वरूपों को क्यों न समझा सके। आर्य-श्रीमन् ! हम इन चित्रों को निश्चय करके वेदी इत्यादिक तो नहीं मानते, हम तो केवल इन चित्रों को असली वेदी इत्यादि के ज्ञान होने में निमित्त मानते हैं । । मन्त्री-इम भी तो ऐसा ही कहते हैं कि मूर्ति ईश्वर तो नहीं, परन्तु ईश्वर के स्वरूपका स्मरण कराते में कारण है। For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आर्य-वेदी इत्यादि वस्तु तो साकार हैं इनका चित्र बनाना तो योग्य है परन्तु ईश्वर हृदय में चिन्तनीय है, इस वास्ते इसकी मूर्ति कैसे बन सक्ती है । मन्त्री-यदि आप ईश्वर को हृदय मात्र चिन्तनीय और अरुपी मानते हैं तो ओम पदका सम्बन्ध ईश्वर के साथ न रहेगा क्योंकि ओम् पद रूपी है और ईश्वर अरूपी है तो फिर इस पदके ध्यान और उच्चारण से आपको क्या लाभ होगा? __ आर्य-जिस समय हम ओं पदका ध्यान और उच्चारण करते हैं उस वक्त हमारा आन्तरिक भाव जड़प ओं शब्द में नहीं रहता है प्रत्युत उस पदके वाच्य, ईश्वर में रहता है। मन्त्री-जबकि आपका भाव 'वाचक' ओं पदको छोड़ कर 'वाच्य ईश्वर में रहता है तो फिर आपको 'वाचकपद' ओं की क्या आवश्यकता है। - आर्य-श्रीमन् ! ओं पदकी आवश्यकता इस वास्ते है कि ओं शब्द के विना ईश्वर का ज्ञान नहीं होता । ___ मन्त्री-जिस प्रकार ओं पदकी स्थापना के विना ईश्वर का ध्यान नहीं होसक्ता इसी तरह मूर्ति के विना ईश्वर का ज्ञान भी नहीं होसक्ता, क्योंकि जब तक मनुष्य को केवल ज्ञान नहीं होता, तब तक मूर्ति के दर्शन विना ईश्वर के स्वरूप का बोव होना असम्भव है, और यह वर्णन पीछे भी हो चुका है कि एक आदमी ने तो हाथी को देखा हुआ है और दूसरे ने केवल नाम सुना हुआ है परन्तु असली हाथी कदापि नहीं देखा है अब देखना चाहिए कि दूसरे आदमी को 'जिसने केवल हाथी का नामही सुना है' जब तक हाथी की प्रतिमा इसको न दिखाई जाये तब तक असली हाथी का ज्ञान इसको कदापि नहीं हो For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सक्ता । इसीतरह हम तुमने भी ईश्वर का केवल नामही सुना है, परन्तु देखा नहीं, इसलिए ईश्वरमूर्ति के विना ईश्वर का ज्ञान कदापि नहीं होसक्ता । यदि आप कहेंगे कि मूर्ति बनाने वाले ने ईश्वर को कब और कहां देखा था तो आपका यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि नकशे को बनाने वाले ने क्या सर्व देश शहर कसबे ग्राम समुद्र नदी इत्यादि देखे भाले होते हैं ? कदापि नहीं । जिस तरह नकशा बनानेवाले ने सर्व देश इत्यादि नहीं देखे होते परन्तु इसके बनाए हुए नकशे के देखने वालों को सर्व देश नगर इत्यादि का ज्ञान होजाता है, इस प्रकार मूर्ति में भी समझना चाहिए । यदि मूर्ति बनानेवाले ने ईश्वर को नहीं देखा है परन्तु इस मूर्ति के देखने से हमको ईश्वरका ज्ञान प्राप्त होता है। आर्य-क्यों साहिब ! जब शास्त्रों से ही ईश्वर का ज्ञान प्राप्त होसक्ता है तो फिर मूर्ति की क्या आवश्यकता है। मन्त्री-महाशयजी! आपका यह कहना भी व्यर्थ है। देखिये, एक आदमी को तो मुम्बइ के वृत्तान्त से ऐसे सावधान किया जाए कि इस नगर की अमुकद्वार तो पूर्व की तरफ और अमुकद्वार पश्चिम की तरफ है और अमुक गृह स्टेशन से अमुक दिशा में है इत्यादि २ और दूसरे मनुष्य को मुम्बई नगर का चित्र भी दिखाया जाए, और वृत्तान्त भी सुनाया जाए तो आप ही कथन करिए कि मुम्बई नगर का अतिज्ञान किस मनुष्य को हुआ। अवश्य कहना पड़ेगा कि समाचार सुनकर चित्र देखने वाले को अधिक ज्ञान हुआ। आर्य-क्यों जी! यदि आप पत्थर की मूर्ति को देखने से शुभ परिणाम का आना मानते हो तो इस के जड़ता के भाव For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५१ ) भी आप में अवश्य आजाएंगे । और जब बुद्धि पत्थर होजाएगी तो आप भी पाषाणवत् जड़ होजाएंगे। ___ मन्त्री-अहहह ! आपकी बुद्धि और तर्क का क्या ही कहना है, तनक आंख तो बोलो कि अतिमूर्व भी जानता है कि स्त्री की प्रतिमा देखकर काम तो निःसंदेह उत्पन्न होता है कि वह मनुष्य स्त्री नहीं बनजाता है । इस प्रकार वीतरागदेव की शान्तोदान्त मूर्ति को देखकर शान्तोदान्त तो हो सक्ते हैं न कि जड़ बनजाते हैं । और यदि आपका भाव ऐसाही है तो फिर तो तुम भी जड़रूप ओं शब्द के देखने से जड़ बन सक्ते हो और आपने तो अनेक वार ओं शाद को देखा होगा, परन्तु जड़ न हुए। आर्य-नहीं जी, आपका कहना असत्य है. क्योंकि ओं शब्द के देखने से तो हमको परमात्मा स्मरण होता है । मन्त्री -महाशय जी ! इस तरह से हमको भी मूर्ति के देखने से ईश्वर परमात्मा स्मरण आते हैं, और यह प्रख्यात नियम है कि कोई कार्य कारण के विना कदापि नहीं होसक्ता, इस प्रकार भाव भी कारण के विना उत्पन्न नहीं होसक्ता। - आर्य-श्रीमन् ! सुनिए, मूर्ति के विषय में और भी एक बड़ा भारी : कि मूर्ति तो जड़ होती है फिर उस जड़ मूर्ति से चेतन ईश्वर का ज्ञान कैसे होसक्ता है। ... मन्त्री-महाशयजी! हम जड़मूर्ति से चेतन का काम नहीं लेते, क्योंकि परमात्मा की मूर्ति तो 'जोकि जड़रूप है केवल · अच्छे भावों को 'जोकि वह भी जड़रूप है' उत्पन्न करने वाली है। और शास्त्र और मूर्ति आपस में जुगराफिया और चित्रवत् For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५२ ) सम्बन्ध रखते हैं क्योंकि शास्त्र तो जुगराफिए की तरह वैराग्य भाव और ईश्वर के स्वरूप को वर्णन करने वाला और मूर्ति ही इसकी प्रतिमा बनाई हुई है जैसेकि शास्त्र जड़ हैं परन्तु अच्छे भावों के उत्पन्न करने वाले हैं, तथैव मूर्ति भी निस्सन्देह जड़ है परन्तु अच्छे भावों को 'जिन से ईश्वर का ज्ञान होता है, उत्पन्न करने वाली है। और संसार में ऐसा कोई भी मत नहीं है जोकि मूर्ति को किसी न किसी तरह न मानता हो या पूजा न करता हो । यदि किसी मतानुयायी पुरुष आकार वाली मूर्ति को न मानते होंगे और उसका सन्मान न करते होंगे, तो वे वेद कुराण अंजील इत्यादि अपनी पवित्र पुस्तकों को 'जोकि आकार वाली है ' अवश्य मानते और सन्मान करते होंगे। (नोट मन्त्री की ओर से) __ यह बात सभा पर प्रकाशित हो कि आकार वाली वस्तु को मूर्ति के नाम से प्रख्यात कर मक्ते हैं। आर्य-श्रीमन् ! क्योंकि मूर्ति जड़ है, इसलिए इसकी उपासना से मनुष्य भी जड़ होजाएगा ॥ मन्त्री-बड़े शोक की बात है कि मैं अनेक युक्तिओं से इस बात को सिद्ध कर चुका हूं, परन्तु आप वारंवार वह ही प्रश्न करते हैं । अच्छा और भी दोचार दृष्टान्तों से आपको समझाता हूं कि जड़ पदार्थकी पूजा से मनुष्य जड़ नाह होसक्ता, प्रत्युत इस बात के विरुद्ध जड़ पदार्थों से बहुत लाभ प्राप्त होतेहैं। देखिए, कि ब्राह्मी नाम बूटी एक जड़ पदार्थ है, परन्तु इसके खाने से चेतनता बढ़ती है, इससे सिद्ध हुआ कि जड़ में भी ज्ञान को बढ़ाने की शक्ति है। और देखिए कि किसी वक्त जड़ For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५३ ) चेतन से भी अधिक लाभ पहुंचा सक्ती है, यथा- आत्मा का ज्ञान गुण है, इसलिए पदार्थों को आत्मा ही देख सक्ता है परन्तु फिर भी आत्माकी चक्षुः इत्यादिक इन्द्रियों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि जब चक्षुः किसी हेतु से नाश हो जाते हैं तो पदार्थोंका दर्शन नहि होसक्ता, अब ध्यान करना चाहिए कि पदार्थों का दर्शन क्यों नहि होता, क्या देखने वाला आत्मा विद्यमान नहीं, तो कहना ही पड़ेगा कि आत्मा तो अवश्य विद्यमान है परन्तु सहायक चक्षुओं के नाश होजाने से पदार्थों का दर्शन नहिं होता है अब आप ही न्याय से कहें कि जड़का कितना प्रभाव है कि जिसके न होने के कारण आत्मा मी पदार्थो को नहिं देख सक्ता है । लो और सुनो। कि आंखें सचेतनता के होने पर भी अपने आपको नहिं देख सक्ती हैं, परन्तु जब आदर्श सन्मुख किया जावे तो शीघ्र ही आंखें अपने आपको देख लेती हैं, या ऐसे कहो कि अपनी आंखें आपको नज़र आने लग पड़ती हैं, देखिए कि इस जगह हमको जड़ रूप आदर्श किस प्रकार लाभ पहुंचाता है ऐसे ही मूर्ति भी ईश्वर परमात्मा का बोध करा सक्ती है । और भी देखिए कि मनुष्य अपने देखने की पूर्ण शक्ति होते भी एक आध मील से ज्यादा दूर कदापि नहीं देख सकता परन्तु दूरबीन लगाकर देखा जाए तो दुस २ मील से भी अधिक दूर की वस्तु दृष्टि गोचर होती है, अब देखना चाहिए कि दूरबीन एक जड़गदार्थ है परन्तु इस में कितनी शक्ति है और कितना लाभ देने वाली वस्तु है । हे प्यारे ! न्याय की दृष्टि से तो मेरी इन युक्तिओं और प्रमाणों से आपको मान लेना चाहिए कि मूर्तिपूजा वस्तुतः ठीक है । . For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५४ ) आर्य-हां साहिब ! अब मैं इस पात को तो स्वीकार करता हूं कि मूर्ति अवश्य माननी चाहिए और यह बात भी कि निराकार ईश्वर परमात्मा की मूर्ति बन सक्ती है। आपने ऊपर की युक्तिओं से ठीक र सिद्ध करके बतला दिया है । अब प्रश्न केवल इतना ही है कि आप वेदों के मन्त्रों से (प्रमाण से ) इस बात को सिद्ध करके बतलाएं, क्योंकि वेदों पर हमें अधिक विश्वास है। मन्त्री-लो साहिब ! आपके कथनानुसार अब मैं आप को वेद की श्रुतिओं से ही यह बात सिद्ध करके दिखलाता हूं तनक ध्यान देकर मुनिए, यजुर्वेद १६ अध्याय के ४९ मन्त्र में मूर्तिपूजा सिद्ध है यथा (याते रुद्र शिवातनूरबारापापकाशिनी) अर्थ-हे रुद्र ! तेरा शरीर कल्याण करने वाला है सौम्य है और पुण्यफल देने वाला है। देखो यजुर्वेद के तृतीय अध्याय के ६ मन्त्रमें ऐसा लिखा है,यथात्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीयमामृतात् ।। तथाच निरुक्तम् । अ०.१३ पा० ४ खण्ड... त्रीणि अम्बकानि यस्य स त्र्यम्बको रुद्रस्तं ध्यम्बकं यजामहे (सुगन्धि ) सुष्ठुगन्धिम् (पुष्टि वर्द्धनम् ) पुष्टिकारकमिवोर्वारुकमिव फलं बन्धनादारांधनात मृत्योः सकाशान्मुञ्चस्व मां कम्मा दित्येषामितरेषा पराभवति । For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-इस मन्त्रका महीधर ने भी यही भाष्य किया है, इसका सीधा २ अक्षरार्थ यही है कि तीन नेत्रों वाले शिवजी की पूजा हम करते हैं मुगन्धित पुष्टिकारक पका खरबूजा जैसे अपनी लता से पृथक् हो जाता है उसी तरह हमको मृत्यु से बचाकर मोक्षपद की प्राप्ति कराइए । इति। देखिए, इस श्रुति से ईश्वर शरीरधारी सिद्ध होता है क्योंकि नेत्रों का होना शरीर के बिना असम्भव है, परन्तु स्वामि दयानन्द जीने त्र्यम्बकं पदका अर्थ तीन लोक की रक्षा करने वाला लिखा है, परन्तु इस पदका यह अर्थ किसी प्रकार से भी नहीं होसक्ता है । और देखिए सनुस्मृति के चतुर्थ अध्याय के १२५ श्लोक में भी लिखा है । यथामैत्रं प्रसाधनं स्नानं दन्तधावनमञ्जनम् । पूर्वान्ह एव कुर्वीत देवतानाच पूजनम् ॥ .. इसका यह अर्थ है शौचादि स्नान और दातन आदि काकरना और देवताओं का पूजन प्रातःकाल ही करना चाहिए । देखिए यहां भी देवताओं की पूजा से मूर्तिपूजा सिद्ध होती है । यथानित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्ववर्षि पितृतर्पणम् । देवताऽभ्यर्चनं चैव समिदाधान मेवच ॥ ___ अर्थ-नित्यप्रति स्नान करके प्रथम देव, ऋषि तथा पितरोंका तर्पण अपने गृह्योक्त विधि से करे, तदनन्तर शिवादि देव पतिमाओं का अभ्यर्चन नाम सम्मुख पूजन करे तिसके बाद विधि पूर्वक ममिदाधान कर्म करे। यहां देवताभ्यर्चन पदसे माता .. For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिता गुरु आदि किसी मनुष्य का आदर सत्कार इसलिए नहीं लिया जासक्ता कि इसी मनु के द्वितीयाध्याय में माता पिता गुरु आदि मान्यों की पूजा, आदर, सेना, पृथम् २ कही है। अग्निहोत्र का विधान सस्त्रीक गृहस्थ के लिए है, अग्निहोत्र के स्थान में ब्रह्मचारी के लिए समिदाधान कर्म है। पाणिनीय अष्टाध्यायी अ० ५ पा० ३ म० ११ के अनुसार वासुदेव तथा शिवकी पतिमाओं का नाम भी "कन्” प्रत्यय का “लुप्" होजाने पर वासुदेव तथा शिव ही होता है । इसी के अनुसार देवता की प्रतिमा का नाम भी “कन्" का "लुप्" होजाने से देवता ही बोला जाएगा, (वासुदेवस्य प्रतिकृतिर्वासुदेवः । शिवस्य प्रतिकृतिः शिवः । देवतायाः प्रतिकृतिर्देवता । तस्या अभ्यर्चनं देवताभ्यर्चनम्) मनु में कहे हुए देवताभ्यर्चन"पदका स्पष्टार्थ विष्णु शिवादि देवों को प्रतिमाओं का पूजन ब्रह्मचारी को नि: यम से करना चाहिए यही सिद्ध होता है। मनु के टीकाकारों की सम्मति भी देवप्रतिमा पूजने में रपष्ट है। यथा गोबिन्दराजः-( देवतानां हरादीनां पुष्पादिनार्चनम् । मेधातिथिः-अतः प्रतिमानामेवैतत्पूजनविधानम् । सर्वज्ञनारायणः-देवतानामर्चनं पुष्पायैः। कूल्लूकः-पतिमादिषु हरिहरादिदेवपूजनम् । मनुस्मृति के टीकाकार पं० गोविन्दराज जी कहते हैं कि यहां देवता शब्द से शिवादि देवता अभीष्ट हैं पुष्पादि से पूजन करना देवताभ्यर्चन कहा जाता है। मेधातिथि कहते हैं कि यहां प्रतिमाओं ही का पूजन अभिमत है For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५७ ) सर्वज्ञनारायण और कुल्लूकभट्ट को भी यही मत स्वीकृत है । इसलिये इन प्रमाणों से देवताओं की पूजा करने से मूर्तिपूजा सिद्ध है। आर्य-नहीं जी नहीं, हमारे धर्मशास्त्रों में तो देवताओं का अर्थ विद्वान लिया गया है इस कारण से आपका कथन युक्तियुक्त नहीं है। मन्त्री-पहाशय जी आपको तनक ध्यान देना चाहिए कि यदि यहां देवताओं से विद्वान का अर्थ सिद्ध होता है, तो मातः काल में ही देवताओं का पूजन करना चाहिए. ऐसा क्यों लिखा है। और यदि कथञ्चित् इस बात को स्वीकार भी करलें कि देवता का अर्थ यहां विद्वान ही है, तो फिर भी आप जड़पूजा से पृथक किसी प्रकार नहीं हो सक्ते हैं। क्योंकि यदि आप किसी विद्वान की पूजा करेंगे तो आत्मा को निराकार होने के कारण इस विद्वान के शरीर की ही पूजा करेंगे, परन्तु शरीर जड़ है, इसलिए वह भी जड़ही की पूजा हुई। यदि आप कहेंगे कि शरीर में चैतन्य आत्मा के होते हुए चैतन्य शरीर के पूजने से हम जड़पूजक नहीं हो सक्ते हैं, तो ऐसे तो हम भी मूर्तिपूजने के कारण जड़पूजक किसी प्रकार भी नहीं हो सक्ते हैं, क्योंकि आपके मानने के अनुकूल ईश्वर सर्वव्यापक होने से मूर्ति में भी ईश्वर विद्यमान है, और देखिए मनुस्पति के नवम अध्याय के २८० श्लोक में लिखा है, यथाकोष्ठागारयुधागारदेवतागारभेदकान् । हस्त्यश्वरथहर्तश्च हन्या देवाविचारयन् ॥ For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५८. ) इसका आशय यह है कि कोश कारागार देवताओं के मन्दिरों को जो तोड़ने वाले हैं, अथवा वस्तुओं की चोरी करने वाले जो चोर हैं इन सबको राजा विना सोचविचार के मारडाले॥ __ और देखिए कि मनुस्मृति के नवम अध्याय के २८५ श्लोक में लिखा है। यथा (सङ्कमध्वजयष्टीनां प्रतिमानां च भेदकः) इस श्लोक में मनुजी ने राजा के लिए आदेश किया है कि नालों से उतरने के लिए जो पुल बने हुए होते हैं उनको ध्वजायष्टिं नाम तालाब में जो जल नापने की लकड़ी होती है उसको और देवताओं की प्रतिमा को तोड़ने वालों को राजा दण्ड देवे॥ देखिए इन स्थानों पर भी देवमन्दिर का नाम होने के कारण प्रत्यक्ष मालूम होता है कि मूर्तिपूजा का प्रचार मनुजी के समय में विद्यमान था । प्रत्युत मनुजी को भी यह पक्ष - 4218 Salt स्वीकार था। "आर्य-महाशय ! देवमन्दिर में हम 'विद्वान् का स्थान' ऐसा अर्थ लेते हैं। मन्त्री आपको उत्तर दिया गया है कि आप देव शब्द का अर्थ विद्वान नहीं कर सक्ते हैं, और आपने यह वाक्य 'विद्रांसो वै देवाः ' शतपथब्राह्मणभाग से लिया है, और इस प्रमाण से ही देवता का अर्थ विद्वान करते हैं परन्तु इस शतपथ ब्राह्मणभाग नाम ग्रन्थ की ६ कंडिका में मत्स्य अवतारादिका विस्तार से वर्णन किया गया है। यदि आप शतपथ ब्राह्मण के प्रमाण से ही देवता का अर्थ विद्वान करते हैं तो आपको छठी कंडिका को भी मानना पड़ेगा, जिसमें अवतारों For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५९ ) की सिद्धि का वर्णन है । जब अवतारों को मानलिया तो मूर्ति का स्वीकार करना स्वयं ही सिद्ध होगया और मनुस्मृति के अध्याय ८ श्लोक २४८ से भी प्रत्यक्ष ज्ञात होता है कि देवता शब्द का अर्थ प्रत्येक स्थान पर विद्वान् नहीं हो सक्ता है। श्लोक यह है, यथा"तड़ागान्युदपानानि वाप्यः प्रश्रवणानि च सीमासन्धिषु कार्याणि देवतायतनानि च ॥इति। __ और देखिए, यजुर्वेद के १६ अध्याय के अष्टम मन्त्र में यह लिखा है ॥ यथानमस्ते नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मी डुषे अथो ये अस्य सत्वानो हन्तेभ्यो करन्नमः - मन्त्रार्थ-नीलग्रीवाय सहस्त्राक्षाय मदुिषे नमः अस्तु अथो अस्य ये सत्वानः तेभ्यः अहम् नमः अकरम्, इति मंत्रार्थः) भावार्थ-नीलकण्ठ सहस्त्रनेत्र से सब जगन को देखने वाले इन्द्ररूप वा विरारूप सेचन में समर्थ पर्जन्यरूप वा वरुणरूप रुद्र के निमित्त नमस्कार हो और इस रुद्र देवता के जो अनुचर देवता हैं उनको मैं नमस्कार करता हूं। देखिए इस श्रुति में हमार नेत्रवाला और श्याम ग्रीवा वाला" यह लेख ईश्वर के शरीर धारण करने को प्रत्यक्ष सिद्ध कर रहा है क्योंकि शरीर के विना नेत्र वा कण्ठ किसी प्रकार से नहीं हो सक्ते हैं। और देखिए, यजुर्वेद के १६ अध्याय के म मन्त्र में ऐसा लिखा है । यथा For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६० ) प्रमुख धन्वनस्त्वमुभयो राज्यों ाम् । याश्वतेहस्त इषवः पराता भगवो वप ॥ मंत्रार्थ--भगवः धन्वनः उभयोः आयोः ज्याम् त्वम् :मुञ्च च याः ते हस्ते इषवः ताः परावप। आषार्थ-हे परैश्चर्यसम्पन्न ! भगवन् ! आप धनुष की दोनों कोटिओं में स्थित ज्या को दूर करो (उतारलो) और जो आपके हाथ में बाण हैं उनको दूर त्याग दो, हमारे निमित्त सौम्य मूर्ति हो जाओ॥ - इससे भी ईश्वर शरीरधारी सिद्ध होता है, क्योंकि शरीर के विना हस्त और पादों का होना असम्भव है। और देखिए, यजुर्वेद के १६ अध्याय के २९ मन्त्र में ऐसे लिखा हैं। यथा ___नमः कपर्दिने च' इत्यादि अर्थ-इस मन्त्र में कपर्दी शब्द है उसका अर्थ 'जटाजूट धारी' को. नमस्कार हो ऐसे किया है । अब सोचना चाहिए कि जटा शिर के विना नहीं होसक्ती, इससे भी ईश्वर शरीर धारी सिद्ध हुआ ॥ ___ और देखिए, यजुर्वेद के ३२ आध्याय में ऐसा लिखा है। एषोहदेवः प्रदिशोऽनुसाः पूर्वोहजातः सउगर्भे अन्तः । सएव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यड्जना स्तिष्ठति सर्वतो मुखः॥ अर्थ-यह जो पूर्वोक्त पुरुष ईश्वर सब दिशा विदिशाओं में For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नानारूप धारण कर ठहरा हुआ है वही पहिले सृष्टि के आरम्भ में हिरण्यगर्भ रूपसे उत्पन्न हुआ और वही गर्भ में भीतर आया वही उत्पन्न हुआ और वही उत्पन्न होगा जो कि सबके भीतर अन्तःकरणों में ठहरा हुआ है और जो नाना रूप धारण करके सब ओर मुखों वाला होरहा है ॥ और भी देखो, यथा__ आयो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वषिकृणुषे पुरुणि,अथर्व० ५।२॥१॥२॥ ___ अर्थ-हे ईश्वर ! जिन आपने प्रथम सृष्टि के आरम्भ में धर्मों का स्थापन किया, उन्हीं आपने बहुत से वपु नाम शरीर अवतार रूपसे धारण किये हैं। वपु नाम शरीर का संस्कृत में प्रसिद्ध है। तथा'एह्यश्मानमातिष्ठाश्मा भवतु ते तनूः। अथर्व० २।१२।४। अर्थ-हे ईश्वर ! तुम आओ और इस पत्थर की मूर्ति में स्थित होओ और यह पत्थर की मूर्ति तुम्हारा तनू नाम शरीर बनजाए अर्थात् शरीर में जीवात्मा के तुल्य इस मूर्ति में ठहरो इसकी पुष्टि में उपनिषद् तथा ब्राह्मणभागादि के मिल सक्ते हैं। ___ और देखिए यजुर्वेद के १३ अध्याय के ४० मन्त्र में यह लिखा है । यथा. "आदित्यं गर्भ पयसा समाधि सहस्रस्यप्रतिमां विश्वरूपम् । परिवृधि हरसामाभिमं ७ स्थाः। शतायुषं कृणुहि चीयमानः" ॥ For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६२ ) इसका अर्थ यह है | सहस्रनाम वाला जो परमेश्वर है उसी की स्वर्णादि धातुओं से बनाई हुई मूर्ति को प्रथम अत्रि में डाल कर इसका मल दूर करना चाहिए, इसके बाद दूधसे उस परमात्मा की मूर्ति को धोना और शुद्ध करना चाहिए, क्योंकि शुद्ध और स्थापना की हुई मूर्ति पुरुष को दीर्घायुः और बड़ा प्रतापी बना सक्ती है । देखो, इस वेदपाठ से प्रत्यक्ष मूर्त्तिपूजा सिद्ध होती है । यदि अब भी आप न मानें, तो क्या किया जाए। फिर तो केवल आपका हर ही है । लो और सुनिए कि सामवेद के पाञ्च प्रपाठक के दशम खण्ड में लिखा है, कि --- (4 यदा देवतायतनानि कम्पन्ते देवताः प्रतिमा हसन्ति रुदन्ति नृत्यन्ति स्फुटन्ति खिद्यन्ति उन्मीलन्ति निमीलन्ति " || इस श्रुति का आशय यह है कि जिस राजा के राज्य में वा जिस समय में शयनावस्था में वा जागृतावस्था में ऐसा प्रतीत हो कि देवमन्दिर कांपते हैं तो देखने वाले को जरूर ही कोई कष्ट मिलेगा अथवा देवता की मूर्ति रोती नाचती अङ्गहीन होती आंखों को खोलती वा बन्दकरती दृष्टिगोचर हो तो समझना चाहिए, शत्रु की ओर से कोई कष्ट जरूर होगा । देखिए, इस श्रुति से भी प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि मूर्तिपूजा पूर्व भी थी, और वेदों में भी है । इसलिये आप मूर्तिपूजा को अयोग्य किसी प्रकार नहीं कह सक्ते हैं । और एक बात यह भी है कि आप 'लोक वेदी आदि बनाकर अग्नि में घृतादि उत्तम २ वस्तुएं डाल कर जलाते हैं (वा होम करते हैं ) इस पर हम यह कह सक्ते हैं * यह वैदिक धर्मीयों का मानना है ।। For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कि आप अग्निपूजक हो अथवा अग्नि को ईश्वर की स्थापना समझ कर पूजते हो ॥ - आर्य-नहीं जी नहीं,हम स्थापना नहीं समझते, हमारा तो यह ख्याल है कि होम करने से वायु शुद्ध होजाती है, जिसकी वासना जगत् में दर २ तक पहुंच जाती है और अशुद्ध वायु पवित्र होजाती है और लोक बीमारी से बच जाते हैं ॥ . मन्त्री-महाशय जी ! यदि ऐसा ही है तो वेदी इत्यादि बनाने की क्या आवश्यकता है और अमुक वर्ण हो और वेदी द्वादशाङ्गल प्रमाण हो इन बातों से क्या अभिप्राय है। सीधे साधे चूल्हे में ही इन वस्तुओं को जला लेवें सुगन्धि स्वयमेव विस्तृत हो जाएगी। और यदि यह बात स्वीकार भी की जावे, तो फिर आप अग्निहोत्र करते समय श्रुतिआं और मन्त्र इत्यादि क्यों पढ़ा करते हैं। वायु तो ऐसे ही वेदी में घृत इत्यादि वस्तु डाल कर जलाने से शुद्ध होसक्ती है । बस इससे मालूम होता है कि जैसे हमलोग ईश्वर की प्रशंसा में श्लोक पढ़ते हैं और मूर्ति की पूजा करते हैं वैसे ही आप भी ईश्वर की प्रशंसा में श्रुति पढ़ते और अग्निपूजा करते हैं और होम इत्यादि करने से तो आप लोग अग्निपूजक सिद्ध होते हैं। भेद केवल इतना है कि हमारी पूजा की सामग्री तो किसी पुजारी आदि के काम आजाती है और आपकी सामग्री भस्म होकर मृतिका में मिल जाती है । महाशय जी ! मूर्तिपूजा से आप लोग कदापि छूट नहीं सक्ते, और देखिए, कि आपके स्वामी दयानन्द जी के बनाए हुए सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि मनको दृढ़ करने के लिये पृष्ठकी अस्थि में ध्यान लगाना चाहिए । अब सभा को ध्यान For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६४ ) करना चाहिए कि भला परमात्मा की मूर्ति में ध्यान लगाने से तो परमात्मा में प्रीति आएगी, और उनके गुणों का स्मरण होगा परन्तु सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास में "शौचसन्तोष तपः स्वाध्यायेश्वर" इस योगसूत्र का अर्थ करते समय स्वामी दयानन्द जी ने लिखा है कि जब मनुष्य उपासना करना चाहे तो एकान्त देश में आशन लगाकर बैठे और प्राणायाम की रीति. से बाह्य इन्द्रयों को रोक मनको नाभिदेश में रोके वा हृदय कण्ठ नेत्र शिखा अथवा पीठ के मध्य हाड़में मनको स्थिर करे । इस . "हड्डीपूजा से तो मूर्तिपूजा"अच्छी है, पृष्ठकी अस्थि देखने वाले को या इसमें ध्यान लगाने वाले को क्या लाभ होसक्ता है। इस वास्ते आपको पृष्ठकी अस्थि को छोड़कर परमात्मा की मृत्ति में ध्यान लगाना चाहिए, क्योकि तुम्हारी पृष्ठका अस्थि से परमात्मा की मूर्ति सहस्रगुण लाभ पहुंचाने वाली है। ___इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि मूर्तिपूजा सर्वथा वेदानुकूल है तथा वैदिकमतानुयायिओं का आन्हिक कर्तव्य है अब एक दो उदाहरण इस बातके और दिखाए जाते हैं कि तुम लोगों के पूर्वज प्रतिमा पूजनको ठीक मानते रहे और उन्हों ने तदनुकूल आचरण भी किया ॥ महाभारत के आदिपर्व में एक उपाख्यान उस समय का मिलता है जबकि हस्तिनापुर में द्रोणाचार्य जी पाण्डव और कौरवों के अस्त्रशिक्षा देरहे थे उनकी प्रशंसा सुन कर प्रतिदिन अनेक क्षत्रिय उनके पास धनुर्वेदविद्या सीखने के लिए आते थे। 'ततो निषादराज्स्य हिरण्यधनुषः सुतः । एकलव्यो महाराज द्रोणमभ्याजगाम ह ।। For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६ ) न स तं प्रतिजग्राह नैषादिरित चिन्तयन् । शिष्यं धनुषि धर्मज्ञस्तेषामेवान्यवेक्षया ॥ स तु द्रोणस्य शिरसा पादौ गृह्य परन्तपः । अरण्यमनुसम्प्राप्य कृत्वा द्रोणं महीमयम् ।। तस्मिन्नाचार्य वृत्तिश्च परमामास्थितस्तदा। इध्वस्त्रेयोगामतस्थे परं नियममास्थितः ॥ परयाश्रद्धयोपेतो योगेन परमेण च । विमोक्षादानसन्धाने लघुत्वं परमाप सः ॥३५॥ महाभारत आदिपर्व अध्याय १३४ • इस अध्याय के ३० श्लोकों में एकलव्यके चरित्र का वर्णन है, जब द्रोणाचार्य की प्रशंसा दर २ तक फैल गई तो एक दिन निषदराज हिरण्यधनुषका पुत्र एकलव्य द्रोण के पास धनुर्विद्या सीखने के लिए आया, द्रोणाचार्य ने उसे शूद्र जान कर धर्नुर्वेद की शिक्षा न दी,तब वह मनमें द्रोणाचार्य को गुरु मान कर और उनके चरणों को छूकर बनमें चला गया, और वहां द्रोणाचार्य की एक मट्टी की मूर्ति बनाकर उसके सामने धनुविद्या सीखने लगा, श्रद्धा की अधिकता और चित्तकी एका ग्रता के कारण वह थोड़े ही दिनों में धनुर्विद्या में अच्छा निपुण होगया, एक वार द्रोणाचार्य के साथ कौरव और पाण्डव मृगया. खेलने के लिए बनमें गए, उनमें से किसी के साथ एक कुत्ता भी गया था, वह कुत्ता इधर उधर घूमता हुआ यहां जा निकला कि जहां एकलव्य धनुर्विद्या सीख रहे थे, कुसा उनको देखकर भौंकने लगा,तब एकलव्य ने सात तीर ऐसे मारें कि जिनसे कुत्ते For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का मुंह बन्द होगया, वह कुता पाण्डवों के पास आया, तर पाण्डवों ने इस अद्भुत रीति से मारने वाले को तलाश किया तो क्या देखते हैं कि एकलव्य सामने एक मट्टी की मूर्ति रक्खे हुए धनुर्विद्या सीख रहे हैं । अर्जुन ने पूछा महाशय ! आप कौन हैं, एकलव्य ने अपना नाम पता बताया और कहा कि हम द्रोणाचार्य के शिष्य हैं, अर्जुन द्रोणाचार्य के पास गये और कहा कि महाराज ! आपने तो कहा था कि हमारे शिष्यों में धनुर्विद्या में तुम्हीं सबके अग्रणी होंगे परन्तु एकलव्य को आपने मुझसे भी अच्छी शिक्षा दी है, द्रोणाचार्य ने कहा कि मैं तो किसी एकलव्य को नहीं जानता,चलो देखें कौन है । वहां जानेपर एकलव्य ने द्रोणाचार्य का पदरज मस्तक पर धारण किया और कहा कि आपकी मूर्ति की पूजा से ही मुझे यह योग्यता प्राप्त हुई है, आप मेरे गुरु हैं, द्रोणाचार्य ने कहा कि फिर तो हमारी गुरुदक्षिणा दो, एकलव्य ने कहा कि आप जो कहें सो मैं देने को सय्यार हूं, तब द्रोणाचार्य ने उसका अंगूठा दक्षिणा में मांगा, और एकलव्य ने देदिया, अंगूठा न रहने के कारण फिर एकलव्य में वैसी लापरता न रही और द्रोणाचार्य की प्रतिज्ञा भी पूर्ण हुई। देखिए पाठक ! द्रोणाचार्य की मूर्ति पूजा से ही एकलव्य अर्जुन-से धनुर्विद्या में उत्कृष्ठ होगया तो फिर जो लोग अहरहः देवपूजन करेंगे उनके कौनसे मनोरथ सिद्ध न होंगे ? अथ वाल्मीकीय रामायण (जिसे संस्कृत साहित्यमें आदि काव्य होने की महिमा मास है) को भी देख लीजिए, जिस समय मर्यादा पुरुषोतम रामचन्द्र जी रावणादि राक्षसों को मारकर पुष्पक Harivaneerinarur k heHAR ..* यह वैदिक लोकों का कहना है न कि हमारा ॥ For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६७ ) विमान द्वारा लोटे, तो सीता जी को उन्हों ने उन २ स्थानों का पता बताया कि जहां २ पर वे सीता जी के वियोग में धूमते रहे थे, रामचन्द्र जी कहते हैं कि एतत्तु दृश्यते तीर्थ सागरस्य महात्मनः । यत्र सागरमुत्तीर्य तां रात्रिमुषिता वयम् ॥ एष सेतुर्मया बद्धः सागरे लवणार्णवे । तव हेतो विशालाक्षि ! नलसेतुः सुदुष्करः ।। पश्य सागरमक्षोम्यं वैदेहिवरुणालयम् । अपारमिव गर्जन्तं शङ्खशुक्ति समाकुलम् ॥ हिरण्यनाभं शैलेन्द्रं काञ्चनं पश्य मैथिलि ! । विश्रामार्थ हनुमतो भित्त्वा सागरमुत्थितम् । एतत्कुक्षौ समुद्रस्य स्कन्धावार निवेशनम् ।। अत्र पूर्व महादेवः प्रसादमकरोद्धिभुः । एतत्तु दृश्यते तीर्थ सागरस्य महात्मनः ॥ सेतुबन्धं इतिख्यातं त्रैलोक्येन च पूजितम् । एतत्पवित्रं परमं महापातकनाशनम् ॥ इति रामचन्द्र जी कहते हैं कि हे सीते ! यह समुद्र का तीर्थ दीखता है जिस जगह हमने एक रात्रि को निवास किया था, यह जो सेतु दीखता है इसे नल की सहायता से तुझे मात करने के लिए हमने बांधा था । जस समुद्र को तो देखो जो वरुण देव का घर है कैसी ऊंची लहरें उठरही हैं जिसका ओर छोर नहीं दीखता. नाना प्रकार के जल जन्तुओं से भरे तथा शंख For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६८ ) 1. - और सीपों से युक्त इस समुद्र में से निकले हुए सुवर्णमय इस पर्वत को देख जो हनुमान के विश्रामार्थ सागर के वक्षःस्थल को फाड़ कर उत्पन्न हुआ है । यहीं पर विभु व्यापक महादेवजी ने हमें वरदान दिया था, यह जो महात्मा समुद्र का तीर्थ दीखता है इसका नाम सेतुबन्ध है और तीनों लोकों से पूजित है, यह परम पवित्र है और महा पातकों को नाश करने वाला है । इन अन्तिम दो लोकों पर बाल्मीकि रामायण के टीकाकार लिखते हैं कि:सेतोर्निर्विघ्नता सिद्ध्यै समुद्रप्रसादानन्तरं शिवस्थापनं रामेण कृतमिति गम्यते कूर्मपुराणे रामचरिते तु अस्थाने स्पष्टमेव लिङ्गस्थापनमुक्तं त्वत्स्थापितलिङ्गदर्शनेन ब्रह्महत्यादिपापक्षयो भविष्यतीति महादेववरदानं च स्पष्टमेवोक्तं, सेतुं दृष्ट्वा समुद्रस्य ब्रह्महत्यां व्यपोहतीतिस्मृतेः " ॥ 66 अर्थ- सेतु निर्विघ्न पूर्ण हो एतदर्थ रामचन्द्र जी ने समुद्रप्रसादानन्तर यहां शिवमूर्ति का स्थापन और पूजन किया था, कूर्म पुराण में तो इस प्रकरण में रामचन्द्रजी का लिङ्गस्थापन और महादेवजी के वरदान का स्पष्ट वर्णन है तुम्हारे स्थापित The हुए शिवमूर्ति के दर्शन करने से ब्रह्महत्यादि पापों का क्षय होगा, और स्मृति में भी लिखा है कि समुद्र का सेतुदर्शन करने से महा पातकों का नाश होता है ॥ महाराज दशरथ जिस समय रामचन्द्रजी के वियोग में मृत्युङ्गत होगए थे तब भरतजी अपनी ननसाल में थे उनके बुलाने के लिए दूत भेजा गया जिस समय भरतजी अयोध्या के समीप पहुंचे तो उन्होंने अनेक अशुभ चिन्ह देखे, वे कहते हैं, यथा For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org "" ( ६१ ) देवागाराणि शून्यानि नभान्तीह यथा पुरा । देवताचीः प्रविद्धाश्व यज्ञगोष्ठास्तथैव च " ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-देवताओं के मन्दिर शून्य दीखते हैं, आज वैसे शोभायमान नहीं हैं जैसे पहिले थे । प्रतिमाएं पूजारहित हो रही हैं उनके ऊपर धूप दीप पुष्पादि चढ़े नहीं देखते, यज्ञों के स्थान भी यज्ञकार्य से रहित हैं । इन सब प्रमाणों से स्पष्ट प्रकट है कि मूर्तिपूजा सनातन है, त्रेता और द्वापर तक का जो वृत्तान्त मिलता है उनसे स्पष्ट प्रकट है कि यहां बड़े २ देवमन्दिर थे, जिनमें निस पूजा होती थी, विद्वान् पूजा करते थे ॥ हे महाशय जी ! अब तनक ध्यान तो करो कि जब आप के पूर्वज प्रतिमा का पूजन करके प्रत्यक्ष फल प्राप्त कर गए हैं, यदि आप भी मूर्तिपूजन करेंगे तो आपकी अभिलाषा अवश्य ही पूर्ण तो होजाएगी और निःसन्देह सुख प्राप्त होगा ॥ आर्य-मला श्रीमन् ! मूत्ति को तो इसप्रकार से “ कि इससे ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होता है " मानलिया, और यह समझकर परमात्मा की मूर्ति का सम्मान भी किया और सिर भी झुकाया, परन्तु इस पर फूल फल के सर चंदन धूप दीप चावल और मिठाई इत्यादि चढाने से क्या तुम्हारा लाभ है ? | मन्त्री - महाशय जी ! क्योंकि वस्तु के विना भाव नहीं आरक्ता, इस वास्ते भगवान की मूर्ति पर उक्त वस्तुओं का चढ़ाना आवश्यक है और ऊपर लिखित वस्तु चढ़ाते समय नीचे लिखी हुई भावना करते हैं | For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७० ) (फल) फूल चढ़ाते हुए हम यह भावना करते हैं कि हे भगवन् ! हे प्रभो ! यह जो फूल हैं सो कामदेव के वाण (काम को बढ़ाने वाले ) हैं । मैं अनादि काल से मांसारिक विषयों में मन हूँ । आप वीतराग हैं और आपने कामदेव को भी पराजय किया है इसलिए मैं इन फूलों को आपके लिए अर्पण करके प्रार्थना करता हूं कि यह कामदेव के बाण “जो अनादि काल से हमको क्लेश दे रहे हैं" तेरी भक्ति के कारण से आगामि काल में दुःख न देवें ॥ महाशयजी ! भगवान की मूर्ति के आगे अच्छे और पवित्र फल रखकर हम यह प्रार्थना करते हैं कि हे भगवन् ! मुझको आपकी भक्ति का मुक्तिरूप फल प्राप्त हो । (केशर वा चन्दन) ___ इनके चढ़ाते समय हम यह भावना करते हैं कि हे भगवन् ! जैसे इनकी वासना से दुन्धि की वासना दूर होती है तथैव तुम्हारी भाक्ति की वासना से हमारी भी बुरी अनादि वासना दूर होवे ॥ . (धूप) महाशय ! धूपदेने के समय हम ऐसी भावना करते हैं कि हे प्रभो ! जैसे धूप अग्नि में जलता है ऐसे ही आपकी भक्ति से मेरे सब पाप जलकर भस्म होजाएं, और जैसे धूम्रकी ऊर्द्ध गति होती है वैसे ही मेरी भी ऊर्द्ध गति होवे अर्थात् मोक्ष हो । (दीपक) महाशयजी! निस्सन्देह हम घृतसे दीपक जलाकर परमात्मा की मूर्ति के आगे रखते हैं और हम इससे यह भावना करते For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १ ) हैं कि हे भगवन् ! जैसे दीपक के प्रकाश होने से अन्धकार दूर होजाता है ऐसे ही आपकी भक्ति से मेरे घट में भी केवलहान (ब्रह्मज्ञान) रूप प्रकाश होवे, ताकि मेरा भी सर्व अज्ञानरूपी अन्धकार दूर होजाय । (चावल) जिनको संस्कृत में अक्षत कहते हैं, इनके चढ़ाते समय यह भावना करते हैं कि हे भगवन् ! हे प्रभो ! अक्षतपूजा से मुझे भी अक्षत सुखकी प्राप्ति हो ॥ (मिठाई पकवान इत्यादि) इनसे हम यह भावना करते हैं कि हे भगवन् ! मैं अनादिकाल से ही इन पदार्थों का भक्षण करता आया हूं परन्तु मेरी तृप्ति न हुई । इसलिए मैं यह पकान्न आपको अर्पण करके प्रार्थना करता हूं कि मैं भी आपकी भक्ति के प्रताप द्वारा इन पदार्थों से तृप्त होजाउं (मुक्त होजाउं) ऐप्यारे ! हम अपने दूसरे हिन्दु भाइयों की तरह भोग नहीं लगाते हैं, प्रत्युत हम उपर लिखित आठ प्रकार की वस्तु को (कि जिन में संसार के सर्व प्रकार के हर्षकी सामग्री आजाती है, और जिनको हम अष्टद्रव्य कहते हैं) भगवान की मूर्ति के आगे अर्पण करके ऊपर लिखित भावना करते हैं, अथवा यह प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मन् ! मुझको संसार की यह अष्ट वस्तु मोहवश कर रही हैं और आपने तो उन सबका त्याग किया है, आप वीतराग हो, इसलिये आपकी भक्ति से मेरी भी इनसे मुक्ति हो, और मुझको भी आप जैसा शान्ति और वैराग्यभाव उत्पन्न हो, महाशयजी ! आपको विदित हो कि यह पकान इत्यादि हम ईश्वर को भक्षण For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कराने के लिए नहीं चढ़ाते, प्रत्युत अपनी भलाई और लाभ के वास्ते तैय्यार करते हैं और ईश्वर की मूर्ति के आगे रखके केवल यह प्रार्थना करते हैं कि हे भगवन् ! जिस तरह आपने इनका त्याग किया है मुझको भी इनसे छुड़ाकर आप मुक्ति का दान देवें। आर्य-क्यों जी ! आपका तो यह कहना है कि ईश्वर कुछ नहीं कर सक्ता और न कुच्छ देसक्ता हैं तो फिर यह प्रार्थना करनी कि हे ईश्वर ! हमको मुक्ति दे, हमारे दुःख दूरकर इत्यादि २ व्यर्थ है। _मन्त्री-महाशय जी ! ईश्वर परमात्मा तो वस्तुतः वीतराग है प्रशंसा करने से प्रसन्न और निन्दा करने से क्रोधित नहीं होता, न किसी को कुछ देता है, न किसी से कुछ लेता है, प्रत्युत यह तो केवल अपने भावही का फल है। प्रत्यक्ष सिद्ध है कि बुरी भावना से हमारी आत्मा मलीन होजाती है, और शुभ भावना से हमारे अशुभ कम्मों का नाश होता है, और क्योंकि ईश्वर का प्रशंसा करने या ध्यान करने से हमारे हृदय में शुद्ध परिणाम आजाता है, और उनका हमें अच्छा फल मिलता है, इसवास्ते जानना चाहिये कि इंश्वर ने ही हमें यह फल दिया है, क्योंकि ईश्वरनिमित्त होने से ही हमारा भाव अच्छा होता है जिसके कारण से हमें श्रेष्ठ फल मिलता है। अब प्रत्यक्ष सिद्ध है कि यह श्रेष्ठ फल ईश्वर के निमित्त होने के कारण से हमकों मिला न कि ऐसे इस तरह कहा जासक्ता है कि यह फल ईश्वर ने हमको दिया है, परन्तु तुम्हारे ईश्वर की तरह 'कि परमात्मा ही सब कुच्छ देता है' कदापि नहीं माना जासक्ता । और न ही हम ऐसा मान सक्ते हैं क्योंकि ईश्वर तो वीतराग है उसे लेने For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७३ ) देने को कुच्छ आवश्यकता नहीं है और यदि उसे भी लेने देने की इच्छा है तो वह ईश्वर ही न रहा, तब तो हमारे जैसा . ही समझना चाहिए। पाठकगणो ! इस विषय में पुस्तक बढ़ने के भय से अधिक नहीं लिखा गया, यदि आपको सम्यक् प्रकार से इस विषय के देखने की इच्छा हो तो आप चिकागु प्रश्नोत्तर जसवंतराय जैनी लाहौर से मंगवा कर पढ़ लेवें। * प्यारे ! एक बात मैं आपको और सुनाता हूं जो कि समझने के लायक है। स्मरण रखना चाहिए कि जिनेश्वरदेव की मूर्ति सर्वदैव रागद्वेष से पृथक् और अन्य मतानुयायियों की मूर्तियां सांसारिकविषययुक्त प्रतीत होती हैं। किसी की मूर्ति के साथ स्त्री की मूर्ति है किसी मूर्ति के हाथ में शस्त्र है,किसी मूर्तिके हाथ में जपमाला है किसी के हाथ में कमण्डलु है और कोई मूर्ति वृषभ पर आरूढ़ है और कोई गरुड़पर इत्यादि२॥यह सर्व अवस्थाएं सांसारिक हैं जिनमें मनुष्य अनादिकाल से ही प्रतिदिन लगा हुआ है, परन्तु मुक्ति का मार्ग सांसारिक दशाओं में लगे रहने से नहीं मिलता है प्रत्युत इसके त्याग करने से प्राप्त होसक्ता है इसलिए मप्तीद और मन्दिर इत्यादि में सांसारिक दशा के प्रतिकूल समझाने वाले कारणों का होना आवश्यक है । जैसा कि जैनियों की मूर्तियां शान्त दान्त निर्विकारी स्त्रीरहित निःस्पृह किसी वाहन के बिना रागद्वेष से विमुख होती हैं। यह बात निसंदेह है जैसा कोई होता है उसकी मार्त भी वैसी ही हुआ करती है। विचार करना चाहिए कि जिसकी मूर्ति के साथ स्त्री की ___ * इसी को जीरा जिला फिरोजपुर निवासी लाला राधा मल के पुत्र लाला नत्थूराम जी ने उर्दू में छपवाया है, उर्दू जानने वाले महाशय उन से मंगवा कर पढ़ सकते हैं। For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७४ ) मातमा होगी, वह आश्य कामी होगा। वर्तमान काल में कोई मनुष्य गुरु या पार होकर स्त्रीको साथ रखे तो लोग उसको अच्छा नहीं समझते , तो फिर जो परमेश्वर होकर स्त्री को साथ रक्खे, वह वीतराग परमात्मा कैसे होसक्ता है ? कदापि नहीं हो सक्ता । और जिसके पास चक्र, त्रिशूल, धनुर्वाण या तलवार, इत्यादि शस्त्र हो तो उसको अवश्य कोई भय होगा, या किसी शत्रुके मारने का संकल्प होगा, क्योंकि आवश्यकता के विना शस्त्रों का रखना मूर्खता को प्रकट करता है। यदि कहा जावे कि वह अपने महत्व के लिए शस्त्र रक्खता है तो वह ईश्वर परमा: स्मा ही नहीं होसक्ता, क्योंकि ईश्वर को दर्शनीयता और महत्व की कोई आवश्यकता नहीं, इसवास्ते जिस मूर्ति के साथ शस्त्र होवें वह पूजने के अयोग्य होती है। और जिसके हाथ में माला है, वह किसी दूसरे का जप करता होगा परन्तु ईश्वर परमात्मा ने किसका करना था, क्योंकि इससे बड़ा और कोई है नहीं, कि जिसका यह जपन करे, इसवास्ते माला वाली मूर्ति भी पूजने के योग्य नहीं है। और जिस मूर्तिका वाहन है, वह भी दूसरों को दुःख दाता है, परन्तु ईश्वर परमात्मा तो दयालु है किसी को दुःख नहीं देता । इसवास्ते सवारी वाली मूत्ति भी पूजने के योग्य नहीं। जिसके पास कमण्डलु है वह भी किसी आवश्यकता के लिए होगा परन्तु ईश्वर परमात्मा को किसी की आव: श्यकता नहीं है, इसलिए कमण्डलु वाली मूर्ति भी पूजने के योग्य नहीं । अन्त में सभा को विचार करना चाहिए, क्या ऐसी मूर्तियां देखकर ध्यान और भाव शुद्ध होसक्ते हैं ? कदापि नहीं। प्रत्युत ऐसी मूर्तियां देखकर तो उनके इतिहास स्मरण For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७५ ) हो जाते हैं, कि उन्हों ने ......................ऐसे २ काम किए थे, इसलिए ऐसी मूर्तियों की पूजा कदापि न करनी चाहिए, पूजा के लिए शान्त दान्त निर्विकार मूर्ति होनी चाहिए। अब हम नीचे एक श्लोक लिखते हैं बुद्धिमान इस श्लोक से सर्व परिणाम निकाल सक्ते हैं। यथा "स्त्रीसंगः काममाचष्टे द्वेषं चायुधसंग्रहः। व्यामोहं चाक्षसूत्रादि रशौचञ्च कमण्डलुः" । अर्थ इसका यह है-कि स्त्री की जो सङ्गति है सो काम का चिन्ह है और जो शस्त्र हैं सो द्वेषका चिन्ह हैं, और जो जपमाला है सो व्यमोह का चिन्ह है, और जो कमण्डलु है सो अपवित्रता का चिन्ह है, इसलिए मूर्ति शान्त दान्त निर्विकार होनी चाहिए, और ऐसी ही स्वीकार करने योग्य है । ऐसी अच्छी बातको सुनकर और निरुत्तर होकर सब चुप होगए। मन्त्री राजा की तरफ देखकर बोला, कि महाराज ! अबतो आप को अच्छी तरह से मालूम होगया होगा कि मूर्तिपूजा से कोई मत खाली नहीं । राजा साहिब ने कहा कि हे मतिमन् ! मन्त्रिन् ! यह बात सर्वदैव सत्य है, मुझको अच्छी तरह से निश्चय होगया है कि व्यर्थ ही दूसरे मन्त्री ने मेरा ख्याल बदला दिया था, परन्तु अब यह ख्याल 'कि मूर्ति हमें कुच्छ लाभ नहीं दे सक्ती' सत्य नहीं है । मैं आपको हृदय से धन्यवाद देता हूं कि आप सन्मार्ग से भूले हुए मुझको अच्छे मार्ग पर लाए हैं, समय बहुत व्यतीत होगया है इसलिए सभामण्डल को आज्ञा है कि सब आदमी अपने २ घरों को जावें और सभा का विसर्जन किया जाए। रात्रि को जब राजा जी सोगए तो निद्रा में मूर्ति के ही स्वप्न For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७६ ) आने लगे और जब निद्रा से जागे तो भी यह ख्याल था कि कब प्रातःकाल हो और मैं जिनेश्वरदेव जी महाराज की उपासना करूं । जब प्रातःकाल हुआ राजा जी निद्रा से विमुक्त हुए तो पुरीपोत्सर्ग से नित्त होकर और स्नानादि करके अष्टद्रव्य लेकर जिनेश्वरदेव की पूजा भक्ति में प्रवृत्त हुए। सज्जन पुरुषो! इस दृष्टान्त के सुनने से आप को अच्छी तरह प्रतीत होगया होगा कि मूर्तिपूजा से कोई भी मत खाली नहीं है। राजा जिज्ञासु की तरह आप को आत्मा के कल्याण करने वाली जिनमूर्ति का पूजन करना चाहिए। ___ पाठक गणो ! अब मैं अपने लेख को समाप्त करता हूं क्योंकि बुद्धिमानों को तो इतना ही कहना बहुत है, और साथ ही प्रार्थना करता हूं कि मेरा यह लेख किसी महाशय को न रुचे वा इस से किंचित् अप्रसन्नता हो, तो मैं उनसे क्षमा चाहता हूं, यथोक्तंच खामेमि सब जीवे सब्वे जीवा खमंतु मे मित्तीमे सव्व भएसु वेरं मझ न केणइ ।। ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः !!! इति श्रीमद्विजयानन्दसूविर्याणां शिष्य श्रीमन्महोपाध्याय श्रीलक्ष्मीविजयानां शिष्य श्रीमद्विजयकमलसूरीश्वराणां शिष्यमुनिलब्धिविजयेन विरचितमिदं मूर्तिमंडन नाम पुस्तकं समाप्तिमगमत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिलने के पतेः-- (१) ज्याहरलाल जैनी, सकन्दराबाद, यू. पी. (२) श्रीआत्मानन्द पुस्तकप्रचारकमंडल, छोटा दरीबा, दिल्ली। (३) श्रीआत्मानन्दजैनसभा, भावगनर । ( ४ ) लाला नत्थूराम जैनी, जीरा जिला फिरोजपुर (५) बाबू चेतनदासजैनी, मुलतान शहर । For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RAHARASHTRA Barallocatinocarcacanc NCR - AR अर्हम् पर्युषणा-विचार। - - O लेखक OCTOCOCROCHA मुनि विद्याविजयजी H Accococc A प्रकाशक ce" उदयराज कोचर (फलोधी) चन्द्रप्रभा प्रेस बनारस सिटी। MAAYS वीर सं. २४३५। काव 90 For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar अहम् पर्युषणा-विचार। आत्मकल्याणाभिलाषी भव्यजीव निर्मूलता समूलता का विचार छोड़ अपनी परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकृत्यों को करते हैं, और धर्मिष्ठ पुरुषों को देखकर खुशी होते हैं, तथा त्यागीवर्ग पर प्रेम दिखलाते हैं। किन्तु खेद इतनाही है कि पक्षपाती जन परस्पर निन्दादि अकृत्यों में प्रवर्तमान होकर सत्य धर्म की अवहीलना (तिरस्कार) करते हैं। यह बात क्या शासनरसिकों के मन में सर्वथा अनुचित नहीं मालूम होती ? । वर्तमान समय में केवलज्ञानी अथवा मनःपर्ययज्ञानी की तो बात ही क्या ? अवधिज्ञानी भी कोई दृष्टिगोचर नहीं होता । अवधिज्ञानी भी दूर रहा, मतिज्ञान का भेदस्वरूप जातिस्मरणज्ञानवाला भी कोई दीखता नहीं । रहे केवल क्षयोपशमिकमतिज्ञानवान और श्रुतज्ञानवान् पुरुष, वे युक्ति प्रयुक्ति द्वारा अपने २ मन्तव्य के स्थापन करने के लिये आभिनिवेशिकमिथ्यात्व सेवन करते हुए मालूम पड़ते हैं । सिद्धान्त का रहस्य ज्ञात होने पर भी एकांश को आगे करके असत्य पक्ष का स्थापन For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और सत्य पक्ष का निरादर करने के लिये कटिबद्ध होकर प्रयत्न करते दिखाई पड़ते हैं । जैसे दृष्टान्त यह है कि "तत्र वार्षिक पर्व भाद्रपदसितपञ्चम्यां, कालिकसूरेरनन्तरं चतुर्थ्यामेवेति” अर्थात् भाद्रपद सुदी पञ्चमी का साम्वत्सरिक पर्व था पर युगप्रधान कालिकाचार्य के समय से चतुर्थी में वह पर्व होता है । ऐसे सुस्पष्ट अक्षरों का दर्शन रहते भी “वासाणं सवीसइराइ मासे वइक्कते, सत्तरिएहिं राइदिएहिं सेसेहि" इत्यादि समवायाङ्ग सूत्र के पाठ का पूर्वभाग “सवीसइ राइमासे वइकते" पकड़कर उत्तर पाठ की क्या गति होगी इसका विचार न रख मूलमन्त्र को अलग छोड़कर दूसरे श्रावण के सुदी में पर्युषणापर्व के पांच कृत्य "संवत्सरप्रतिक्रान्तिलृञ्चनं चाष्टमं तपः । सर्वार्हद्भक्तिपूजा च सङ्घस्य क्षामणं मिथः” ॥ १ ॥ (अर्थात् १ सांवत्सरिक प्रतिक्रमण, २ केशलुञ्चन, ३ अष्टमतपः, ४ सर्व मन्दिर में चैत्यवन्दन पूजादि, ५ चतुर्विध संघ के साथ क्षमापणा) करते हैं और भक्तों को कराते हैं । वस्तुतः तो भगवान् की आज्ञा के आराधक भव्यजीवों पर कल्पित दोषों का आरोप करके अपने भक्तों को भ्रमजाल में फंसाकर संसार बढ़ाते हैं। उन जीवोंपर भाव दया लाकर सिद्धान्तानुसार परोपकार दृष्टि से पर्युषणाविचार लिखा For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाता है। उत्तमरीति से उपदेश करते हुए यदि किसी को रागद्वेष की प्रणति हो तो लेखक दोष का भागी नहीं है क्योंकि उत्तमरीति से दवा करनेपर भी यदि रोगी के रोग की शान्ति न हो और मृत्यु हो जाय तो वैद्य के सिर हत्या का पाप नहीं है । परि. णाम में बन्ध, क्रिया से कर्म, उपयोग में धर्म, इस न्यायानुसार लेखक का आशय शुभ है तो फल शुभ है ॥ अधिक मास को लेखा में गिनकर पर्युषणापर्व करनेवाले महानुभावों को नीचे लिखे हुए दोषों पर पक्षपात रहित विचार करमे की सूचना दी जाती है । प्रथम दोष । आषाढ़ चौमासी वाद पचास दिन के भीतर पर्युषणापर्व करे इस नियम की रक्षा करते हुए तत्तुल्य दूसरे नियम का सर्वथा भङ्ग होता है, क्योंकि पचासवें दिवस संवत्सरी, और उसके पीछे सत्तरवें दिन चौमासी प्रतिक्रमणा करके पीछे मुनिराज को विहार करना चाहिये। यदि दूसरे श्रावण में सांवत्सरिक कृत्य करोगे तो सौ दिन बाकी रहेंगे तब सत्तर दिन का नियम कैसे पालन किया जायगा इसका विचार करो । दूसरा दोष । भाद्रसुदी में पर्युषणापर्व कहा हुआ है तत्संबन्धी पाठ आगे कहेंगे । अधिक मास मानने वाले दूसरे For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रावण सुदी में पर्युषणापर्व करते हैं शास्त्रानुकूल न होने से आज्ञाभङ्ग दोष है। तीसरा दोष। अधिक मास के माननेवालों को चौमासी क्षमापना के समय “पंचण्हं मासाणं दसण्हं पक्खाणं पञ्चासुत्तरसयराइंदिआणमित्यादि" और सांवत्सरिक क्षमापना के समय "तेरसण्हं मासाणं छव्वीसण्हं पक्खाणं” पाठ की कल्पना करनी पड़ेगी। यदि ऐसा करोगे तो कल्पित आचार होने से फल से वञ्चित रहोगे, क्योंकि शास्त्र में तो “चहुण्हं मासाणं अट्ठाहं पक्खाणं” इत्यादि, तथा “बारसण्हं मासाणं चउवीसण्हं पक्खाणं" इत्यादि पाठ है इसके अतिरिक्त पाठ नहीं है। उसके रहनेपर यदि नई कल्पना करोगे तो कल्पनाकुशल, आज्ञा का पालनकरनेवाला है या नहीं, यह पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं । और दूसरी बात यह है कि किसी समय सोरह (१६) दिन का पक्ष होता है और कभी चौदह दिन का पक्ष होता है उस समय ‘एक पक्खाणं पन्नरसण्हं दिवसाणं' इस पाठ को छोड़कर क्या दूसरी पाठ की कल्पना करते हो ? यदि नहीं करते तो एक दिन का प्रायश्चित्त बाकी रह जायगा। जैसे तुह्मारे मत में “चउण्हं मासाणं” इत्यादि पाठ कहने से अधिक मास का प्रायश्चित रह जाता है । यदि पाठ की नयी कल्पना करोगे तो क्या आज्ञाभङ्ग होने में For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ शङ्का रहेगी ?। अब लौकिक व्यवहार पर चलिए. लौकिक जन आधिक मास में नित्य कृत्य छोडकर नैमित्तिक कृत्य नहीं करते । जैसे यज्ञोपवीतादि, अक्षयतृतीया, दीपालिका इत्यादि, दिगम्बर लोग भी अधिक मास को तुच्छ मानकर भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी से पूर्णिमा तक दशलाक्षणिक नाम पर्व मानते हैं। अधिकमास संज्ञी पञ्चेन्द्रिय नहीं मानते, इसमें कोई आश्वर्य नहीं है क्योंकि एकेन्द्रिय वनस्पति भी अधिक मास में नहीं फलतीं । जो फल श्रावण मास में उत्पन्न होनेवाला होगा वह दूसरेही श्रावण में उत्पन्न होगा न कि पहिले में । जैसे दो चैत्र मास होंगे तो दूसरे चैत्र में आम्रादि फलेंगे किन्तु प्रथम चैत्र में नहीं । इस विषय की एक गाथा आवश्यकनियुक्ति के प्रतिक्रमणाध्ययन में यह है "जइ फुल्ला कणिआरया चूअग! अहिमासयंमि घुटुंमि । तुह न खमं फुल्लेउं जइ पञ्चंता करिति डमराई" ॥१॥ अर्थात् अधिकमास की उद्घोषणा होनेपर यदि कर्णिकारक फूलता है तो फूले, परन्तु हे आम्रवृक्ष ! तुमको फूलना उचित नहीं है, यदि प्रत्यन्तक (नीच) अशोभन (कार्य) करते हैं तो क्या तुम्हें भी करना चाहिये ?, सज्जनों को ऐसा उचित नहीं है। इस बात का अनुभव पाठकवर्ग करें यदि अभ्यास For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की सफलता हो तो जैसे कुशाग्रबुद्धि आज्ञानिबद्ध हृदय आचार्यों ने अधिकमास को गिनती में नहीं लिया है उसी तरह तुम्हें भी लेखा में नहीं लेना चाहिये । जिससे पूर्वोक्त अनेक दोषों से मुक्त होकर आज्ञा के आराधक बनोगे । वादी की शङ्का यहां यह है कि अधिक मास में क्या भूख नहीं लगती, और क्या पाप का बन्धन नहीं होता, तथा देवपूजादि तथा प्रति. क्रमणादि कृत्य नहीं करना ? । इसका उत्तर यह है कि क्षुधावेदना, और पापबन्धन में मास कारण नहीं है, यदि मास निमित्त हो तो नारकी जीवों को तथा अढाईद्वीप के बाहर रहनेवाले तिर्यञ्चों को क्षुधावेदना तथा पापबन्ध नहीं होना चाहिये । वहाँ पर मास पक्षादि कुछ भी काल का व्यवहार नहीं है । देवपूजा तथा प्रतिक्र. मणादि दिन से बद्ध है मासबद्ध नहीं है। नित्यकर्म के प्रति अधिक मास हानिकारक नहीं है, जैसे नपुंसक मनुष्य स्त्री के प्रति निष्फल है किंतु लेना लेजाना आदि गृहकार्य के प्रति निष्फल नहीं है उसीतरह अधिकमास के प्रति जानों। जैन पञ्चाङ्गानुसार तो एकयुग में दो ही अधिक मास आते हैं अर्थात् युग के मध्य में आसाढ़ दो होते हैं और युगान्त में दो पौष होते हैं । दो श्रावण, दो भाद्र, और दो आश्विन वगैरह नहीं होते । इस भाव की सूचना देने वाली पाठ For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीचे लिखी हुई देखोः" जइ जुग मज्झे तो दो पोसा जइ जुग अन्ते दो आसाढा" यद्यपि जैन पञ्चाङ्ग का विच्छेद होगया है तथापि युक्ति और शास्त्रलेख विद्यमान हैं । किन्तु लौकिक पञ्चा. ङ्गानुसार अधिक मास को भी लेखा में गिननेवाले महाशयों से पूछता हूँ कि यदि आश्विन दो होंगे तो साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणानन्तर सत्तरवें दिन में चौमासी प्रतिक्रमण करोगे कि नहीं, यदि नहीं करोगे तो समवायाङ्ग सूत्र के पाठ की क्या गति होगी ? । अगर चौमासी का प्रतिक्रमण करोगे तो दूसरे आश्विन सुदी पूर्णमासी के पीछे विहार करना पड़ेगा। आश्विन मास को लेखा में न गिनकर सत्तर दिन कायम रक्खोगे तो श्रावण अथवा भाद्रमास को लेखा में न गिनकर पचास दिन कायम रखकर भगवान् की आज्ञा के अनुसार भाद्र सुदी चौथ के रोज साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण क्यों नहीं करते ? । कदाचित् ऐसा कहो कि चौमासे की मर्यादा आसाढ सुदी चतुर्दशी से कार्तिक सुदी चतुर्दशी तक बांधी हुई है तो वह वहां ही पूरी होगी अन्यत्र नहीं होसकेगी, तो पर्युषणापर्व की मर्यादा कालिकाचार्य महाराज से भाद्रपद सुदी चौथही को बंधी हुई है वह कैसे बनेगी क्योंकि पर्युषणाकल्पचूर्णि, तथा महानिशीथचूर्णि के दसवें For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्देशे में इसी तरह का पाठ है, उसे देखो और विचारो। " अन्नया पजोसवणादिवसे आगए अन्जकालगेण सालवाहणो भाणिओ, भदवयजुण्हपञ्चमीए पज्जोसवणा-" इत्यादि । तथा “ तत्थ य सालवाहणो राया, सो अ सावगो, सो अ कालगजं इंतं सोऊण निग्गओ, अभिमुहो समणसंघो अ, महाविभूईए पविट्ठो कालगन्जो, पविट्ठहिँ अ भाणिअं, भद्दवयसुद्धपंचमीए पज्जोसविजइ, समणसंघेण पडिवण्णं, ताहे रण्णा भणिअं, तदिवसं मम लोगानुवत्तीए इंदो अणुजाणेयव्वो होहित्ति साहू चेइए अणुपज्जुवासिस्सं, तो छट्ठीए पजोसवणा किजइ, आयरिएहिं भणिअं, न वइति अतिक्कमितुं, ताहे रण्णा भणिअं, ता अणागए चउत्थीए पज्जोसविजति, आयरिएहिं भणिअं, एवं भवउ, ताहे चउत्थीए पजोसवियं, एवं जुगप्पहाणेहिं कारणे चउत्थी पवत्तिआ, सा चेवाणुमता सव्वसाहूणमित्यादि। ऊपर की पाठ साक्षात् सूचित करती है कि भाद्र सुदी चौथ को साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण वगैरह करना चाहिये । किन्तु जब दो श्रावण आवे तो श्रावण सुदी चौथ के रोज साम्वत्सरिक कृत्य करे ऐसा तो पाठ कोई सिद्धान्त में नहीं है तो आग्रह करना क्या ठीक है ? । दो भाद्र आवे तो किसी तरह पूर्वोक्त पाठ का समर्थन करोगे परञ्च सत्तर दिन में चौमासी प्रतिक्रमण करना चाहिये इसबात का समर्थन नहीं करसकते और अपनी प्रवृत्ति के विरोध को रोक नहीं सकते । जैसे फाल्गुन और आषाढ की वृद्धि होनेपर दूसरे फाल्गुन और दूसरे आषाढ में For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौमासी प्रतिक्रमणादि करते हो, उसी तरह अन्य अधिक मास में भी दूसरे ही में करना वाजिब है। वैसा नहीं करोगे तो विरोध के परिहार करने में भाग्यशाली नहीं बनोगे । एक अधिकमास मानने में अनेक उपद्रव खड़े होते हैं और अधिक मास को गिनती में न लेनेवाले को कोई दोष नहीं है । उसी तरह तुमभी अधिक मास को निःसत्त्व मानकर अनेक उपद्रव रहित बनो। और उमास्वाति महाराज के वचन पर कौन भव्य श्रद्धावान् नहीं होगा; देखो महापुरुष के युक्तियुक्त वाक्य को “क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धा कार्यातथोत्तरा" अर्थात् अष्टमी का क्षय हो तो सप्तमी का क्षय करना और दो अष्टमी हो तो दो सप्तमी करना, तथा दो चतुर्दशी हो तो दो तेरस करना । इस न्याय को नहीं माननेवाले तिथि के विराधक हैं। दो अष्टमी, दो चतुर्दशी के माननेवाले को अष्टमी और चतुर्दशी का क्षय मानना पड़ेगा। कदाचित् तिथि का क्षय जैनपञ्चाङ्ग के प्रमाण से नहीं होता ऐसा मानोगे तो जैन पञ्चाङ्ग के प्रमाण से तिथि बढ़ती भी नहीं है ऐसा मानने में क्या प्रतिबन्ध है । इस रीति की व्यवस्था रहते हुए कदाग्रह न छूटे तो भले स्वपरम्परा पालो परन्तु स्वमन्तव्य में विरोध न आवे ऐसा वर्तावकरना बुद्धिमान पुरुषों का काम है । जैसे फाल्गुन के अधिक होनेपर दूसरे For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फाल्गुन में नैमित्तिक कृत्य करते हो उसी तरह अन्य अधिकमास आनेपर दूसरे महीने में नैमित्तिक कृत्यों के करने का उपयोग रक्खो कि जिससे कोई विरोध न रहे । दो श्रावण हो, अथवा भाद्र हो तथा दो आश्विन हो तो भी कोई विरोध नहीं रहेगा । तीर्थकर महाराज की आज्ञा सम्यक् प्रकार से पलेगी। हितबुद्धि से लिखे हुए विषयपर समालोचना करना हो तो भले करो, किन्तु शास्त्र के मार्ग से विपरीत न चलने के लिये सावधानी रखना । समालोचना की समालोचना शास्त्रमर्यादापूर्वक करने को लेखक तैयार है । पाठक महाशयों को पक्षपातशून्य होकर निबन्ध देखने की सूचना दी जाती है । स्नेह राग के वस होकर असत्य को सत्य नहीं मानना, और गतानुगतिक नहीं बनना, तत्त्वान्वेषी बनकर जल्दी शुद्ध व्यवहार को स्वीकार करके भगवान् की आज्ञानुसार भाद्र सुदी चौथ के दिन साम्वत्सरिक वगैरह पांच कृत्यों का आराधन करके थोड़े भव में पञ्चम ज्ञान (केवलज्ञान) के भागी बनो। इस तरह का धर्मलाभ पाठकवर्ग के प्रति लेखक देता है For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir GAANVAR Pebanaiaas50/600000074ooaadudoलवकपष्ठपकासाठी 2004 YAYARI 100000 ज्योतिष चमत्कार समीक्षा ज००००० वेदादि सच्छास्त्र प्रमाणैः समन्विता। GOTT 40000000000000000 OOOO गणक पण्डित हरिदत्तात्मज रोमदत्त शर्मा ज्योतिर्विद - "धर्मोपदेशक भा०प० महामण्डल" विरचिता। TATTOO O OOOO OKTATTOO TOTOO ००००००००dir கென்ன TOT Totoecondo जिस को पं० रामदत्त शर्मा ज्योतिर्विद् मु० सिलौटी पोष्ट-भीमताल जिला नैनीताल निवासी ने ब्रह्म प्रेस-इटावा __ में छपाकर प्रकाशित किया । इस में डिपटी पं० जनार्दन जोषी के ज्योतिष चमत्कार पु० का खण्डन किया गया है। SHE900 KE 15 6. op. roooooo-APAR Do००००००००० संवत् १९६४ वि० सन् १९०८ ई० OOOOOO प्रथमबार । . . कवठठso००० मूल्य प्रति पु०॥ १००० 100sce DoDIO-0000000000000000000Non.puORDDOORORSoooooo. 50 TOTO Pr- For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीगणेशायनमः । भमिका सोम-नक्षत्रमलकाभिहतंशमस्तनः॥ पाठकगगा ? किसी समय में यह भारतवर्ष सम्पूर्ण विद्यानों का भाण्डार था, जिस काल में पथ्वी के अधिकांश भाग में अ. मभ्यता पूर्ख हो रही थी, उम समय इस देश में ज्ञान विज्ञान, ज्योतिष, भषजतत्व, काव्य, साहित्य तथा धर्मादि विषयों की पूर्ण उन्नति हई थी। __ पश्चिमी लोग अमेरिका प्रादि देशों का नाम तक भी जिस समय में नहीं जानते थे, भारतवर्ष के ज्योतिषियों ने उस से महुन काल पूर्व तामे तथा पीतलादि के भगोल (न कसे) बनालिये थ, और भगोस् खगोल का बहुत कुछ वृत्तान्त भभभांति जानते थे, कारगा कि ऋषि मुनियों ने सत्य युग के बने हुए ग्रन्थों में विस्तार सहित यह विषय लिख दिया था। . यथा ( सूर्यसिद्धान्त ) भवृत्तपादेपूर्वस्यां यमकोटीतिविश्रुता । भद्राश्ववनगरी, स्वर्णप्राकारतोरणा॥ याम्यायांभारतेवर्ष लङ्कातद्वन्महापुरी। पश्चिमेकेतुमालाख्ये रोमकाख्याप्रकीर्तितो॥ उदसिद्धपुरीनाम कुरुवर्षेप्रकीर्तिता। तस्यासिद्धामहात्मानो निवसन्तिगतव्यथा:॥ इसीप्रकार यूरुप के विद्वान् पृथ्वी की भांति तारों (ग्रहों) में वसामत अघ मानने लगे हैं। पर हमारे शास्त्रों में यह बात पहिले ही से लिखी है। सर्यलोक, चन्द्रलोक, भौमलोक, सब पथक २ लोक हैं । जिस समय विमानों का प्रचार था इन सब लोकों की यात्रा होती थी। रावणा ने पुष्पक विमान में चढ़ कर चन्द्रलोक पर जब चढ़ाई की सब, माथ के राक्षस शीत से अक. ड़ने लगे इत्यादि, यात्मीकीय रामायणादि की कथाओं से प्र For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषधमत्कार समीक्षायाः गट है। शिरोमणि में लिखा है कि चन्द्रमण्डल के ऊर्श्वभाग में पि. तृगणों का निवास है यथा “ विधीभागेपितरोधसन्ति” इसी प्रसार मंगल ग्रह में जल तथा बरफ अधिक होने के कारगा विलायत के लोगों ने निश्चय किये हैं। भौम के अतिचार होने से प्रायः वर्षा होती है और सर्यमण्डल के प्रागे भौम के प्राने से सूर्य अधिक आकर्षण करे तो अनावृष्टि हो । जैसे हमारे ग्रन्थों में लिखे हैं यही वृष्टि के योग हैं। उक्तंच चलत्यंङ्गारकेवृष्टिः त्रिधावृष्टिःशनैश्चरे। तथा, भानोरग्रेमहीपुत्रो जलशोषःप्रजायते ॥ इत्यादिइसी कारण इंग्लण्ड के तत्वदर्शी पण्डित गणा भारतवर्ष ही को ज्योतिष विद्या का मूलस्थान बतलाते हैं। पर हाय भारतवर्ष के कुछ नई रोशनी बाले महाशय संस्कृतविद्या न जानने और नई शिक्षा दीक्षा प्राप्त होने के कारगा अपनी विद्या की निन्दा करने को उतारू हो बैठते हैं । अहा ! समय की क्या ही विचित्र गति है, जो देश सब देशों का शिरमौर था, वही प्राज इस दीनहीन दशा को प्राप्त हुआ, इसकी विद्या बद्धि विदेशी शिक्षा में लय होगयी है, धर्म विप्लव होमे से अनेक मत मतान्तर खड़े होगये। देश की सब विद्या लोप होने लगीं पूरे २ विद्वानों का प्रभाव होने से इस उन्नीसवीं सदी में-गणित भाग को स्थलता का दोष और फलित को नमिलने का दोष, मन्त्रादि को ठगई का दोष, यन्त्रों को बा. हियाती का डिप्लोमा, वेद विद्या को अंगनी रागों का खिताव, पुराणों को उपन्यास की पदनी, अंगरेजी इष्टोनोमी में वैदेशिक का प्रापवाद, एन्टोलोजी को मन की गढन्त, इ. त्यादि कलि महाराज के दिय पदकों को लूट होने लगी है। विलायत के लोग जिस प्रकार माई २ विद्या मीरहने की चेष्टा में लगे हैं ठीश पाली प्रकार भारतवासी अपनी विद्या का लोप करने में कटिबद्ध है। अपने एर्वजों की निन्दा, अपने For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भमिका शास्त्रों का खगडन करने का असाध्य रोग भारतवर्ष में वे तरह फैला है । इमी अन्धाधुन्ध में हमारे मित्र पं० जनार्दन ज्योतिषी बी० ए० डिप्टी कलेक्टर साहब अल्मोड़ा निवासी श्री ने ज्यातिष चमत्कार नाम की एक पुस्तक ज्योतिष के खण्डन में लिख डाली है। इस पुस्तक में उसकी समालोचना लिखी जाती है। हिपटी साहब ने ज्योतिष का पता जो कुछ ल. गाया है अधिकांश ठाकटर टीयो का मत उसमें ग्रहण किया है। ऐसा अनुमान होता है कि हिन्दुस्थानी टिभ्य पत्र में डा०टियो के लेखों का इलाहाबाद के एक महाशय ( वृहस्पति, ) जी ने उत्तर छपाया है। हमारे डिप्टी साहब ने कदाचित् लेख नहीं पढे होंगे । अन्यथा टिवो साहब ही के आधार पर अपनी पुस्तक न दिखते । जो हो अब यहां से ज्योतिष विषय के कुछ कतों का समाधान लिखा जाता है। प्रश्न-ग्रह जड़ में सुख दुखः क्यों कर दे सकते हैं और ग्रहों से हमारा क्या सम्बन्ध है। उत्तर-ग्रहों के सूक्ष्म अधिष्ठाता, चैतन्य देवता हैं। यदि ग्रहों को जह भी मानले तो क्या जड़ सुख दुःख नहीं दे सकता ? जड़ अग्नि दुःख पहुंचा सकता है या नहीं, ? बिजली आकाश से गिर कर प्राण ले लेती है, इस प्रकार जल वायु रेल तार पाषाण शस्त्र बन्दूक तलवार ये सब जड़ ही हैं पर सुख दुःख भली भांति पहुंचा सकते हैं। ग्रह स्वयं दुख नहीं देते किन्तु पूर्व कर्मानुसार पाने वाले दुःख अथवा सुख की सूचना देते हैं। जैसे कि किमी अभियुक्त को मजिस्ट्रेट ने ५ बर्ष की मजा का दण्ड दिया। यह समाचार १ राजकर्मचारी ने उसे सुनाया तो राजकर्मचारी दाह देनेवाला नहीं हुआ, क्योंकि दगड उसे अपने किये कम्नों के अनुसार मिला। मार्ग चलते समय नकुल का दर्शन हो गया मागे चलकर ५२) की थैली मिल गई तो यह थैली नकुल नहीं दे गया किन्तु उसने द्रव्य प्राप्ति की सूचना दी। इसी प्रकार पूर्व भर्जिस कल अदृश्य है For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः उसको दृश्य करनेवाले ग्रह हैं । ग्रहों से हमारा क्या मम्बन्ध है ? रहा इसका उत्तर सो जब आपका सारा काम ही ग्रहों से चलता है तो फिर सम्बन्ध पूछना केमा ! सम्पूर्ण नवग्रहों की कौन कहे एक सूर्य का ही प्रताप देखिये जो जगत् का प्रकाशक है, जग चक्षु कहलाता है इसी के उदय से हम सर्व कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। मनुष्य के शरीर में जो उष्ताता है वह सूर्य ही की है, और शीत उष्या दृष्टि अनावृष्टि ये सम्पूर्ण ग्रह जन्य, केवल शिशिर वसंत ग्रीष्म ही इसके साक्षी भूत नहीं, किन्तु इस की सत्यता हमारी प्रकृति से ही सिद्ध हो सकती है। क्यों कि जब ऋतु मेघाउछन् तथा क्षीण होता है तो हमारा शरीर निरुत्साह तथा शिथिल व क्षीण हो जाता है। जब ऋतु उज्वल कान्तिमानू होता है तब चित्त भी मानंद कान्तिमान् होता है । जब सूर्य आदी नक्षत्र पर जाता है तब श्वानों को जल भय रोग होता है, क्योंकि आर्द्रा नक्षत्र की श्वान योनि है, जब इस पर सूर्य प्राते हैं तब कुत्तों पर असर होता है । जब सूर्य वृष राशि पर प्राते हैं तब मनुष्यों की प्रकृति में उष्णता बढ़ जा तो है, प्रायः महामारी हम ऋतु में होती है। जब कन्या राशि के सूर्य होते हैं तब विषम ज्वर (मलेरिया) फैलता है, मनुष्यों का सुख दुःख बीमारी तन्दुरुस्ती ऋतु के आधार पर है, ऋतु कर्ता ग्रह हैं तो मिट्ट हो गया कि मनुष्य के जीवन के हर्त्ता कर्त्ता ग्रह ही हैं। जो लोग सूर्य के समीप उष्ण कटिबन्ध में रहते हैं वे प्रायः काले ( हवसी इत्यादि) होते हैं। और जो परोपदेश ( पृथिवी के वायव्य कोण में है) भोन की मेष राशि के समीप है प्रत वहांवाले रक्त मुख श्वेत वर्ण होते हैं । इसी प्रकार सम्पूर्ण ग्रहों का प्रभाव जानना चाहिये, प्रश्न - गणित सत्य है फलित नहीं. एक लग्न में दो गुग्म बालक तथा दरिद्री चक्रवर्ती जन्मते हैं उनका भाग्य एकमा क्यों नहीं होता । उत्तर - गणित रूपी वृक्ष का फलित रूपी फल है जैसे For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका फलहीन वृक्ष शोभा नहीं देता उषी प्रकार फलित बिना गसित वृथा है जिसने गणित हैं उन सब में थोड़ा बहुत फलित अवश्य है, क्रिमी ने अाज की तिथि को २००) दोमौ रुपया कर्जा १) 6. सैकड़े पर दिया, दो वर्ष में क्या व्याज हुआ ४८) रु० हों. ग देखिये दो बर्ष की बात प्राज प्रगट होगई। इसी प्रकार मिद्धान्त गगित भी है। किसी ने पंच तारा स्पष्ट शिये मालम हुमा कि बाप के ५ अंश गये और शनि के दश अंश गये हैं। बम सुन लिया हासिल कुछ नहीं फिर क्यों इतना गणित किया ? नहीं २ फलित ही के निमित्त गगित बना है। नहीं तो कोरे अंग सुन लेने से क्या लाभ है? पंचांग बनाने की क्या आवश्यकता १३ मई को ५ बजे के १० मिनट में सर्य उदय होगा, मब लोग निद्रा त्याग कर उठ बैठेंगे, पहिली तारीख मई को १३ ता० का सूयोदय जानलेना यही फलित है । रहा एक स्लग्न में जन्म लेना सो दो युग्म बालक एक गम में पैदा नहीं होते कुछ प्रागे पीछे होते हैं। यदि लम भी एक हो तो नयांशक तथा अन्य बा. ते एक नहीं होती, जितनी बातें एक होती हैं उसके अनुसार रुप रंग इत्यादि करीव २ उनका एक ही होता है, भाग्य भी करीब २ एकसा होता है। नवांशक त्रिंशांशक तथा दशा एक म होने से कुछ २ फर्क होता है फल सुख दुख का भागे पीछे होता है। एफ साथ ही दो बच्चे पैदा नहीं हो सक्ते क्योंकि मुर्गी भी दो अगडे एक साथ नहीं देती । चक्रवर्ती राजा जिस समय जन्म लेता है दरिद्री का जन्म सस समय कदापि नहीं होता । इसी प्रकार किसी दरिद्री का चक्रवर्ती योग भी नहीं पहला । यह शरीर ग्रहों से बना है मनुष्य का शरीर देख कर जन्म कुण्डली मास दिवस तिथि इत्यादि कहे जा सक्ते हैं। कई विद्वान् हस्तरेख देख कर जन्म मास तिथि वार इष्ट मा. लम करके कुराष्ट्रली बना देते हैं। ग्वालियर के बच्च शास्त्री इम विचार में प्रसिद्ध थे आज कल भी ऐसे पण्डित भारतवर्ष में विद्यमाम हैं । यथा पेठगा के सुप्रसिद्ध ज्योतिभषण पगिडत भ. For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः गवन्त गोविन्द तोडेवाले ने गतवर्ष मान्यथा पं० बानगंगाधर लिम्मक महोदय को अध्यक्षता में घहरे से कुण्डली तय्यार करने की परीक्षा दिखाई थी, एक मनुष्य की कुण्डली देख कर माता पिता भ्राता भादि सारे कटुम्ब की बहुत सी बातें बताई। शारदा मठ के जगद्गुरु मह राज ने पपिउत जी को ज्योलिषभूषणा की पदवी दी है। करवीर और सद्धेश्वर के शंकराचार्य महाराज ने इन्हें ज्योतिः कलादर्श को उपाधि तथा स्वगणपदक दिया है। श्रीमान् महाराज बहादुर दग्भंगा महामराहुल द्वारा पण्डित जी को उत्तम उपाधि देंगे। निजाम राज्य में आपकी बड़ी प्रतिष्ठा हैं अभिप्राय यह है कि अभी गुण ग्राहक भी मिलते ही हैं। अगस्त १९०७ ई० के श्रीवेंकटेश्वर में परिहत जी का चित्र तथा चरित्र खपा है। फलित की सत्यता के ऐसे २ प्रत्यक्ष प्रमाण होने पर भी लिपटी साहब पं० जनादन जी में ज्योतिषचमत्कार नाम की फलित के जशहन की पुस्तक बना डाली । हिन्दू धर्म के विरुद्ध लेख उसमें देखकर मुझे खंडन सिखना पड़ा और किसी प्र. कार का द्वेष वा विरोध पगिडतजी से मेरा नहीं है। किन्तु मि. प्रता (रिस्तेदारी ) है यह पुस्तक केवल धर्मरक्षा के अभिप्राय से लिखी है पाठक चमत्कार से इमको मिलाकर सत्यासत्य का निर्णय करें भल चक दृष्टिदोष जो कुछ रहगया हो क्षमा करके सज्जन गणा सुधार लेवें।। धन्यवाद-भमिका समाप्त करने से पूर्व घरेली के प्रसिद्ध वकील श्रीमान् वाब जानकीप्रसाद जी ऐम, ए० तथा वाब शंकर लाल ऐम० ए०-महोदय इन दोनों महाशयों को अनेक धन्यवाद देता हूं। छपाने से पूर्व जिन्हों ने इस पुस्तक का अवलोकन किया। तथा महोपदेशक पं० भीमसेन शर्मा सम्पादक ब्रा० स० को धन्यवाद है आपने इस के शोधने छपाने की सहायता दी। पं० त्रिलोचन जी से इम की ( प्रति. निधी ) नकल लिखघाई धन्यवाद- ओं शान्तिः ३ शिलौटी } भीमताल-नैनीताल रामदत्त ज्योतिर्विद् For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीगणेशायनमः ॥ ॥ ज्योतिष चमत्कार समीक्षो॥ अचिन्त्याव्यक्तरूपाय निर्गुणायगुणात्मने समस्तजगदाधार मूर्तयेब्रह्मणेनमः ॥ १॥ श्रीकृष्णा चन्द्र प्रानन्दकन्द भगवान् श्यामसुन्दर को नमः स्क र करने के पश्चात गाज मैं एक ऐसे विषय की पुस्तक जितने को बैठा हूं कि जिस से मनुष्य मात्र का सम्बन्ध है, दिन रात घड़ी पल विपल और माम पक्ष ऋतु अघन वर्षे युग चतुर्युग मन्वन्तर कल्प इत्यादि जिस विद्या से जाने जाते हैं। पूर्व तथा वर्तमान और परजन्म का वृत्तान्त जिम से विदित होता है। वैदिक धर्मावलम्बी लोगों का क्षणमात्र भी जिम विद्या के विना काम नहीं चलता, वैदिक यज्ञ कर्मादिक के काल का ज्ञान जिस कानविधान शास्त्र से होता है। और वैदिक संस्कार, नित्य नैमिक्तिक कर्म तथा पर्वकाल पुण्यकाल इत्यादि का निश्चय जिस अंकशास्त्र से होता है। जिस विद्या. से मनुष्यों के जन्म का हाल जाना जाता है, जिस विद्या से स्वर्ग भूमि अन्तरिक्ष के उत्पातादि का ज्ञान, ग्रहयुद्ध, चन्द्र सय्यं ग्रहणा, समय के परिवर्तन का ज्ञान प्राप्त होता है। और घाल्यावस्था से आज पर्यन्त मैं जिस विद्या की खोज में लगा हं। जिस शास्त्र के अनेक ग्रन्थ स्वयं पढ़े और पढाये भी हैं पञ्चाङ्ग की गणना ग्रहण गणाना ग्रहस्पष्टगणाना इत्यादि जिस गणित विद्या में रातदिन लगा रहता हूं। जिस विद्या को अपनी पुस्तैनी (जायदाद ) रियासत मानता हूं। आज उनी विद्या की सत्यता के विषय की और उसी शास्त्र के तत्त्व की उसी के मण्डन विषय को पुस्तक लिखने को बैठा हूं। आज का दिन धन्य है परमात्मा इस कार्य को निर्विघ्नता से पूर्ण करै । For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org C ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः पाठकगण ! ज्यातिषशास्त्र की उत्पत्ति के विषय में पश्चिमीय विद्वान् भी यही मानते हैं कि, यज्ञादि के कालज्ञान की आवश्यकता के निमित्त इस शास्त्र की रचना हुई । जैसे कि यूरोप के डाक्टर टीवो का कथन है कि वैदिक यज्ञों के समय का ज्ञान निश्चय करने के लिये तारामण्डल के ज्ञान की श्रावश्यकता हुई । इस से ज्योतिषशास्त्र की उत्पत्ति हुई इत्यादि । और हमारे शास्त्रों में लिखा है कि, भगवान् प्रजापति ने वेद वेदाङ्गों को रचा। शु०यजुर्वेद के ११ वें अध्याय को २ कडिका में अग्नि चयन यज्ञ में विनियुक्त मन्त्रों द्वारा सिंहावलोकित न्याय से कुछ २ अंकशास्त्र का वर्णन है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यथा - " एका च दश च दश च शतं च शतं च सहस्रं च सहस्रं चायुतं चायुतं च नियुतं च नियुतं च प्रयुतं चार्बुदं च न्यर्बुदं च । इत्यादि” प्रश्न, यह तो केवल गणित सिद्ध हुआ फलित की इस में कुछ भी चर्चा नहीं, * उत्तर आप के मत से तो गणित तथा फलित दोनों ही स न हो वेंगे क्योंकि भूगोलादि का ज्ञान, ग्रहण प्रादि का गणित इस से कुछ नहीं होता और फलादेश भी इस ऋचा से नहीं जाना जाता, स्मरण रक्खो कि हमारे मत से दोनों ही विषय फलित व गणित इसी से सिद्ध होते हैं । कारण कि मूल संहिता में वेद की सूक्ष्म मूल वातें होती हैं। विस्तार पूर्वक वही विषय वेदाङ्गादि अन्य शास्त्रों में वर्णित होता है। इसी प्रकार इस शास्त्र का मूल अंकों में है । सो अंकों का वर्णन यजुर्वेद में प्रागया और भूगोल खगोल तथा ग्रहगणित वेदाङ्ग शिरोमणि ज्योतिष में मिलेगा और इसीप्रकार फलादेश भी उसी शास्त्र में होगा, सो ठीक है सिद्धान्त ग्रन्थों में गणित ग्रहस्पष्टादि संहिता तथा जासक ग्रन्थों में फलित स्पष्ट है, इम में जो शंका करे वह अल्पज्ञ है। ग्रहों की पूजा शान्ति आदि For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भमिका भी अथर्व वेद के १८ वे काण्ड में लिखी है वह नागे लिखी जायगी ॥ प्रश्न-वेद में जन्मपत्रादि बनाने की विधि तथा शुभाशुभ मुहूतादि क्यों नहीं लिखे ? और सिद्धान्तग्रन्थों में प्रश्नादि शकुन और २ फलित की बातें क्यों नहीं लिखी गई ॥ उत्तर-बहुत अच्छा, आप सूर्यसिद्धान्तादि का गणित ग्रहणानिकालना इत्यादि विषय क्या वेद में दिखा सक्त हैं ? आप वेद की ऋचारों से ग्रहण गिनिये हम भी आप को तब जन्मप. त्रादिकों के योग वेद में माफ २ दिखा देंगे। जब आप अपने माने हुए गणित के अनुसार सूर्य चन्द्रका ग्रहण वेद से नहीं दिखा सक्ते हो तो फिर फलित के विषय में हम से प्रश्न क्यों करते हो ?। रहा फलित का विषय मुहूर्त करना प्रश्न विद्या प्रादि सूर्य सिद्धान्तादिकों में क्यों नहीं लिखे गये । इसका उ. तर हम देते हैं कि ताजिरात हिन्द में हिन्दुस्तान का इतिहास क्यों नहीं लिखा गया और इन्डिया को हिष्टी में कानन की बातें क्यों नहीं लिखी गई ? । तया ग्राइमर (व्याकरण) में इतिहास या डाकटरी विद्या काों नहीं लिखी ? तो आप क्या उत्तर देंगे। कोई कहै कि हलवाई की दुकान में जूते क्यों नहीं बिकते, या बजाज की दुकान में आटा दाल तर्कारी क्यों नहीं मिलती।मो उसी प्रकार की वेसमझी का सवाल यह भी है । सभी विषय एक पुस्तक या एक शाख में नहीं होते । रामायण में महाभारत की कथा न मिलेगी । इसी प्रकार ज्योतिष के सब विषय एक सिद्धान्त ग्रन्थ में नहीं मिल सक्ते । महर्षियों ने पृथक २ ग्रन्थ बना दिये हैं। सूर्य सिद्धान्तादिकों में गणित का विषय जिप्त प्रकार लिखा है उसी प्रकार फलित का विषय जैमिनिसूत्र, गर्गसंहिता, वसिष्ठसंहिता, पराशर संहिता, प्रादि आर्ष ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक लिखा है। कोई भी बुद्धिमान इस बात में For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः शंका नहीं कर सकता। "मूर्खस्य नास्त्यौषधम्" मूर्ख की कोई औ. षध नहीं है गुमाई जी ने सत्य कहा है ॥ मूरख हृदय न चेत जो गुरु मिलहिं विरंचि सम पाठक महाशय प्रश्न यहां से पं० जनार्दन ज्योतिषी बी० ए० डिपटी कलकटर महाशय अल्मोड़ा ( सेलाखोला ) निवासी जी की बद्धि का चमत्कार दिखाते हैं । और आपकी ब. नाई हुई पुस्तक ज्योतिष चमत्कार की मालोचना का चमत्कार प्रारम्भ होता है॥ देखिये पहिले भमिका से प्रारम्भ करते हैं । ॥ यतोधर्मस्ततो जयः॥ ज्योतिष चमत्कार को-. -भूमिकाअहा हा ! ज्योतिष कसी अद्भुत विद्या है कि जिस के प्रभाव से ऋषि मुनि लोग तीनों काल की बातों को जानतेथे। और उनमे ससार की कोई भी वात छिपी नहीं रहती थी, महात्मा बाल्मीकि जी ने श्री रामचन्द्र जी के जन्म से भी पहिले रामायण लिख डाला था। महात्मा गर्गऋषि ने भगवान् श्रीकृष्ण जी के जन्म लेते ही बतला दिया था, कि ये साक्षात्भगवान हैं और कंस को मारेंगे । कौन ऐसा नास्तिक होगा कि जो हिन्दू होकर उन ऋषि मुनियों के इस ज्योतिष को झूठा कहै। (समीक्षा) सत्यमेव जयते नानतम् सत्य की जय है सदा, झठे की है सर्बत्र हार। वाहवाह, धन्य है, जोशी जी खण्डन करने को तो वैठे थे पर सत्य वात का खण्डन कौन कर सकता है, अपनी ही कसतम से ज्योतिष की प्रशंसा करने लगे "प्रथमग्रासे मक्षिका पातः,, सच पूछो तो अपनी सारी पुस्तक का खण्डन जोशीजी ने यहीं कर डाला, जोशी जी से हल पूछते हैं कि वे ज्योतिष For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमोऽध्यायः॥ के कौन ग्रन्थ थे जिन के द्वारा ऋषे मुनि तीनोंका को बातें जानते थे। महर्षि वाल्मीकि जी ने रामचन्द्र के जन्म से पूर्व किस ज्यातिष ग्रन्थ से जानकर रामायणा बना दिया था । और गर्ग मुनि ने भगवान् श्यामसुन्दर के जन्म के ममय कम को मारेंग इत्यादि किम विद्या के बन से बता दिया था ?। प्राप लिख चुके हैं ज्यातिघ के प्रभाव से ॥ प्रश्न-गणित से या फलित से, फलित का नाम मापने यवन ज्योतिष रक्खा है। यदि कहो कि भूमिटु न्तादि ग. णित के ग्रन्थों से सो कोई भी इस बात को नहीं मानेगा, [ यदि कहोगे योगबल से तो योगशास्त्र का ज्योतिष से कोई सम्बन्ध नहीं ] कारण कि सर्पसिद्धान्तादि ग्रन्थों में केवल ग्रहस्पष्ट तथा ग्रहणापासादि का गणित भगोल का वर्सन है। इस से अतिरिक्त भत भविष्यत् वर्तमान कुछ भी उन ग्रन्थों से नहीं जाना जाता रहा फलित, सोवास्तव में जिस फलित से ऋषि मुनियों ने ऊपर की बातें जानी थीं उस फलित को भाप यवन ज्योतिष कहकर खगहन ही करने लगे, जोशीजी ! अपनी पुस्तक में ऋषियों का ज्योतिष कई जगह आपने लि. खा पर ग्रन्थों के नाम कहीं न लिखे । लिखते कैसे उन ग्रन्यों का तो खण्डन ही आप करने वैठे थे । जोशी साहव को उ. चित है कि उन ग्रन्थों के नाम लिखें जिन ज्योतिष के ग्रन्थों से मुनिमण तीनों काल की बातों को जानते थे। आगे आपने फरमाया है कि कौन ऐसा नास्तिक होगा जो हिन्दू हो कर सन ऋषि मुनियों के ज्योतिष को कठाक है, डिप्टीसाहव ! श्राप स्वयं न्याय ( इन्साफ ) तथा तहकीकात कीजिये स्वयं विदित हो जायगा कि ऐसा कौन नास्तिक हिन्दू है जो ज्योतिष का खण्डन करने लगे। ज्योतिष चमत्कार, जोशीजी लिखते हैं कि “मैं कोई न. माजी समाजी नहीं हूं सनातन धर्म का माननेवाला हरि भक्त वैष्णव हूं" ॥ For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषधमत्कार समीक्षायाः समीक्षा-पापको नमाजी होने का सन्देह क्यों पड़ा ? हम कान कहते हैं कि पाप नमाजी या समाजी हैं । हां इतना अ. वश्य कहेंगे कि समाजियों से कुछ कम ख्यालात आपके नहीं, किन्तु अधिकांश में मिलते जुलते हैं। अपने ज्योतिष शास्त्र के गुरु यवनों को आपही ने बताया। कह देते बंद विद्या भारत में भायरलेण्ड से आई और वदान्त चीन से फैला तो क्या डर था कोई कलम तो पकड़ता ही नहीं था। और मनातन धर्मो होना भी भापका ज्योतिष चमत्कार की कृपा से प्रगट हो चुका । देखिये ज्यो० १० पृ० ४० पंक्ति ११ वसिष्ठ जी के नाम से जनार्दन ज्योतिर्विद जी लिखते हैं कि लड़की का विवाह रजस्वला होने से तीन वर्ष पछि होना चाहिये । वसिष्ठ स्मृति में साफ लिखा है कि रजस्वला होने का अवसर प्राने से पहिले ही ऋतुमती होने के भय से पिता कन्या का दान कर देवे देखिये वसिष्ठ स्मति अध्याय १७ श्लोक ६२। ६३ प्रयच्छेन्नग्निकांकन्यामृतुकालभयापितो। ऋतुमत्याहितिष्ठन्त्यां दोषःपितरमृच्छति ॥६॥ अन्यच्च यावच्चकन्यामृतवःस्पृशन्ति तुल्यैःसकामामभियाच्यमानाम् ।भूणानि तावन्तिहतानि नोभ्यां मातापितभ्यामितिधर्मवादः ॥ ६ ॥ अर्थात् कामना रखती हुई कन्या को चाहने वाले वरों के विद्यमान होते हुए न देने से जितने मास तक कन्या रजस्वला होती रहै उतनी ही गर्भ हत्याओं का दोष कन्या के माता पिताओं को लगता है । यह धर्मशास्त्रकारों का बयान है यही सनातन धर्म का अटल सिद्धान्त है । धन्य है ! जोशीजी रजस्वला होने से तीन वर्ष बाद विवाह करने की तरकीव For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमोऽध्यायः ॥ आपने खव निकाली । वाह वाह, मेरे विचार से तो आपने भत्यार्थप्रकाश के आधार पर यह बात लिखी है क्योंकि उम के पष्ठ ९३ में लिखा है ३६ वार रजस्वला होने के पश्चात् वि. वाह करना योग्य है, बस यहीं से जोशी जी ने भी लिया हागा मत्यार्थप्रकाश दयानन्दियों का धर्मग्रन्थ है। __क्या कोइ सनातनधर्मी पगिडत कोई महामण्डल का म. होपदेशक कोई मनातनधर्म सभा का लीडर इमप्रकार की विवाह की रीति चलाने वाले को सनातनधर्मी मान सकता है ? नहीं नहीं ! कोई नहीं !! कदापि नहीं !!! तो फिर उन को सनातनधर्मी माने या आप को ? ॥ . पाठकगण ! आप किसप्रकार के सनातनधर्मी हैं यह बात तो आप महाशय जान ही चुके हैं, और अधिक हाल भागे खलेगा अभी तो भमिका है वैष्णव धर्म हरिभक्ति का भी रहस्य आगे प्रकट हो जायगा ॥ __जोशीजी, ज्योतिष के प्राचार्य भग, पराशर, गर्ग आदि, ऋषीश्वरों के चरणों की धलिका एक कणा भी मेरे शिर में लय जाता तो मेरे जन्म जन्मान्तर का उद्धार हो जाता ॥ ( समीक्षा ) मुनियों के चरण की धलि कहां से मिलेगी सन के ग्रन्थों को यवनों के बनाये बतलाते हो और सनातं. नधन के किद्ध पुस्तक छपाते हो, पश्चात् कन्या के विवाह का प्रोड( लगातेहा, मित्रबर ! ये सभी बातें ऋषि मुनियों के विरुद्ध हैं तो उद्धार किस प्रकार होगा ॥ (जोशी जी) यह काम किसी लोभ या बड़ाई की इच्छा से नहीं किया ॥ (समीक्षा) सत्य है आप को लोभ किस धात का होना था, यदि लाभ की इच्छा से भी यह काम किया जाना तो इस क्षुद्र तुच्छ पुस्तक की रचना से लाभ ही श्राप को क्या हो सकता था, यदि साइन्स मादि की कोई उत्तम पुस्तक आप For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार ममीक्षायाः लिखते तो लाम और नाम भी आप का प्रावश्य होता, लोग कहते किसी ग्रेजुएट की बनाई उत्तम पुस्तक है, परन्तु श्रापना व्यर्थ समय मापने नष्ट किया ॥ (जोशीजी, ) उमी हरि की इच्छा हुई इस हिन्दुस्तान में भत भविष्य के जानने वाले ऋषीश्वर जन्म लवें, और विद्या फैलावें, उसी की इच्छा से सब विद्याओं का लोप हो गया और अन्धकार छा गया । ( समीक्षा ) यह वात आप की सोलह भाना सत्य है " हरेरिच्छाबलीयमी" जिम कर्माचल के जोशी वा ज्योति. षी पगिडतों ने इस विद्या में पूरी २ उन्नति प्राप्त की ग्वा. लियर पटियाला प्रादि रियासतों में माज तक हमारे जोशी भाई जागीर पा चुके, पीढ़ियों से ज्योतिष का काम करते हैं। जिस. देश कुमांऊ) के पञ्चाङ्गों के गणित की प्रशंमा सारा भारतवर्ष क. रता है। जिस कर्माचल के ज्योतिर्विदों ने अनेक करण मारिगो विविध भांति की वनाई, ग्रहलाघध में नवीन संस्कार माला के जोशी पं० देवकी नन्दन जी ने दिया, कोटा के पर प्रेमवल्लभ जी ने “ परममिद्धान्त " कैसा उत्तम गणित का ग्रन्थ बनाया, इसी गगंगोत्र में पूज्यवर पं० हरिदम जी ज्योतिर्विद् कलौन निवासी कैसे पूर्ण विद्वान् हुए थे ? । “भनोके अहं हरिदतः" माज तक हमारे कुमावनी लोग आप के नाम को नहीं भले, इसी विद्या ( फलित ) के बल से प्राप को कई एक ग्राम जागीर में मिले । पर हाय! भाज उसी देश के और उमी गोत्र के एक जोशी सन्तान ने ज्योतिष के खगहन की एक सल्टी सीधी पुस्तक बना डाली । पाठक ! महमूद गभगवी के मन्दिर तोड़ने में उतनी हानि नहीं, जितनी एक किसी हिन्दू नरेश के मन्दिर या शिवालय तोड़ने में होगी । ऐसा ही ज्योतिषी नाम टाइटिल पेज में लिखकर ज्योतिष का खगड़न यारना है। "हरेरिच्छा बलीयसी"। For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमोऽध्यायः॥ ( जोशी जी लिखते हैं ) कि यवनों ने आकर भ्रमजाल फैलाया सोना चांदी श्राप सो गये यवन ज्योतिष हमें दे गये (समीक्षा) पाठक जोशी जी का भ्रमजाल तल्ला देते हैं, यवनों के यहां ज्योतिष कहां से प्राधेगा, यह विद्या भा. रतवर्ष से सर्वत्र फैली है। यरूप के विद्वान् भी इस बात को मानते हैं कि मुसलमानों ने ज्योतिष विद्या भारत से मीखी उन के यहां अंको का नाम हिन्दमा इमी हेतु से र.. क्या गया, वाहवाह ! पगिडत जी कह देते हमारे यहां मायवेद इंगलैगह से माया, ॥ (जोशी जी ) ऋषि मुनियों के सत्य ज्योतिष के विपरीत तो मैं एक शब्द भी नहीं लिखूगा, यह नास्तिकता मुझ से न हो सकेगी। हां यवनों ने जो २ वाते ऋषियों के नाम से चलाई हैं प्राप को दरशा दूंगा ॥ (समीक्षा) यह तो फरमाइये कि वह ऋषि मुनियोंका सत्य ज्योतिष कौन है? वाल्मीकि रामायणादि में श्री रामचन्द्र जी के जन्म की ग्रह कुण्डली आदि का जहां वर्णन है, तथा श्रुति स्मृति प्रादि में ग्रह शान्ति जो लिखी है, उसे भाप ऋषियों का ज्योतिष मानते हैं या नहीं,? यदि नहीं मानते हो तो नास्तिकता है, मानते हो तो झगड़ा किस बात का है, प्रमाण, रामायणा तथा वेदादिके भाग लिखे जावेंगे ॥ (जोशी जी.) मेरे ज्योतिष के विचार से भाप के बुरे दिन पूरे हो गये, खोटे दिन श्राप के शत्रुओं के आये, आप को बुरा लगे तो म सही, मेरा ऐसा कहने में क्या बिगड़ता है। (समीक्षा) मुझे तो एक महात्मा का बचन याद भाता है, उक्तञ्च हतश्रीगणकान्वेष्टि गतायुश्चचिकित्सकान्॥ म०भा० ( जोशीजी.) उपोतिष दो प्रकार का है,एक सत्य ज्योतिष दूसरा यवन ज्योतिष इस पुस्तक में ज्योतिष की जो २ For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः मच्ची बातें हैं उनका भी वर्णन होगा, जो यवनों ने मिलाई हैं वे भी दिखाई जावेंगी ॥ (ममीक्षा) फिर वही तान? साफ २ ग्रन्थों का नाम क्यों नहीं लिखते । यवन ज्योतिष और मत्य ज्योतिष दो नहीं, किन्तु फ. लित तथा गगित दो भाग ज्योतिष के अवश्व माने जाते हैं। कदाचित् ताजिक तथा रमल ग्रन्थों से यवन ज्योतिष कह कर आप घबड़ाते हों तो फिर भी आपको भूल है। क्योंकि ये ग्रन्थ भी किसी ममय यवनों ने हमारे यहां से लेकर अपने ढंग में बना लिये हैं, इसका विशेष विचार भाग लिखा जायगा पर जातक मुहूर्तसंहिता ग्रहयाग ग्रह शान्ति न माननेवाला वैदिक धर्मी हिन्दू नहीं माना जाता ॥ ( जोशीजी ) जो इस पुस्तक को ध्यान देकर पढ़ेगा उत्ते हमार कन्यादान को फल होगा उनके खोटे दिन दूर होंगे बल बीर्य पौरुष बढ़ेगा दुःख दरिद्र नाश होगा इत्यादि । (समीक्षा) यहां तो आपने पुराणों से भी अधिक माहात्म्य लिख डाला, तो अब गंगास्नान गोदान, पुराण पाठ इत्यादि सबसे बढ़ कर आपकी ही पुस्तक का पाठ रहा, वाह वाह ! भारतवर्ष दिन २ दरिद्र होता जाता है। प्लेग से दुःखी है, पुस्तक सुना कर उसके दुःख दरिद्र दूर क्यों नहीं करते हो ? । प्रमेहादि रोगियों को अव डाक्टर वैद्यों की आवश्यकता होगी या नहीं, क्योंकि बल वीर्य तो आपको पुस्तक के पाठ से बढ़ा लेंगे। धन्य है ! बल और वीर्य ब्रह्मचर्य से बढ़ता है आपकी पुस्तक से नहीं, अतएव ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम स्था. पित कराइये ॥ पाठक ! इसके पश्चात् द्विवेदी जी का गीत गाकर जोशी साहब ने भूमिका समाप्त की है। द्विवेदी जी के विषय का उत्तर आगे लिखा जायगा भमिका की समीक्षा पूरी हुई । शुभमस्तु रामदत्तज्योतिर्विद् For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ॥ ज्योतिष चमत्कारसमीक्षा ॥ यत्रयोगेश्वरःकृष्णा यत्रपार्थोधनुर्द्धरः । तत्रनोविजयाभूतिर्बुवानीतिर्मतिर्मम ॥ ( पहिला अध्याय ) ( ज्यो. चमत्कार पृ०५) मैं ऐसे विषय में कुछ लिखना चाहता हूं, जिम का नाम सुनते ही यरुप के लोग हंस पड़ें। ( समीक्षा )-यगेप के लोग क्या भारतवासी भी प्राप के लेख को देख कर हंस पड़े हैं । ( प्रश्न ) हमारा मतलब आप नहीं समझे अभिप्राय यह था कि ज्योतिष का नाम सुन कर यरोपियन हम पड़ेंगे। ___ " उत्तर, तो क्यों घवड़ाते हैं, जिन का हमारा धर्म एक नहीं वे लोग वेद पुराण धर्मशास्त्र सभी को नहीं मानते, हैं. सते हैं तो अपनी क्या हानि है । पर मित्रवर ! ज्योतिष को तो वे लोग भी मानने लगे हैं, जर्मन में इस का प्रचार होने लगा, और अमेरिका में होने लगा है, जड़किलादि कई प्र. सिद्ध ज्योतिषी वहां सुने जाते हैं। चीनी तथा मुसलमान सभी लोग इस शास्त्र को मानते हैं, पर जितना भाग हमारे धर्मशास्त्र से सम्बन्ध रखता है उतना भाग विधर्मी प्रवैदिक होने से वे लोग नहीं मानते। जोशी जी ! आप ज्योतिषी वंश में जन्म ले कर ज्योतिष से इतना क्यों चिड़पड़े? ॥ (ज्यो० १० पू० ५ ५ १४-) फलित ज्योतिष को यूरोप से धक्के खा कर हिन्दुस्तान की शरण लेनी पड़ी, जब तक धर्म For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार ममीक्षायाः ।। शास्त्र के नाम से माना जायगा तब तक हिन्दुस्तान से हट नहीं सकता इत्यादि ( सनीक्षा ) फलित ज्योतिष को धक्के खा कर यूरोप से हिन्दुस्तान की शरण लेनी पड़ी,यह कथन श्राप का कपोलकल्पित और मिथ्या है, सत्य है तो प्रमाण ( सवत ) दीजिये, कौन किस समय में यूरोप से यहां फलित लाया, फलित यहां यूरोप से जहाज में आया नयका रेल में। और पहिले प्राप कह चके हैं कि यवनों के यहां से आया। और अव योप का ( फलित ) वताया, कहिये कौन वात श्राप की मच मानी जाय सच बूझो तो श्राप की दोनों बातें ठीक नहीं। जोशी जी ! देखिये यरोप के प्रसिद्ध ज्योतिषी जिन्हों ने बृहत्संहिता का अंगरेजी अनुवाद किया है प्रोफेसर कार्ण. साहव लिखते हैं कि सन् ईवा के कई एक वर्ष पहिले गगसं. हिता बनी है, उक्त साहव के कथन से भी स्पष्ट प्रकट है कि ज्योतिष विद्या बहुत प्राचीन काल से भारतवर्ष में है । पर जोशी जी को इतना पता कहां से मिलेगा जो जी में पाया सो लिख दिया। अब रही धर्मशास्त्र की वात सो जव कि याजवल्क्य स्मृति आदि में ग्रहयाग ग्रहशान्ति ग्रहों की महिमा वर्णित है गृह्यसूत्रादि में अन्य पद्धतियों में भी ये विषय ठसाठस भरे हैं तो आप की वे सबत वात कौन मानम कता है ? सत्य है आप हजार पुस्तक लिख डाल लाख चेष्टा करै हिन्दुस्तान से ज्योति नहीं हट सकता । पाठक ! यहां से पृष्ठ ल तक साधारण वात लिखी हैं जिन की आलोचना करने की विशेष आवश्यकता नहीं है। ग्रन्थवृद्धि के भय से वे निरर्थक वात छोड़ दी गई हैं। (ज्यो० च० पृ० ल पं० १५ देखिये--धनी निर्द्धन की स. मता किस प्रकार कर सकते थे, उन्ही दिनों यहां यवनज्योतिष चला था।२७ नक्षत्र और १२ राशि हैं, कोई किसी नक्षत्र में जन्मा कोई किसी नक्षत्र में ॥ For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमोऽध्यायः ॥ (ममीक्षा ) यवनों के किस ग्रन्थ से ज्योतिष की उत्पत्ति हुई, उजील से या कुरान से किस ने चलाया, कब चलाया समय का ठीक पला चलाने वाले का नाम क्यों नहीं लिया अभी तो नाप कह चके कि यरोप से फेला अब फिर यवनों का गीत गाने लगे वाह वा ! ॥ (ज्यो० च० ए० ( पं० १७ से-) इस प्रकार मनुष्यमगहलो २७ प्रकार की हुई अथवा १२ प्रकार की हुई, इन २१ समूहों में ज्योतिषियों ने यह लिख दिया कि इस ममूह का विवाह इम म. मूह वाले से न होगा बस यही साम्य है ।। (समीक्षा ) जोशी जी भूल में पड़े हैं, यही माडीवेध षडाष्टक ही को जो आपने साम्य समझा है । स्मरण रहै कि साम्य में और भी कई एक वात विचारी जाती हैं । यथा वर्ण वश्य तारा योनि ग्रहमैत्री गण भकूट (नाड़ी) गुण तथा दोनों के कुण्डली के ग्रह इस के अतिरिक्त गृह्यसूत्रादि में और भी कई एक प्रकार का साम्प लिखा है। जिस का कुछ २ वर्णन मागे होगा। जिसे सभी भास्तिक सनातनधर्मी निर्विकल्प मानते हैं। (ज्यो० च० प०९) पर स्लोग इस विद्या को क्यों मानें इसलिये ज्योतिषियों ने लिख दिया है कि जो इस आज्ञा के विरुद्ध व्याह करेगा वह मर जावेगा वा उम के घर में और कोई मर जाय। मैं हरिवंश अथवा गंगाजल को शपथ खाकर कहता हूं कि यह वात ठीक निकली वे लोग अथवा उन के घर के अवश्य ही मर गये इत्यादि ॥ (समीक्षा ) ज्योतिषी पण्डितों ने जो कुछ लिखा मो ऋषि मुनियों के अनुकूल सच्छास्त्रानुसार लिखा है और आप भी गंगाजल हरिवंश का शपथ खा कर सिद्ध कर चुके हैं कि यह वात ठीक निकली । उन की आज्ञा के विरुद्ध जिन लोगों ने व्याह किया वे लोग और उन के घर के अवश्य मत हुए पाठक ! तो फिर उन ऋषि मुनि और ज्योतिषियों की प्रज्ञा For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ क्यों न मानी जाय । वाह वा ! सच पूछो तो हिपटीसाहब को खण्डन करना नहीं पाता । आये तो खण्डन करने, पर कसम खा कर वात पक्की कर गये आप का पक्ष निर्मूल हो कर गिर गया ॥ मागे पृ० १० में आप लिखते हैं कि यह कहीं नहीं लिखा गया कि जो नाहीवेध षडाष्टक में विवाह करै वह इतने समय के भीतर में मर जाय इत्यादि । (समीक्षा) पहिले श्राप यह लिखिये कि ज्योतिष के कौन २ ग्रन्थ आपने पढ़े हैं किसी अच्छे पगिडतः के शिष्य हो कर कुछ काल अध्ययन करने से यह हाल जाना जायगा पाठक महाशय ! यहां से १५ पंक्ति तक इधर उधर की कुछ बातें लिखके राजनैतिक विषय में दौड़ मचाई है। प्राप लि. खते हैं ८०० सौ वर्ष मुसलमानों का राज्य रहा और हम दवे रहे फिर यही साहस हुआ कि लार्डकर्जन के विपरीत अनुमति प्रकाश कियो । ( ममीक्षा) डिपटी साहव ! राजनैतिक ( पो. लीटिकल ) आन्दोलन में आप की राय शुभ नहीं ॥ ( ज्यो० च० पृ० १२ पं० १०) श्राप लिखते हैं कि अब बड़ी घोर आपत्ति का ममय ना पहुंचा है, बहुतरे लोगों में तो लड़की का व्याह होना कठिन हो गया है लड़के ही नहीं निलते साम्य तो किनारे रहा, पाप ही ज्योतिष का नाश हुआ। लडकियों का बलिदान हो रहा है। पर आप उन के प्रांस नहीं पोंछ सकते ॥ (समीक्षा)-नाप का कथन सत्य है कारण इम का यह है कि प्रथम तो धन नहीं रहा बन्दा मां गांग कर कई ब्राह्मण कन्याओं का विवाह कर रहे हैं (२) और सहस्रों नव युवक प्रतिसप्ताह प्लेग के शिकार बन रहे हैं। देश में हाहाकार मचा हुवा है। अनाचार इतना फैला है कि भदयाभन्य, मद्य, विस्कुट अण्डे, मुर्गी, आदि को अच्छ २ कुलीन बुद्धि हीन भ्रता से खाने लगे हैं । इस कारगा मदाचारी लोग उन से खान For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमोऽध्यायः ॥ २१ पान सम्बन्ध बन्द करने लगे । बाप बेटे के हाथ से नहीं खाता, भाई भाई के हाथ से परस्पर जिन लोगों में रिश्तेदारी होती थी सो सब बन्द हुई । और नये २ पन्थ नये २ समाज घर २ में खड़े हुए। हाय ! कौन स्वामी शंकराचार्य की भांति भारत में जन्म लेकर धांसू पोंगा ? ॥ “जोशी जी पृ० १२ पं १६" में लिखते हैं कि समता के लाने को साम्य चला पर उलटी विषमता फैली। यहां तक कि लड़की के लिये २३ जन्मपत्रियां भी कठिनता से मिलती हैं, यदि उनसे माम्य न हुआ तो फिर मौत है । इसी विपत्ति को देख कर मैंने इसकी खोज की इत्यादि (समीक्षा) उत्तम तो यह होता कि यदि छाप देश में सदा चार तथा धर्म शिक्षा के प्रचार के निमित्त धर्म सभा स्थापित कराते तथा देश में शिल्प वाणिज्यादि के द्वारा धनवृद्धिद्रव्यरक्षा घृत दुग्ध की वृद्धि के लिये गोरक्षा अन्नरक्षिणी सभा के द्वारा अन्न की रक्षा की चेष्टा कराते देश में घर २ मंगल आनन्द होता तो स्वयं एक २ कन्या के लिये १०० सौ सौ जन्मपत्र मिलने लगती । यथा योग्य साम्य होने से फिर बिधवा कोई न होती पाठक ! महामण्डलादि धर्म सभायें इसी चेष्टा और उद्योग में हैं पर हमारे डिप्टी साहब को उलटी बात सूझी । एक कहावत याद आई है किसी मे अपने भाई से कहा कि “भाई ! बूढ़ा बाप बीमार है क्या करें दूसरे भाई ने कहा जहर दे दो यह तो नहीं कि कुछ इलाज करो" बड़ी कहावत यहां भी हुई वाह वा ! अच्छी खोज की ॥ ॥ प्रथम अध्याय समाप्त हुआ ॥ For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषधमत्कार ममीक्षायाः ॥ द्वितीय अध्याय "ज्यो० च० पृ० १३"विवाह कैसे होता है लड़के लड़कियों की जन्मपत्री धरी रहती हैं, विवाह के ममय ये पत्रिया मिलाई जाती हैं जिनकी पत्री मिलगई उहीं का व्याह हो म. कता है। व्याह क्या हुआ एक प्रकार की चिट्ठी पुर्जी डाली गई कोई २ कोमलाङ्गी सुरूपालट को किमी काले भून के नाम आगई इत्या० (ममीक्षा) जोशी जी आपने इम पुस्तक को द्वेष बुद्धि से लिखा है। जन्मपत्री मिलाने से कोई कालाभत किमी उत्तम कन्या को नहीं व्याह मकना क्योंकि हमारे यहां लिखा है किशुद्धां गोत्रकुलादिभिर्गुणयुतांकन्यांवरश्रोद्वहेत्, । वर्णावश्यभयोनिखेचरगणांकूटंचनाड़ीक्रमादिति पहिले कन्या का कुन गोत्र रूप गुगा इत्यादि इसीप्रकार वर के भी कुलादि रूप गुण निश्चय कर के जन्मपत्री से ठीक २ माम्य करके पश्चात् विवाह करना योग्य है । यही परिपाटी वैदिक हिन्दुओं में प्रचलित है। पहिले पुरोहित या नाई आदि को भेजकर लड़के तथा लड़की को भली भांति देखभाल । कर वाया, तब ग्रह साम्य करा कर विवाह होता है । कोई काला भस किसी कोमलाङ्गो सुरुपा को नहीं ब्याह मकता, फिर श्रापको चिन्ता क्यों हुई ? ॥ (ज्या० च० प०१३ पं०१०) कोई कुरूपा किसी सुरूपवान लड़के के नाम आई तो थोड़े ही दिनों में उसके मा बाप चिन्ता से भरगये कि हमारे लाल को क्या होगया ? किसी बात में मन नहीं लगता उस लड़की के ग्रह सोंटे होंगे चलो कोई अच्छी लड़की ढूंढले जिमसे हमारे लाला ज प्रमन्न रहैं । (समीक्षा)-क्या हमारे जोशी जी दिखा सकते हैं कि जिन लोगों में कुण्डली नहीं मिलाई जाती जैसे ईमाई मू. साई इत्यादि में से किसी अच्छे लड़के को कुरूप लड़की नहीं For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयोऽध्यायः॥ व्याही जाय प्यारे ! यह तो सर्वत्र भाग्यानसार है कि जो लोग जन्मपत्र नहीं मिलाते उन में भी सैकड़ों लोग इब चिन्ता में पड़े मिलेंगे कि हमारे लड़के को अच्छी बहू न मिली हाय; बेटा नाराज है। तो अपनी प्राचीन रीति में दोष लगाना श्राप की वेसमझी नहीं तो और क्या है ? ॥ पर पाठक ध्यान रखें कि सनातन धर्म की ठीक ठीक रीति से विवाह करने में धोखा नहीं हो सकता । ग्रह कुराष्डली के ठीक होने पर अच्छा ज्योतिषी सब बातें ठोक २ बिना कन्या के देखे ही बता सकता है। कितनी भाग्यवती होगी और कैसा रूप है कैमा स्वभाव है इत्यादि चिन्ह ( कुण्डली ) ठीक हो फिर कभी धोखा न होगा इसी कारण हम सनातन धर्मी इस रीति को मानते हैं । (ज्यो. च० प० १३ प० १५) दो लड़कियों में सौतिया हाह हुवा उनमें से एक जादूगर की खोज में गई आज कल बीसवीं सदी में जादू के बाप का क्या चलता है अफीम खाकर सो रही ॥ (समीक्षा ) ज्योतिष चमत्कार पृष्ठ १५३ में आपने लिखा है कि एक आदमी को तिजारी उवर भाता था मैं ने कहा कि मुझे मन्त्र पाता है। एक लम्बा जता लेकर इतवार के दिन तड़के उसे एक चूंट पानी पिलाया और कहाकि तेरा घर गया उसे विश्वास होगया और उवर छूट गया। पाठक आदू में ताकत नहीं सुनी जाती पर हमारे डिपटी माहब का जते का प्रभाव २० वीं सदी में भी अपूर्व देखा । वाह ! वा ! यह तो आपने जादू को मात देदी॥ __ (जोशीजी०) एक भले मानस ने अपनी लड़की बड़े प्रेम से पाली उसे अंगरेजी जते और कपड़े पहनाये और पढ़ाने को पण्डित रक्खे । जब व्याह का समय माया तब प्रथम तो लइके न मिले मिले भी तो ज्योतिषी जी ने कह दिया कि For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ बिध नहीं मिलती। तबतो उनकी आंखें खुली कि मुझे ल. ड़की के व्याह का अधिकार नहीं। किसी बुद्धिहीन गधे से भी बिधि मि न जाय तो बही करना पड़े । इत्यादि यह कथा नहीं मच्ची बात है कहो तो इस भले मानम का नाम बनाएं। (समीक्षा ) इन वे सिर पैर की कथा से श्राप ज्योतिष का खण्ठन नहीं कर सकते हैं कथा भी प्रापने खन बनाई लड़की को अंगरेजी पड़े बंट पहिनाये बिना यहांभी काम न चला “मच है" मुंह से निकलेगी,वही वात जी आदत होगी क्या अच्छीरे शमी साड़ी व अच्छे प्राभषणा लड़कियों के लिये नहीं रहगये थे यदि सच्ची कथा हैतो नाम उप भन्ने मानम का लिख देते ॥ पाठक ? आज तक कोई केवल विधि न मिलने से कुमारी रह गयी.यह बात आपने कभी नहीं सुनी विद्वान् के लिये पढ़ी हुई लड़की, किसान के लिये मजदूरिन, होटल में खाने वाले बाब साहब के लिये बूट पहिरने बानी लड़की, यथा योग्य अवश्य मिल जाया करती है। जहां इस से विपरीत हो जाय तो अन्य का दोष ममझो या भाग्य का, सो विधि न मिलाने वाले अन्य लोगों में भी हो जाया करता है ज्या वि. लायत में किसी निर्बद्धि से अच्छी रूपवली लड़कियां नहीं व्याही जाती ? वहांविधि मिन्नाने को कौन जाता है। ___ मैंने एक साहब को देखा है जो कि माधार या पढ़े लिखे हैं और रूपवान भी विशेष नहीं मिजाज वड़ा तेज है हाल में अपना विवाह एक अच्छा मेम से कर लाये हैं। मेम साहित रूप में भी साहब से कई दर्जे उत्तम है विद्या में भी अधिक है। इस पर भी साहब बहादुर रात दिन डंडे और हन्टर से पीटते हैं मेम साहवा रोती हैं। ज्यो० च० पृ १४ पं० २०) बहुतेरे हीन वर्ण के ब्राह्मण बन गये जो कोई बढ़ गया भला मानस कहलाने लगा उसे ज्योतिष मानना पड़ा, जो घटगया नीच जाति में जामिला उसके बाप दादों ने ज्योतिष मान रक्सा था, इस लिये ज्योतिष का प्रभाव अवलों लोगों में कुछ २ कुछ चला पाता है। For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयोऽध्यायः ॥ (समीक्षा) कितने होम वर्ण ( शद्र ) आज तक ब्राह्म. गा हुए हैं ?। माफ २ लिखिये माज तक तो आर्यसमाजियों ने भी किसी जन्म के छद्र को ब्राह्मसा नहीं बनाया, यदि हमारे जोशी जी ने किसी शूद्र को व्यवस्था देकर ब्राह्मण बमाया होय तो बही जानें । इस विना प्रमागा की बात को कोई बुद्धिमान् नहीं माभंगा, ज्योतिष का प्रभाव सब लोगों पर बराबर है जो लोग पीढ़ियों से बढ़ हुये हैं वे सभी मानते हैं॥ (ज्यो० १० १० १५ १०६) वस उहों ने समझ लिया कि अपने उद्योग से कुछ भी नहीं होता जो करते हैं ग्रह करते हैं। समझलो कि पौरुष हीन होने का बीज बोया गया है। इमी रीति से पुश्तहां पुश्त तक देव देव कहते गये, लोगों ने उद्यम को निष्फल हमझा भाग्य और किस्मत को पूजने लगे। (समीक्षा) ज्योतिष के किसी ग्रन्थ में पुरुषार्थ को छोमुकर भाग्य के भरोसे वैठना नहीं लिखा है। किन्तु उपाय और उद्योग करने का उपदेश ज्योतिष अवश्य देता है। पा. ठक गण ! ध्यान देवें ज्योतिष का अभिप्राय यह है कि इस जन्म में जो कर्म किये जायंगे उसका फल इस जन्म में अधिक और शेष परजन्म में अवश्य मिलेगा। जैसा कि भगवद्गीता में लिखा है कि "जिन योगियों का योग इस जन्म में मिटु न हुआ उन को दूसरे जन्म में स्वयं ज्ञान होकर योग की बातें विदिति हो जाती हैं ॥ यथा,, शुचीनांश्रीमतांगेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते । अथवायोगिनामेव कलेभवतिधीमताम् ॥ तत्रतंबुद्धिसंयोगं लभतेपौर्वदेहिकम् । ज्योतिष के अनुमार उन के ग्रह ऐसे पड़ते हैं कि जिस से योगी होना सिद्ध हो, इसी प्रकार जिन लोगों ने अन्य जन्म में शुभ वा अशुभ कर्म किये हैं उन का फल इस जन्म में जो कुछ होगा भला या बुरा वह इस ज्योतिष से जाना जायगा। For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ “यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मणः पक्तिं व्यज्जयति शास्त्रमेतत् तमसि द्रष्याणि दीप इव ॥ ____ इसी प्रकार जो २ पूर्वजन्म कृत पाप कर्मों के अशुभ फल इस जन्म में होवेंगे उन के निवारना का उपाय भनेक प्रकार के यत्न वता करके आने वाले कष्टों से बचाकर उयोतिष शास्त्र शुभ कर्म तथा पुरुषार्य करने का उपदेश देता है। जैसे किसी के ग्रह अल्पाय तथा महारोगी होने के पश्ट हों तो उस को ज्योतिषी यह उपाय वतावेगा शि योग और ब्रह्मचर्य करो इस से तुम्हारी प्राय बढ़ेगी, और पाठ पूजा प्रादि अनुष्ठान नित्य करो इस से अरिष्ट तुम्हारा निवारणा होगा। जैसे मार्कण्डेय पुराणा में लिखा हैशान्तिकमणिसर्वत्र तथादुःस्वप्नदर्शने। ग्रहपीड़ासुचोग्रासु माहात्म्यंशृणुयान्मम ॥ ___अर्थात् अशुभ स्वप्नादियों के दर्शन में तथा सूर्यादि ग्रहों की काटन पीड़ानों में मेरे इश माहात्म्य को प्रवण करें। योगाभ्यास करने से साय का बढ़ना तथा रोग और जरा का नाश होना वेद और उपनिषदों में भी अनेक जगह लिखा है ॥ "नतस्यरोगोनजरानमृत्युः प्राप्तस्ययोगाग्निमयं शरीरम,, इत्यादि ॥ (ज्यो० १० पृ० १५ पं०१७ ) हिन्दुओं को तो प्रांख खोलने का भी असमर नहीं मिलता जो कुछ अपने नाम चिट्री पूर्जी में आया उसी में सन्तोष करना पड़ा। पर पूर्जी के भरोसे कौन जाति धनाढय हुई ? ॥ (समीक्षा) सत्य है घर की खांड खरहरी चोरी का गुड मोठा जिन हिन्दुशास्त्रों में अशुभ लक्षण वाली तथा रोगिणी For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयोऽध्यायः ॥ २१ व कुरूपा कन्या के साथ विवाह करने में महादोष लिखा है और ओहिन्दू लोग बिना कन्या को देखे भाले जन्मकुण्डली का ( चिह्न) तक नहीं मांगते प्रर विवाह होने से पर्व ज्योतिपी पति से जन्मपत्री दिखा कर गुण भाव्यादि का वि चार करा होते हैं । फिर उन हिन्दुओं की खान कहते हैं कि आंख उठाने का अवसर नहीं मिलता, धन्य है । अब यहां से गृह्यसूत्रों के आधार पर कन्या वर की परीक्षा का कुछ विचार जो कि विवाह के साथ विवाद आता है लिखते हैं। अपने शास्त्रों से विदित होता है। देखिये प्रापस्तम्ब गृह्यसूत्र में लिखा है कि पन्द्रह १५ प्रकार की कन्याओं से विवाह न करे । ( आपस्तं ० ३ खण्ड सू० १९) दत्तां गुप्तां द्योतामृषभां शरभां विनतां विकटां मुण्ढां-माण्डू पिकां साकारिकां रातां पाठी मित्रां स्वनुजां वर्षकारों वर्जयेत् ॥ ११ ॥ 1 अर्थात् अन्यको दान दिई हुयी अन्य के साथ बिवाहित, छिपी हुई जिनको पितादि प्रशुभ लक्षकों के कारण गुप्त रखते हों, द्योतां मेंठी विषमदृष्टि वाली ऋषभ नाम ऋषभ के स्वभाव बाली, शरभा प्रतिसुन्दरी ( क्यों कि ऐनी स्त्री को जार लोग विशेष चाहते हैं ) व्रत एवं नीति में भी कहा है ( भार्या रूपवती शत्रुः ) निला टेढ़े शरीर वाली, विफ टां फेजी जाघों वाली मुदा के मुण्डित बाली, मण्डूषिका कठोर - ear aौनी, कारिका अन्यकुल में पैदा और अन्य कुल पाली हुई, राता नाम प्रतिकामिनी ( याने बाल्यावस्था में ही चपल स्वभाव वाली ) रविशोल, पाली पशु यों को पालने वाली, मित्रा बहुतों से मिश्रता करने वाली, स्वनुजा - जिसकी छोटी बहिन बहुत दर्शनीय हो - वर्षकारी नियत समय गभनें कम रह कर पैदा हुई हो इन पन्द्रह मकारी कन्या श्रों से विवाह न करे ॥ For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समानामाः ॥ प्रश्न-क्या इस प्रकार की कन्या उमर भर कुमारी रहेंगी, (उत्तर) नहीं २ इसी प्रकार के वनों से इनका ठीक २ साम्य हो जायगा ॥ प्रियपाठक!: इस ग्रन्थ को समाजी लोग भी मानते हैं - मारे मित्र जोशी जी तो सनातन धर्मी हरिभक्त हैं। अवश्य ही इसे मानेंगे । और देखिये चिट्ठीपर्जी भी ॥ ( प्रापरसं० खं ३ सू० १४ से १८ तक) शक्तिविषये द्रव्याणि प्रतिच्छन्नान्युपनिधाय ब्रूयादुपस्पृशेति ॥ १५ ॥ नानावीजानि संसृष्टानि वेद्याः पांसून् क्षेत्राल्लोष्टं शकृच्छ्मशानलोष्टमिति ॥ १६ ॥ पूर्वेषा-मुपस्पर्शने यथा लिङ्गं वृद्धिः ॥ उत्तमं परिचक्षते ॥ १७ ॥ वन्धुशीललक्षणसम्पन्नः श्रुतवानरोग इति वरसम्पत् ॥१८॥ । अर्थात् शक्ति नाम घर बा कुटुम्बके गोगों को सम्मति होतो आगे लिखे मनसे इस प्रकार का भी साम्य मरे। पांच गाला बनावे उन को एक जागह घर के वर कन्या से कहै कि इनमें से एक उठाले ॥ १४ ॥ धान गेहूं जो प्रादि मिलेहुये अनेक अन्द, वेदी की धलि,खेत का ढेला, गोवर और श्मशान की मट्टी इन पांचों को छिपा के उठावे ॥ १५॥ इनके उठाने में अन्न का हेन्बा उठावै तो उन्तानों की वृद्धि, वेदी की धलि उठाये तो यज्ञादि पर्म कागड की वृद्धि खेल के ढेना से धनधान्य की वृद्धि, गोवर से पशुओं की वृद्धि और साघट को मिट्टो उठाने से मरणा की वृद्धि जाने ॥१६॥ उतम नाम अन्त के गरघट के ढेना उठाने को प्राचार्य लोग बुरा कहते हैं उपसे वर कन्या दोन अथवा एक का अवश्य मरणा होगा ॥ २७ ॥ भाई प्रादि अच्छे कुन बाली अच्छे न स्त्रभाव वाली और हाय रेखादि चिह जिस्के अच्छे हों ग्रह उत्तम हों महर्षि पतञ्जलि के लेखा नमार म घर For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वितीयोऽध्यायः ॥ भी (पतिनो पाणि रेखा) आदि न हों तथा क्षयी पेत्तिक मृगी श्रादि अमाध्य रोग वाली न हो ऐपी कन्या से विवाह करै॥१८॥ कुनीन सुशील शुभ लक्षणों वाला वेदशास्त्रों का विद्वान् निरोग यं वर के शुभ लक्षणा जानो ॥ १९ ॥ पाठनगगा ! इम ऊपर के लेख से शकुन प्रश्नादि तथा सामुट्रिक सभी विषय मिटु हो चुके हैं। चिट्ठी पुर्जी भी गिद्ध होगई जोशी जी तो आपस्तम्ब को भी किमी यवन या ईसाई का बनाया कह सकते हैं पर हमारे आस्तिक पाठक अवश्य ही इस लेख से प्रसन्न होंगे तथा लाभ उठावेंगे ॥ (ज्यो० च पृ० १७)-मथरा के चौबे लोगों ने ज्योतिष को यमुना जी में डुबो दिया, न डवाते तो वंश का निवेश होता, मैथिल लोगों ने भी ज्योतिष को अलग कर दिया ज्योतिष देख कर चलाते तो कभी निवेश हो जाते॥ (ममीक्षा) मथरा के चौवे मेथिल ब्राह्मणा मभी लोग ज्योतिष को मानते हैं अनेक चौबे स्वयं बड़े २ ज्योतिषी हैं। सैकड़ों चौवे मैथिल ब्राह्मणों के जन्मपत्र मैंने स्वयं देखे हैं। पर प्राप को बेप्रमाण वात लिखना योग्य न था। अब रहा वंश का निवेश होना, मो जोशी जी जरा शोनिये घर के बड़े बड़े प्राप के यहां भी अव तक ज्योतिष मानते हैं। पर ज्योतिष मानते २ प्राज तक वंश वरावर क्यों चला भाता है ? । हमारे शास्त्र में तो स्वधर्म में अरुचि और अनाभार तथा नास्तिकता करने से वंश का नाश होना लिखा है। ज्योतिष मानने से निवंश होते तो जोशी लोग कभी के निवंश हो गये होते ॥ (ज्यो० च० पृ० १७ )-शरहीन खत्रियों में मौसेरे भाई बहिनों का विवाह हो जाता है चलो निबंश होने से यही प्र. च्छा हुवा ??-( ममीक्षा)-यदि प्रापकी वात मत्य है तो शर. होन खत्री अच्छा काम नहीं करते शिव २ हरे २ भाई बहिन से वंश चलाने की अपेक्षा निबंश होना हजार दर्जे अच्छा है। For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार ममीक्षायाः ॥ (ज्यो० च० ए० १८)-ज्योतिष के प्रान्मार लड़की का व्याह लकपन में होना चाहिये ६ पुश्त सफ नातेदारी में ध्याह नहीं हो मकते। बहुतेरे लोगों में कृतारम्बन्ध इतने साल रहगये हैं कि एक लड़की के लिये ३४ घर बहो कटिगता से मिलते हैं। ज्यो. तिषी कहदेते हैं इन की विधि महीं मिलती इत्यादि । (समीक्षा)-सनातन धर्मी हरिभात जी ! पान्याशा विवाह लड़कपन में झरन की प्रामा केवल ज्योतिष ही नहीं किन्तु धर्मशास्त्र देता है ? देखिये मम्वतस्मृति हो० ६८ विवाहोाष्टवर्षायाः कन्यायास्तुप्रशस्यते । तस्माद्विवाहयेत्कन्या यावन्नर्तुमतीभवेत् ॥८॥ पाराशरस्मृअ०० प्राप्नेतद्वाइशेवर्षयः कन्यांनप्रयच्छति मासिमासिरजस्तस्थाः पिबन्तिपितरोऽनिशम्॥॥ मातापिताचैव ज्येष्ठ मातातथैवच त्रयस्तेनरकंयान्ति दृष्टाकन्यांरजस्वलाम् ॥८॥ ___ पाठकगण ! इभी धर्मशास्त्र के अनुसार काशीनाथ जी भादि ने भी स्मृतियों के ही प्राधार पर “अष्टवर्षाभवेद्गौरी,, इत्यादि. लिखा है। अब रही मातेदारी की बात तो क्या शाप भी शरहीन खत्रियों की भांति मौसेरे भाई बहिनों का ध्याह चलाना चाहते हैं ? ॥ क्योंकि आप लिख भी चुके हैं कि निर्वंश होने से तो यही ( मौसेरे भाई बहिनों का व्याह ) अच्छा राम २ गुमाई जी का वाक्य याद पाता है ___ कलिकाल विहाल किये मनजा। नहिंमाने कोज अनुजा तनुजा ॥ जोशी जी को क्या चिन्ता पड़ी वाह ! वाह !! कृत सम्बन्ध क्या पहिले नहीं होते थे आप क्यों घबड़ाते हैं ? एक कन्या के लिये व भा अनेक वर मिल सकते हैं और बराबर विधि भी मिलता है ॥ मत्य है For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्विनी यो रियः ॥ जेहि जब दिगाम होइ खगेशा। सो कह पश्चिन उगेउ दिनेशा ॥ ( ज्या च० प. १९ पं १४ )-कोई ६० वर्ष का बढ़ा ज्यो. सिषी की गरम मूठ करे तो लड़की उनी के गिर मार दिई जाय इत्यादि-( समीक्षा) यह कथन भी आप का निर्मल है। कोई भी पशिडल रिश्वत लकर बड़ों से विधि नहीं मिलावे. गा। केवल ६० वर्ष के वढ़ों को लड़की ऐसे लोग व्याहते हैं जो लोग रुपये खा कर कन्या को वचने वाले होते हैं ! हम भा. शा करते हैं कि हमारे जोशी जी लोगों को बुरा समझते हैं। आप तो सिर्फ ज्योतिषी पण्डितों से चिढ़े। जिन विचारों ने परिश्रम से अनेक ग्रन्थ गणितादि के बनाये । तथा अनेक यत्र भूगोल खगोल तूरीय इत्यादि रचे। देश देशान्तरों में भारतवर्ष की कीर्ति फलाई । अब भी पञ्चांग गणना इत्यादि परिश्रम केवल लोकोपकार के लिये ही उयोतिषी लोग करते हैं । ६।६ महीने बड़ा परिश्रम करके पैसे का भी लाभ नहीं होता। हाय ऐसे निर्दोष विद्वानों को उन्हीं के वंश में जन्म लेकर मापन कलक लगाया ॥ पाठक महाशय ! फलित और गणित वेद भगवान के दो नेत्र हैं। इस शास्त्र को जो निन्दा कर उसे समझो वेद भगवान के नेत्र फोड़ने का उद्योग करता है । जिस मनुष्य को भजीर्म हो जाता है उसे भन्न जहर मालम पड़ता है। इसी प्रकार जिसे वायुकोप ( वायु ) की बीमारी हो जाती है वह सभी अपने इष्टमित्र कुटुम्ब के लोगों को मारने दौड़ता है। उसे वे शत्ररूप दीखते हैं इसी प्रकार जिन लोगों को प्रज्ञानतारूप अजीर्ण “ अथवा वायरोग हो जाता है " उन को ज्योतिष धर्मशाल भादि के सभी विषय विषरूप जान पड़ते हैं। और पगिहत, शास्त्री, ज्योतिषी, ये शत्रु के तुल्य विदित होने लगते हैं।हा ! हा ! ये लोग न होते तो खेच्छाचार होता For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषधमत्कार समीक्षारः ॥ पर ये धोतो पगड़ी वाले बुरे हैं इत्यादि शोचते हैं ।। गुसांई तु. लसीदास जी ने सत्य कहा है । वातुल भत विश मतबारे । ते नहिं बोलाहिं बचन संभारे ॥ ॥ दूसरा अध्याय समाप्त ॥ ॥ तीसरा अध्याय॥ ( ज्यो. च० पृ० २२ पं० १७)-यह ज्योतिष क्या है मैंने किसी अंगरेजी समाचार पत्र में पढ़ा था जो लोग मई के महोने में पैदा होते हैं वे लम्बे और दीर्घायु होते हैं इसी प्रकार सब महीनों का फल लिखा हुवा था इत्यादि । (समीक्षा) जोशी जी ! अंगरेजी समाचार पत्र में ज्योतिष के किसी ग्रन्थ के आधार पर यह स्थल विचार लिखा होगा यह कोई सूक्ष्म वात नहीं है ज्योतिष क्या है इस का उत्तर आप अपनी भूमिका में पढ़िये। जिस के बल से वा ल्मीकि मुनि ने रामचन्द्र के जन्म से पूर्व रामायणा बना दी थी जिसे आप स्वयं स्वीकार कर चके हैं । पाठक महाशय इस अध्याय में लिखने योग्य और कोई विशेष बात नहीं। ॥ तीसरा अध्याय समाप्त ॥ चौथा अध्याय ( ज्यो० च० पृ. २४ )-चीनवालों ने गणित और फलित विद्याओं को सीखने का बहुत उद्योग किया, चीन में प्राकाशमण्डल २८ भागों में बांटा है जिसे राशिचक्र कहते हैं। ईसमसी से २३१७ वर्ष पहिले महाराज याओ के समय में सीख लिया था इत्यादि ॥ For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थोऽध्यायः ॥ ३३ (समीक्षा) जोशी जी? गणित फलित क्या सभी विद्या भारतवर्ष से सारे भमण्डल में फैली हैं । सभ्यता सुशिक्षा भा, रतवर्ष के ब्राह्मणों ने सर्वत्र फैलाई हैं। देखिये मनजी ने क्या निसा है॥ एतद्वेशप्रसतस्य सकाशादग्रजन्मनः । स्वस्वंचरित्रशिक्षेरन् पृथिव्यासर्वमानवाः ॥ __ महाराज यानो से पहिले के अनेक ग्रन्य अत्र भी भा. रतवर्ष में विद्यमान हैं। भाप को तो ईसामसीह के जन्म से ही वर्ष गणना करनी पड़ती है। पर हमारे यहां तो सृष्टि के मा. रम्भ से घर्षों की गणना होती है। महाराज विक्रम से पहिले युधिष्ठिर महाराज का शक माना जाता था देखिये शककारों का वर्णन त्रिकालदर्शी ज्योतिषियों ने इस प्रकार किया है। उक्तज,युधिष्ठिरोविक्रमशालिवाहनो, नराधिनाथोविजयाभिनन्दनः । इमेनुनागार्जुनमेदिनीविभुर्वलिःक्रमातूषट्शककारकाः कलौ ॥ युधिष्ठिराद्वेदयुगाम्बरायः ३०४४ । कलम्बविश्वे १३५ भखखाष्टममयः १८००० ॥ ततोयुतंलक्षचतुष्टयं ४००००० क्रमात् ।(ज्योवि०) धरादगष्टा ८२१ विति शाकवत्सराः ॥ युधिष्ठिरोभूद विहस्तिनापुरे, ततोज्जयिन्यांपुरिविकमाहूयः॥ शालेयधाराभूतिशालिवाहनः, सुचित्रकटेविजयाभिनन्दनः ॥॥ ( ज्यो० च० पृ. २४ पं०१७)-संस्कृत में गणित का सब से पुराना ग्रन्थ ज्योतिष है जिसे स्लगंढ ने बनाया इस में भाका शमण्डलको २७ नक्षत्रों में बांटा है इत्यादि । For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ (समीक्षा) भारतर्ष के पण्डित गण ! आपने कभी लगंड का नाम भी सुना है? ये लगढ कौन थे? कब हुए? इम की बनाई हुई पुस्तक शायद जोशी जी की लाइब्रेरी में होगी। किसी ऋषि मुनि का माम न लेकर भाप इस लगंढ का नाम कहां से लाये? ज्योतिष के ग्रन्थों का अवलोकन जोशी जी ने किया होता तो ऐसी कट पटांग वास न लिखते । इस का प्रमाणाजमार्दन जी को लिखना था। ईसामसीह से कितने वर्ष पहिले ये लगढ महाशय हुए ये और कौन ग्रन्थ इन्हों ने बनाया ॥ पाठक महाशय ! देखिये प्रति प्राचीन गणित का ग्रन्थ सूर्यसिद्धान्त है ॥ उक्तञ्च शास्त्रमाद्यन्तदेवेदं यत्पूर्वप्राहभोस्करः ॥ युगानांपरिवर्तन कालभेदोऽत्रकेवलम् ॥ अर्थात पहिले भास्कर ( सर्य भगवान् ) ने जो कहा है चही भादि शाख है केवल युग बदलने के हेतु से कालभेद दुभा है। इस बात को सनातनधर्मी पगिडत ही नहीं किन्तु भार्यसमाजी भी मान चुके हैं कि सर्यसिद्धान्त सत्ययुग का बना गणित के ग्रन्थों में सबसे प्राचीन है। जोशी जी ने ल. घंढ का नाम जो लिखा है वह उनके ज्योतिषचमत्कार का ही चमत्कार है॥ (ज्यो० च० पृ० २५ पं० १४) चान्द्रमाम को सौरमान से मिलाने में घट धढ़ अवश्य ही होगी हिन्दुत्रों ने अपने भादि ग्रन्थों में चान्द्रमान ही लिया है । (समीक्षा)-जोशी जी आपके स्लघंढ के बनाये हुये ग्रन्थ में केवल चान्द्रमान लिखा होगा हमारे यहां तो ब्राह्म देव पिश्य प्राजापत्य बार्हस्पत्य सौर सावन चान्द्र और नाक्षत्र ये नौ मान माने जाते हैं केवल चान्द्रमान ही नहीं देखिये सूर्य सिद्धान्त अ०१४ झो०१ ब्राह्मदिव्यंतथापित्र्यं प्राजापत्यंगुरोस्तथा। सौरंचसावनंचान्द्र माझ्मानानिवैनव ॥ For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ach चतुर्थोऽध्यायः ॥ ३५ (ज्यो०० पू० २५५१६)-पुराने ग्रम्पों में कहीं फलिस का वर्णन भी नहीं है, हां नक्षत्रों के नाम वेद और ब्राह्मण में राशियों के नाम रामायण और महाभारत में भी हैं। ग. णित ज्योतिष ही श्रादि ज्योतिष है, पीछे से इन्हीं २७ नक्षत्रों में से किसी को शुभ और किसी को अशुभ मानने लगे ॥ (समीक्षा)-जोशी जी ! पुराने ग्रन्थों का श्राप दर्शन करते तो ऐमा कमी न लिखते । सच पूछो तो धापने केवल रा. मायण महाभारत आदि का नाम ही सुना है । वेद ब्राह्मण तो दूर रहे किन्तु अतिलघु संस्कृत के ग्रन्थों में रघुवंश भी आप का पढ़ा होता तो आप ऐसा न लिखते देखिये रघवंश के तृतीय सर्ग में जिस समय महाराज रघु का जन्म हुआ उस समय के ग्रहों का वर्णन है॥ ग्रहैस्ततःपञ्जभिरुच्चसंश्रयै रसूर्यगःसूचितभाग्यसम्पदम् । असूतपुत्रंसमयेशचीसमा त्रिसाधनाशक्तिरिवार्थमक्षयम् । और देखिये वाल्मीकिरामायण में भी इसी प्रकार भ. गवान् रामचन्द्र जी के ग्रहों का वर्णन है। घा० रामायण वा० कां० स० ११ मो० ८। । १० सतश्रद्वादशेमासे चैत्रे- ५/ नावमिकेतिथौ। नक्षत्रेऽदितिदेवत्ये स्वोच्चसं. स्थेषुपञ्चसु ॥ ग्रहेषुकर्कटे-/ श०) लग्ने वाक्पताविन्दुनास- \ हा कौशल्याऽजनयद्रामंदिव्यलक्षणसंयुतम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षाय ॥ ___ भाषार्थ-चैत्र शुक्ल नवमी तिथि तथा पुनर्वसु नक्षत्र में भगवान रामजी का जन्म हुआ पांधग्रह उच्च के धिमा प्रस्त पड़े हुए थे। कर्क लग्न था बृहस्पति तथा चन्द्रमा लय में पड़े हुए थे। ऐसे समयमें कौशल्याने रामचन्द्र जी को उत्पन्न किया ॥मन्यञ्च, पुष्येजातस्तुभरतो मीनलग्नेप्रसन्नधीः । सार्पजातस्तुसौमित्रिः कुलीरेऽभ्युदितेरवौइत्यादि जोशी जी ने तो अंगरेजी का कोई तर्जुमा रामायण का पढ़ा होगा। यदि पूरा सर्जुमा भी देखा होता तो रामायण में केवल राशियों का नाम है ऐमा न लिखते । अब वेद और ब्राह्मणग्रन्थों से भी ग्रहशान्ति आदि का वर्णन किया जाता है। (अथर्व० कां० १९ । ६।७)-शनोमित्रःशं वरुणःशंविवस्यांग्छमन्तकः।उत्पाताःपार्थिवान्त. रिक्षाः शन्नोदिविचराग्रहाः॥अथर्व का० १९६७ नक्षत्रमुल्काभिहतंशमस्तुनः ॥ १८ ॥ ॥॥ शन्नोग्रहाश्चान्द्रमसाः शमादित्याश्चराहुणा । शन्नोमृत्युधूमकेतुः शंरुद्रास्तिग्मतेजसः ॥ ११॥ ___ आरेवतीचाश्वयुजौभगंमआमेरयिंभरण्य आवहन्तु । १६ । ७।५। । ___अष्टाविंशानिशिवानि शग्मानिसहयोगंभजन्तु मे । योगंप्रपद्येक्षेमंच क्षेमंप्रपद्येयोगंच । नमोहोरात्राभ्यामस्तु । १६ । ८।२ ___ स्वस्तमितंमेसुप्रातः सुसायंसुदिवंसुमृगंसुशकुनं मे अस्तु ॥ ३॥ अथर्ववेदे। १९ ॥ ६ । ७ से १८ । ६ तक। ___ भाषार्थ-मित्र, वरुण, विवस्वान्, अन्तःश प्रोत् काला, पृथ्वी, अन्तरिक्ष, के उत्शत और आकाश में फिरने हारे ग्रह For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थोऽध्यायः ॥ ३७ हमारा कश्या करें १ नक्षत्र उल्कापात से हम को कल्याण रहे २ ग्रह चन्द्रमा प्रादित्य राहु मृत्यु ( धूमकेतु ) ( केतु ) और रुद्र इमारा कल्याण करें ३ रेवती अश्विनी भरणी श्रादि हम को ऐश्वर्य और धन देवें ४, अट्ठाईन नक्षत्र योग रातदिन हम को सुखकारक हों ५ प्रातः सायंकाल अच्छे शकुन सुरुभ ॥६॥ शं देवीशं बृहस्पतिः ॥११॥ देवी और बृहस्पति कल्याण कर ॥ देखिये यदि यह दुःख नहीं देते तो उन की शान्ति के अर्थ प्रार्थना करनी क्यों है ? क्या यह अमर्थ प्रलाप है ? | कभी नहीं । वेद में प्रार्थना इसी कारण है कि ग्रहादि शान्त भी हो जाते हैं और जैसे मनुष्य के कर्म होते हैं तद्नुसार ही ग्रह होते हैं। ग्रह और कर्म एक से ही होते हैं, ग्रहों से मनुष्यों के कर्म जाने जाते हैं, जिन के ग्रह स्पष्ट हैं शुद्ध हैं उन के कर्म प्रत्यक्ष हो जाते हैं उन की जन्मपत्री की बात कभी झूठी नहीं होती। राशियों में ग्रहों के आने से मनुष्यों के कर्मों से सम्बन्ध होता है। क्योंकि (गृह्यन्ते ते ग्रहाः ) ग्रहण करते हैं इसी से उन का नाम ग्रह है । अब यहां से ग्रहशान्ति तथा हवन ब्राह्मण भोजनादि से उपद्रवों का शान्त होना ब्राह्मणा श्रति से भी दर्शाया जाता है । सामवेदीयषडविंश ब्राह्मणे पचमप्रपाठके नवमः खण्डः ॥ स दिवि मन्वावर्त्ततेऽथ यदास्यतारावर्षा - णि बोल्काः पतन्ति धूमायन्ति दिशो दह्यन्ति केतवश्वोत्तिष्ठन्ति गवां शृङ्गषु धूमोजायते गवां स्तनेषु रुधिरं स्त्रवत्यर्थहिमान्नपततीत्येवमादीनि तान्येतानि सर्वाणि सोमदेवत्योन्यभुतानि प्रायश्चित्तानि भवन्ति सोमं राजानं वरुणमिति - For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३८ ज्योतिषनमस्कार समीक्षायाः ॥ स्थालीपाकं हुत्वा पञ्चभिराज्याहुतिभिरभिजुहोति सोमाय स्वाहा, नक्षत्राधिपतये स्वाहा, शीतपाणये स्वाहा, ईश्वराय स्वाहा, सर्वपाप शमनाय स्वाहेति व्याहृतिभिर्हुत्वा सामगायेत् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषा- जब कभी प्राकाश से सारागगा ( सितारे ) बहुत पतित हों, ( टू ) वा मुक्कापात हो वा दिशाओंों में धूम्र प्राडादित रहे अथवा अघि लगी मालूम पड़े, वा राहु केतु का उदय होवे वा गरू के सीगों से धुत्रां निकले, वा अनि समतप्त रहे, वा गऊ के स्तनों से रुधिर निकले, या अत्यन्त हिम (पाला) दृष्टिगत हो ये महाउपद्रव के चिह्न हैं उन के शान्त्यर्थं मम देवता का स्मरण कर हवन करे मोर [ सोमं राजानं वरुणं ] मन्त्र से स्थालीपाक की आहुति देकर सोमदेवता के नाम से घृत की आहुति देवे पुनः व्याहृति होम करके स्वस्तिवाचन करे तो उक्त दोष शान्ति हो || ॥ तत्रैव द्वादशः खण्डः ॥ स सर्वान्दिशमन्वावर्त्ततेऽथ यदास्या मानुषाणामतिधृतिमतिदुःखं वा पर्वता स्फुटन्ति निपतन्त्याकाशादभूमिः कम्पते महाद्रुमाउन्मीलन्त्याश्यानः प्लवन्ति तटाकानि प्रज्वलन्ति चतुष्पादः पञ्चपादी भवन्तीत्येवमादीनि तान्येतानि सर्वाणि सूर्यदेवतान्यद्भुतानि प्रायश्चितानि भवन्त्युदित्यं जातवेदसमिति स्थालीपाकं हुत्वा पञ्चभिराज्याहुतिभिरभिजुहोति सूर्य्यायस्वाहा, सर्वग्रहाधिपतये स्वाहा, किरणपाणये स्वाहा, ईश्वराय स्वाहा, सर्वपापशमनाय स्वाहेति व्याहृतिभिर्हुत्वाऽथ साम गायेत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थोऽध्यायः ॥ 30 भाषार्थ जो कोई पुरुष बुद्धिमान् होकर अत्यन्त दुःख में रहता हो अर्थात् कभी क्लेश रहित न हो अथवा जिस किसी को प्राकाश से पर्वत टूट २ गिरते मालूम पड़ते हों अथवा पत्थर पीजैं वा पत्थर वा पाषाणपात्र टूट जाय अथवा भूकम्प होय, या स्थूल वृक्ष मूल से उखड़ पड़े, वा नदी का तट असिम तप्त रहे चौपाये पात्र २ पगों वाले हो जांय तो नहान् विघ्न के लक्षण जानना । इन के शान्त्यर्थ सूर्यदेवता का पूजन करे और ( उदृश्यं जातवेदसं० ) मन्त्र से स्थालीपाक की प्राहुति देखे पुनः सूर्य्य नारायण के पांच नामों से घृत का हम कर व्याहृति हवन करे तदनन्तर उक्त मन्त्र का प्रष्टो. तर शत अप करके स्वस्तिवाचन करे तो उक्त दोष की शान्ति होवे || पाठक महाशय ! यह दिग्दर्शनमात्र ही दिखलाया गया है । ग्रन्थवृद्धि के भय से अधिक नहीं लिखा। इन प्रमाणों से साफ २ ग्रहों की शान्ति तथा भूकम्प उल्कापात केतुदर्शन । मादि की भी शान्ति वाराही संहिता आदि ज्योतिष के ग्रन्थों में जिस प्रकार वर्णित है वह स्पष्ट प्रकट हुई। किसी प्रास्तिक हिन्दु को इस में कुछ भी शंका न रहेगी । हठीलोग मानें या न मानें। मायुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थ सुश्रुत के अनुसार भी ग्रहों की पीड़ा देना तथा शान्ति का वर्णन करते हैं इस आग्रन्थ को समाजी तक मानते हैं स्वामी द०जी ने भी सत्यार्थ प्रकाश के कई एक स्थलों में इस का नाम लिखा है । भूतविद्या नाम देवासुरगन्धर्वयक्षरक्षः पितृ पिशाचनागग्रहाद्युपसृष्टचेतसा शान्तिकर्म्म वलिहरणादि ग्रहोपशमनार्थम् ॥ सुश्रुत अ०९।१५ भाषा - देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षम, पितृ, पिशाच, नाग, श्री नवग्रह, सूर्यादि (तथाबालग्रह) इन के लगने से पीfer चित्त वालों को ग्रह आदि दोष दूर करने के अर्थ शान्ति कर्म तथा बलिदान आदि कर्म भूनविद्या कहलाती है ॥ For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४. ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ अन्यच्च। नक्षत्रपीडाबहुधा यथोकालाद्विपच्यते। तथवारिष्टपाकञ्चवतेबहुधाजनाः॥सू०अ०२८।४। भाषा-जैसे नक्षत्र पीड़ा ( ग्रहपीड़ा ) बाधा काल पाकर पकजाती है । उसी भांति अरिष्ट भी काल पाकर पक जाता है। अपिच-संस्थिरत्वान्महत्वाच धातूनां क्रमणेनच। निहन्त्यौषधवीर्याणि मन्त्रान्दुष्टग्रहो यथा ॥ सु० अ० २३ । २३ ॥ भाषा-चढ़ा हुधा ब्रा स्थिर होने और बढ़ जाने से तथा धातुओं के अाक्रमया से औषधि के गुणों को मष्ट कर देता है जैसे खोटा ग्रह मन्त्र नाम सुविचारों को नष्ट कर देता है। और देखिये धर्मशास्त्र के प्रवर्तक महर्षि याज्ञवल्क्य जी ग्रहों के आधीन सुख दुःख तथा उन का पूजन शान्ति प्रादि लिखते हैं। यश्यस्ययदादुष्टः सतंयत्नेनपूजयेत् । ब्रह्मणेषांवरीदत्तः पूजितापूजयिष्यथ ॥८॥ ग्रहाधीनानरेन्द्राणा मुच्छाया:पतनानिच, भावाभावौचजगत-स्तस्मात्पूज्यतमाग्रहाः ॥६॥ या० व० स्मृ० शां० अ०८।६॥ भाषा-जिस को जो ग्रह प्रतिकूल हो तो वह बस ग्रह की पूजा करै । ब्रह्माजी ने इन्हें घर दिया है कि जो इन को पजेगा उन्हें यह भी तुष्ट करेंगे ॥ राजानों की बढ़ती या घटनी ग्रहों के प्राधीन है और जगत् की उत्पत्ति विनाश भी उन्हीं के प्राधीन हैं इस लिये इन की पूजा भली भांति करनी चाहिये। श्रीकामःशान्तिकामोवा ग्रहयज्ञसमाचरेत् । वृष्टयायुःपुष्टिकामोवा तथैवाभिचरत्नपि॥५॥ सूर्य:सोमोमहीपुत्रः सोमपुत्रोबृहस्पतिः । शुक्र: शनिश्वरो राहुः केतुश्चेति ग्रहाः स्मृताः ॥६६॥ या० व० शां०॥ For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतोऽध्यायः ॥ भाषा-श्रीकाम, तथा शान्तिकाम, दृष्टि, आयु, अथवा पुष्टिकार्य, के अर्थ और शत्र के जपर अभिचार करने के निमित, ग्रहों का या ( ग्रहयाग ) करे । सूर्य सोम भौम वध गुरू भृगु शनि राहु केतु ये नव ग्रहों के नाम हैं। सूर्य सिद्धान्त के गंलाध्याय में भी स्पष्ट है ॥ सम्पूज्यभास्करंभक्तया ग्रहान् भान्यथ गुह्यकान।। सूर्य तथा अन्य ग्रहों की पूजा करै नक्षत्र तथा गुह्यकों की पूजा करें। . पाठक महाशय ! जैसे वेद,ग्रामस,धर्मशास्त्र, प्रायुर्वेद, रा. मायणादि के शत प्रमाणों मे फलित की सत्यता और ग्रहों का सुख दुःख देमा, जग को शान्ति साफ २ प्रकट हुई। इसी प्र. कार महाभारत तथा अन्य पुराणों में ठसाठस यह विषय भरा हुआ है।२। ४ महीं किन्तु सैकड़ों प्रमागा हम दे सक्ते हैं, ग्रन्थवृद्धि के भय से अधिक नहीं लिखे। हमारे जोशी जी ने लिखा था कि पुराने मन्धों में कहीं फलित का वर्णन नहीं, सोनम का कथन कपोलकल्पित भिद्ध हुमा । माप ने लिखा था कि पीछ से २७ नक्षत्रों में किसी को शुभ किसी को प्रशुभ मानने लगे, मो वात भी प्रापकी निर्मल होकर कट गयो। श्राप हरिभक्त हैं अवश्य आपने देखा होगा कि श्रीमद्भागवत में भी लिखा है कि जिस समय भगवान श्यामसुन्दर का जन्म हुमा घा ग्रह नक्षत्र उस समय शुभ पड़े हुए थे भशुभ नहीं । अथसर्वगुणोपेतः कालःपरमशोभनः । या वाजनिजन्मः शान्तसंग्रहतारके ॥ भा० स्कं० १० अ०३।२ ___ यहां तक तो डिप्टी साइव फलित के ऊपर ही कृपा किये थे। पर यहां से आगे गणित की भी जड़ खोदने बैठे हैं। (ज्यो० च० पृ० २६ पं०८)-यूनानियों ने गणित ज्योतिप की बड़ी उन्नति किई, सूर्यसिद्धान्त अभिष्ठसिद्धान्त, रोमक For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ सिद्धान्त, पौलस्त्यसिद्धान्त, पैतामहसिद्धान्त इत्यादि पुसतक इसी समय के बने हुए हैं। (समीक्षा)-शाह या! तो गणित विद्या भी यनानियों के समय से ही चली फाहिये, द्वापर त्रेता में पञ्चांग गणना अधया अन्य गणित कैसे होता था ? किस ग्रन्थ से, जोशी जी ! मापने सूप पता लगाया, धन्य हो ! मेरी राय से तो नाप एक धेर की उत्पत्ति की भो पुस्तक लिख हालिये, पाप के लिये सहज है। क्योंकि लिख दिया कि वेदभी यनानियों में बनाये बस ॥ पाठक महाशय ! ध्यान दे कि सूर्यमिद्धान्त सत्ययुग में धना है * मय नामा दैत्य उभ मामय राज्य करता था।र्याद हमारे जोशी जी सर्यसिद्धान्त का अवलोकन करते तो यमा. मियों के समय का बना कदानि न लिखते केवल नाम मात्र मिद्धान्तों का सुन लिया होगा । देखिये-- अल्पावशिष्टेतु कृते मयो नाम महासुरः । रहस्यं परमं पुण्यं जिझोसुर्ज्ञानमुत्तमम् ॥२॥ वेदाङ्गमयमखिलं ज्योतिषों गतिकारणम् । आराधयन्विवस्वन्तंतपस्तेपेसुदुश्वरम्इसूर्यसि०अ०१ भाषार्थ-मत्ययुग का कुछेक अंश शष रहते हुए महा असुर मय ने परम पवित्र रहस्य वेदाङ्गों में श्रेष्ठ समस्त ज्योतिषों के कारण रूप उत्तम ज्ञान को प्राप्त करने के लिये जिज्ञासु होकर सूर्य भगवान की आराधना रूप प्रति कठोर तप किया, सूर्य भगवान के प्रसन्न होने से यह ज्ञान उभे प्राप्त हुआ, वही संवाद सूर्य सिद्धान्त है । और शिरोमणि सिद्धान्त में लिखा है कि ब्रह्मा जी ने शिशुमार चक्र की रचना किई, उसी समय ज्योतिष शास्त्र की रक्षमा हुई, वेद के अङ्क रचे नहीं ____ * नोट-अष्टाविंशाधगादस्माद्यातमेतत्कृतं युगम् ॥ अर्थात यह २८ वां सत्ययुग व्यतीत हुआ ( स० सि० ) For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चत पोध्यायः॥ सो भास्कराचार्य जी लिख जाते कि यूनानियों के समय से सिद्धान्त विद्या चली है । देखिये सिद्धान्त शिरोमणि कालमा. नाध्याय कोक । १० । १२॥ "वेदास्तावद्यज्ञकर्मप्रवृत्ता यज्ञाःप्रोक्तास्तेतु का. लाश्रयेण । शास्त्रादस्मात् कालबोधोयतः स्याद्रे. दाङ्गत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्मात् ॥ शब्दशास्त्रं मुखं ज्योतिषं चक्षुषी नात्र मुक्तं निरुक्तं च कल्पः करौया तु शिक्षाऽस्य वेदस्य सा नासिका पादपद्मद्वयं छन्द आद्यर्बुधैः ॥१०॥ सृष्ट्वाभचक्र कम. लोवेन ग्रहै: सहैतद्गणादिसंस्थैः । इत्यादि ॥ भावार्थ-वेदोक्त यज्ञों के काल निर्णय के निमित यह वेदा. न उपोतिष बना । शब्द शास्त्र मुख, ज्योतिष नेत्र, निरुक्त कर्ण तथा हल्प हाथ, शिक्षा नासिका और छन्दःशास्त्र पाद ये सब वेद के अंग ब्रह्मा जी ने कहे हैं। रागिमक्षत्र चक्र ] शिशुमार भी रचना किई। पाठकगण ! सिद्धान्त ग्रन्थों में कहीं २ फलित का भी वसन है। पैतामह मिद्वान्त भी पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने बनाया था हम को हम ब्रह्मसिद्धान्त से सिद्ध करते हैं। उक्तञ्च ॥ ब्रह्मोक्तंग्रहगणितं महदाकालेन यदखिलीभूतम्। अभिधीयतेस्फुटतत् जिष्णुसुतब्रह्मगुप्तेन ॥ ____ भाषा-ब्रह्मा जी की बनाई हुई उक्त ग्रहगणाना प्राचीन होने से निकम्मी हो गई । इस कारमा जिष्णु के पुत्र ब्रह्मगुप्त ने स्फट (चालन ) करके ब्रह्म सिद्धान्त प्रथक घमाया।हमी क्रमसे अन्य वसिष्ठसिद्धान्त पौलस्त्यनिद्धान्त भौममिद्धान्त सभी प्राचीन काल के ऋषिमुनियों के समय में बने हैं। (ज्यो० ० पृ०२७) पीछे से आर्यभह ने प्रार्यसिद्धान्त वराह ने पञ्चभिद्धान्तिका और ब्रह्मणिद्धान्त रचे । ब्रह्मगुप्त ने For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ ६२८ सन में ब्र०सि० लिखा, भास्करने ई० ११५० में शिरोमणि सिद्धान्त रचा, गणेश जी के ग्रहलाघव बनाया, हमारे गणित की इतिश्री हुई वैसे तो और भी ग्रन्थ हैं पर मुख्य यही हैं। (समीक्षा) हमारे जोशी जी ने गणित के इन ग्रन्थोंका तो अंट संट समय लिखही दिया, पर अपने पृ०२४ पं०१४ में लिखे हुए लगंट के ज्योतिष का कुछ पता न लिखा, जोषी जी याद रखिये ! वराहमिहिर जी ने पञ्चसिद्धान्तिका अवश्य व. नायी, पर इममिद्धान्त नहीं बनाया और ब्राह्मगुप्त भी ६२८ ई० में नहीं हुए, आप ने उनका समय भी ठीक नहीं लिखा है। ब्रह्मगुप्त का समय कतिपय विद्वानों ने इस प्रकार निश्चय किया है कि ब्रह्मगुप्त के समय चित्रा नक्षत्र १८३ अंश में घा बराह के समय से चित्रा नक्षन्न तीन अंश पूर्व में अग्रसर हुभा है। अत एव ब्रह्मगुप्त वराहमिहिर जी से २१५ वर्ष पीछे भर्थात् सन् १५९ ई० में हुए थे और बराहमिहर जी का समय आगे लिखेंगे॥ भाप ने लिखा है कि हमारे गणित की इतिश्री हुई, सो पाठक ! हमारे गणित की महीं किन्तु इन के लगंट की इतिश्री हुई होगी। क्योंकि भास्कराचार्य के बाद भी तत्वविवेक सिद्धान्त तथा परमसिद्धान्तादि ग्रन्थ बने और कई करणाग्रन्थ सारणी भादि वर्मा और लम मिष्टान्त इस से पूर्व वना है। और भार्य भट्ट सिद्वान्त भी सन् ईस्वी से कई वर्ष पहिले धन धकाथा । कोगन क माहब का मत है कि ग्रीमीय बीजगणित के प्रा. विष्कारक डिग्रोफाम टुम के समय भार्यभह वर्तमाम थे। हि. प्रोफानटुस सन् ३१९ के प्रागे पीछे किसी समय में हुआ था। याव अपवं चन्द महोदय ने सिद्ध किया है। कि मार्यभट्टमहाराज युधिष्ठिर जी से सोलह शताब्दी के पीछे हुए ॥ (ज्यो० ० ० २७ पं०१४) फलित का नाम पहिले प. हिल चीन और कलहिया के इतिहास में है फिर मिम वालों ने और यूनानियों ने सीखा इत्यादि । For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थोऽध्यायः ॥ ( समीक्षा)-चीन तथा कनडिया के इतिहास में नहीं किन्तु फलित का नाम इतिहास पुरागा धर्मशाख और ह. मारे वेद ब्राह्मण उपवेदादि में भगा हुआ है। जिसे हम प्रमाण देकर पुष्ट भौर सिद्ध कर चुके हैं। माप भी भूमिका के पृ.१ में गर्ग, पराशर,भृगु, नादि मुनियों का नाम लेकर फलित को मान चुके हैं। पर मित्रवर ! भापके लगढ़ का नाम कहीं नहीं देखा, ये म. हात्मा कौन थे आप ही जानते होंगे ॥ ( ज्यो० १० पृ० २७ । २८ )-वराहमिहिर सन् ५०६ ई० में मानन्ति झा देश के कपित्थ ग्राम में उत्पन्न हुए। आदित्यदास ब्रमण का लड़का था यनानियों का यश सुन कर पश्चिम को गया, सराहमिहिर ने काबल में जाकर फदित सीखा और अ. वन्ति का में भाकर शहज्जातक घजातक रचे ।। (समीक्षा)- महाशय जी ! आपकी पुस्तक के जिस पृष्ठ को देखते हैं उसी पृष्ठ में मिला लेख तथा वेप्रमाण बातें देखने में माली हैं। जोगी जी ! वराहमिहिर जी सन् ५०६ ई० में नहीं, किन्तु ईसा से ५६ वर्ष पहिले हो चुके थे। हमारे डिप्टी साहब नं कहीं यह न लिख डाला कि ईसामसीह से इतमे वर्ष वाद मष्टि हुई, तपा इसने वर्ष बाद बेद बने इत्यादि इतनी कृपा को क्योंकि जितनी मारी बातें आपने लिखी हैं सभी में च. मत्कार देखा । पाठक महाशयो ! वराहमिहिर जी महाराणा विक्रम के समय हुए घ, हारण कि कालिदास जी अपने ज्योतिर्विदाभरगा ग्रभ्य में लिखते हैं कि विक्रम की पगित सभा के मौरन थे उनमें से वराहमिहिर जो गणक रत्र कहलाते थे। उक्तज-धन्वन्तरिक्षपणकाऽमरसिंहशंकु वेतालभघटखर्परकालिदासाः । ख्यातोवराहमिहिरोनपतेःसभायां रत्नानिवैवररुचिर्नवविक्रमस्य॥ भाषा-धन्वन्तरि, क्षपणाक, अमरसिंह, शंकु, वेतालभह, घटसर्पर, कालिदास, वराहमिहिर, वररुचि, ये राजा विक्रम की सभा में मौ रन थे॥ For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार सगीक्षायाः ॥ . अन्यच्च-शंक्वादिपण्डितवराः कवयत्वनेके ज्योतिर्विदः समभवंश्चवराहपूर्वाः श्रीविक्रमोऽर्कनृपसंसदिमान्यबुद्धि-स्तैरप्यहनृपसखाफिलकालिदासः ॥ काव्यत्रयं समुदितंसुमतिकृद्रघुवंशपू र्वम् । इत्यादि ____ भाषा-शंफ प्रादि श्रेष्ठ पणिहत अनेक कवि तथा वराहमिहिरादि ज्योतिर्विद विक्रम महाराज की सभा में थे। मैं कालिदास भी उमी भा में मान्य युद्धि था। रघुवंश प्रादि तीन काव्य मैं ने बनाये इत्यादि लिखा है। पाठकमगा ? कालिदास जी के कथन से भली भांति विक्रम के समय वराहमिहिर जी का होना सिद्ध हो गया। प्रवरही कायल में जाकर फलित सीखने की बात सो वेप्रमाण मिथ्या यात कोई भी नहीं मान सकता। पर शोक है कि जोशी जी मे बेधडक ऐमी झठी बात क्यों लिख दी। सहज्जातक आदि में कहीं भी नहीं लिखा है कि मैंने काबुल में यह विद्या सीखी, यदि श्राप के पास सार या पत्र वराहमिहिर जी का हाल में प्राया हो तो भाप साने । देखिये-आदित्यदासतनयस्तदवाप्तबोधः, कापित्थकेसक्तिलव्धवरप्रसादः । बृज्जा अ . २६--आवन्तिकोमनिमतान्यवलोक्यसम्यक-होराम्बराहमिहिरोरुचिराजकार ॥६॥ ___ भाषा-अ वन्तिक देश के उज्जयिनीनगर में प्रादित्यदास के पुत्र बराहमिहिर ने मुनियों का मत अवलोकन कर सथा सर्यनारायगा से बर पाकर और अपने पिता से बोध नाम विद्या पढ़ कर यह ग्रन्थ रचा। वराहमिहिर जो साफ लिख चुके हैं कि पिता से पढ़ना मुनियों के ग्रन्थों को देख कर बहज्जातक रचना । जोशी जी ! पाप कावन इन्हें क्यों ल घले ? ।। For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थोऽध्यायः ॥ ( ज्यो० ० ० २८ पं० ११) में एक विचित्र धाम हिष्टी साहब ने लिखी है कि बदज्जातक के २८ वें अध्याय के 9 वें सोक में वराहमिहिर जी लिखते हैं। पृथुविरचितमन्यः शास्त्रमेतत्समस्तं, तदनुलघुमयेदंतत्प्रदेशार्थमेव,, इत्यादि अथोत फलित यवनेश्वरों में विस्तार पूर्वक लिखा उत्रीको वराहमिहिर जी ने संक्षेप से लिखा है। (समीक्षा)-जोशी जी! बहज्जातक की पुस्तक यदि साप देख लेते तो धोखा न देते । पाम दीजिये तो सहजातक के सब २६ अध्याय हैं २८ वां अध्याय छह जातक का प्राण तक किसी ने नहीं सुना होगा। ये दो अध्याय हिष्टीसाइव ! क्या आपने धनाये या घगष्ट भी बना गये? । मत्य कहिये चौदह १४ वां स्कन्ध भागवत भी और २० वा अध्याय गीता भी कदाचित् माप को पाहिहार्ट होगी। पृथविरचितमन्यैः २६ वे मध्याय के इस लोक का अभि. प्राय यह है कि यवमादि अन्य भाचायों में इस शास्त्र को विस्तारपूर्वक बनाया। इस मे पूर्व अपमे अनेक प्राचार्यों के नाम घगह जी लिख चुके हैं । “मागे मुनिमतान्यालोक्य सम्यक" लिखते हैं। पाठक गण ! भाज कल का कोई लेखक पोगकी कोई पुस्तक लिखे अस में यह भी लिखा हो कि थियासाफी वालों ने योग फिलोसफी की अच्छी पुस्तक लिखी है । अथवा कोई लिख दे कि प्रोफेसर मैक्समूलर ने संस्कृत की कई पुस्तक लिखीं। तब क्या हम का यह अर्थ होगा? कि कर्नल अलकाट का बीवी वसन्ता ने यह विद्या फेलाई । पहिले कोई ग्रन्थ न था।छत्रीप्रकार यवमाचार्य का नाम यहां पर लिखा है। आगे जोशीजी लिखते हैं कि बृहज्जातक से पहिले कोई जातक न घा, होता तो वराहमिहिर जी उन प्राचार्यों का कहीं नाम न लिखते।। बराह जी को फक्ति का जन्मदाता कहना चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ (समीक्षा)-आप ने सहज्जातक नहीं देखा घराह जी ने पिसेम विष्णगुप्त देव स्वामी मणि त्य शक्ति जीवशर्मा मत्या. चार्य इत्यादि अनेक प्राचार्यों के नाम लिखे हैं। देखिये सह. ज्नातक ७ तथा और १० ___ आयुर्दायविष्णुगुप्त तिचैव देवस्वामीसिद्ध सेनश्चचक्र । इति स्वमतेन किलाहजीवशा " तथा सत्योक्ते ग्रहमिष्टम् ॥ ___ और “ मयययनमणित्यशक्तिपूर्व ,, इत्यादि लिया। ऋषि मुनियों के बनाये और भो भनेक ग्रन्य थे। गर्ग, पराशर, नारद, संहिता जेमिनिमत्र, प्रभृति उन्हीं के आधार पर यह ग्रम्प बना साक लिखा है। मुनि मतामि अवलोक्य हमीप्रकार बाराही संहिता में भी पराशर गर्ग देवल मादि ऋषियों के नाम लिखे हैं शुक, मणिस्थ, बादरायणा, जैमिनि, सभी भाचार्य, जी से पहिले हो चुके थे पीछे नहीं ॥ ( ज्यो० १० पृ० २८ )-नीलकण्ठ जी ने फारसी में ताजक बनाया और षट्पञ्चाशिका, पारमोबिस्लाम, यवमनातक, समलशाख, केरल सारावली, और केशवी फछली पुस्तक लिखी गयी । (समीक्षा)-देखिये इन पुस्तकों का ठीक २ पता हम लिखते हैं षट्पञ्चाशिका वराहमिहिर जी के पुत्र ने बनायी, पारसीविलास कुछ नहीं जातकों के कुछ लोक नयाच खानखाना ने फारसी में बनाये, भकवर के समय की बात है कि नसे आज कल अंगरेजी में कई ज्योतिष की पुस्तकों का अनुबाद छप गया है, उसी प्रकार ये भी हैं। उनीप्रकार यवन जातक हमारे ऋषि मुनि प्राचार्यों का मत लेकर यवनाचार्य ने बनाया, नीलकराठी ताजिक ग्रन्थ है। यह विद्या भी यवनों के राज्य समय में मील कराठ प्राचार्य ने संस्कृत में बनाकर अपने यहां लौटाई । क्योंकि यवन लोगों के अपनी भाषा में ये ग्रन्थ वनाये शोर तानिक नाम र क्वा । For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ विशाल इशराफ इत्यादि नाम रखकर योगों के नाम बदल दि. ये । कतिपय विद्वानों का मत है कि आदित्यदास जी से पढ़ • कर यबमाचार्य ने सानिक रथे * कहा भी है। उक्तञ्ज-ब्रह्मणागदितंभानो र्भानुनायवनायतत् । __यवनेनचयत्प्रोक्तं ताजिकतत्प्रचक्षते ॥ इस से स्पष्ट है कि यह विद्या हमारे ही यहां से यधनाचार्य को प्राप्त हुई थी। यवन के रचे हुए होने से साजिक में उक्त फारशीय शब्द भागये हैं। यह बात भी ज्योतिविद् पगिडत मा. नते हैं। इसीप्रकार रमान भी यहां से ले कर यवनों ने वि. स्तारपूर्वक वगा लिया होगा। यदि यवनों की विद्या ही रमन को मान लो ता भी विशेष हानि नहीं । कारण कि हिन्दू ज्योतिष का रमन से कुछ सम्बन्ध नहीं है। प्रश्न-ज्योतिष के विद्यार्थी रमल मीखने की क्यों चेष्टा करते हैं ? और कई ज्योतिषी रमन से प्रश्न आदि भी क्यों करते हैं। 'करार-बम में हानि ही क्या है? जातिद्वेष फलितशाख में श्या ? यह धर्म का विषय तो है ही नहीं, (फले प्राप्त मलन कि प्रयोजनम् ) यह न्याय है, ग्राम से काम, या गुठली से, (मीचादप्युतमा विद्याम्) यदि कोई माज कल किसी यूरोपियन में साइन्स-मादि पढे या साइन्स सीखकर रेल तार चलाने लगे तो उस को बुरा समझोगे या अच्छा ? थर्मामेटर से बखार की - * पवनाचार्य ये यान नहीं थे? किन्तु ज्योतिष के पूर्णवि. द्वान बड़ेदयालु ब्राह्मण थे । इन्हें ज्योतिषविद्या फैलाम का बड़ा शौक था, पात्र कुपात्र का विचार न करके जो पास पाया उसे पढ़ाया करते थे। एक समय यत्रनलोग ज्योतिषविद्या के जिज्ञासु हो कर इनके पाम आये, इन्हों ने उन यवनों को पढ़ाया। तभी से यवमा वार्य प्रसिद्ध हुए। For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ जांच कोई वैद्य भी करले तो इस में या हानि है ?। इसीम. कार रमल से प्रश्न करना भी समझो ॥ केशवी में कुछ २ गणित है एक ब्राह्मण की बनाई है। साराषली वराहमिहिर जी ने रची भली किसी अनपढ़ ग्रामीण मनुष्य ने बनाई है इस में भाषा के दोहा है। (ज्यो०० पृ०२८ )-जोशी जी लिखते हैं कि वाराहीस. हिता मुझे मिली है इस के १०० सौ अध्याय ।“ गागीय शि. खिचारं पराशरमसित देवलकंचा, घराह जी कहते हैं कि हमने गार्गी शिखिधार पराशर देषल मादि से लिये । इत्यादि (समीक्षा)-जोशी जी | वाराहीसंहिता के मी म० नहीं, किन्तु १०५ अध्याय है। मुनियों के अनुकूल बस पुस्तक को यहां आपने भी मान लिया ? धन्यवाद ! (ज्यो० च० पु० २९ ) फलित का अनुमान ग्रहण से धुमा। इस पुस्तक में लिखा है कि भाषण के महीने में ग्रहण हो तो काश्मीर चीन यवन सत्यादि का गाश हो "काश्मीर धीम यवनान, तथा "काम्बोजचीमयवमान,, इत्यादि इस से मेरा अनुमान है कि फलित चीन से चला है ॥ (समीक्षा)-बाप का अनुमान ठीक नहीं है क्योंकि एक चीन का नहीं, अनेक देशों के नाम इस ग्रन्थ में लिखे हैं। खिये-अ० १४ ॥ अथ दक्षिणेनसंकाकालाजिमसौरिकीर्णतालिक कप०, इत्यादि 'श्रामेयांदिशि कोशलकलिंगवतोपबङ्गगठरांगाः, इत्यादि और पांच अध्याय में “पाउचालकलिमशरसेनाः, यहां से अनेक देशों के फल बैशाख से १२ महीनों के लिखे इस से चीन से फलित का चलना सिद्ध नहीं हो सकता सूर्यसिद्धान्तादि में- उदसिद्धपुरीनाम कुरुवर्षेप्रकीर्तिता । पश्चिमेकेतुमालाख्ये रोमकाख्यःप्रकीर्तितः॥ शिरोमणी-लंकाकुमध्येयमकोटिरस्याः । तथा-भार. तवर्षमितोहरिवर्षम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुपाध्यायः॥ इत्यादि से गणितविद्या यरोप अमेरिका अपना लंका से चली मानोगे क्या? नहीं २ केवल नाम उन देशों के हम में पाये हैं। किसी पुस्तक में किसी देश का नाममात्र प्राजाने से उस ही देश से यह विद्या फैली यह कहना वेसमझी नहीं तो और क्या है? ॥ (ज्यो० १० पु०३० )-एक और अध्याय में भूकम्प का फल लिखा है, कि भूकम्प से जिस का भला बुरा होगा। और इन्द्रधनुष के दीखने से किन २ लोगों को शुभ अशुभ होगा फलितविद्या यही है॥ (समीक्षा)-जोशी जी | माप शाखविरुद्ध धात लिमा रहे सभी इस चोपे अध्याय ही में सामवेद के २६ व ब्राह्मण के प्रमाण से भकम्प प्रादि को शान्ति के अर्थ सोमदेवता का पवन हम लिख चुके हैं (तारावर्षाणि चोलकाः पतन्ति धमायन्ति०) तथा-माकाशाद्भूमिःकम्पते इत्यादि-जब कि वेद भाज्ञा देता है कि इस दुष्ट फन की शान्ति करो। फिर माप क्यों वेदोक्त विषय की निन्दा करते हैं? मनु जी ने कहा है “नास्तिकोवेद निन्दकः,, जो वेदोक्त विषय की निन्दा करे वही नास्तिक है। पाठक ! अष्टमखण्ड में इन्द्रधनुष की भी शान्ति है। मणिधनुःपश्येच्छशकाग्रामंप्रविशन्ति० इत्यादि जोशी जी ! देखिये यही फलितविद्या वेद ब्राह्मण सभी के अनुकूल है या नहीं ॥ ( ज्या० ० ० ३०) फलितपुस्तकों में यवनों का बड़ा भादर किया है, "यवनेम कषितं महात्मना,,-यवनाचा: “त. पाह-वद्वयवनः, इत्यादि लिखा है। (समीक्षा)-यवनाचार्य कौन थे? यह हमारे पाठकों को पहिले ही विदित होचुका, यदि यही मान लिया जाय कि पवनाचार्य कोई म्लेकश थे, तब भी कोई हानि नहीं है। जोशी जी का यवनों से बड़ा प्रेम है, क्योंकि For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२ ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ __ जेहिके जेहि पर सत्य सनेहू-सो तेहि मिलहिं न कछु सन्देहू। ___फलित के ग्रन्थों में ऋषि मुनि तथा अन्य प्राचार्यों के नाम आप को दृष्टि में नहीं पड़ने, इस का क्या कारण है ? । ___ रैम्यात्रि हारोत बसिष्ठ पराशराद्यैः,इत्यादि ज्यो० अ० १।१ विलोक्य, गर्मादिमुनिग्रणीतं, वराहलल्लादिकृतं च शास्त्रम् ॥ __हमारे ऋषि महर्षियों को लाड यमन को आप सूख ले पाते हैं । ४० ३१ पं०१२ में प्राप लिखते हैं कि हिन्दुओं के फलित के गुरु यही यवन अर्थात् यूगानी थे॥ जोशी जी! हिन्दुओं के फलित के गुरु तो १८ ऋषि थे। पिता. मह व्यास, अभिष्ठ, पराशर, नारद, गगं, मरीचि, ननु, अङ्गिा लोमश. पोलिश, गुरु शौनक इत्यादि ज्योतिषशास्त्र इन महर्षियों के द्वारा प्रवृत्त हुआ, यवन अथवा स्वामी सघंट के गुरु होंगे हिन्दुनों के नहीं ॥ (ज्यो. च० पृ० ३१ ) अनफा सुनका इकबाल इत्थशान इस प्रकार यवनों के शब्द फलित में मिलते हैं। संस्कृत के अन्य ग्रन्थों में नहीं ॥ (समीक्षा)-जोशी जी ! ताजिक नीलक गठी के अतिरिक्त फलित के किसी अन्य में इस प्रकार के शब्द नहीं हैं। नील कराठी में इस प्रकार के शब्द होने का कारण हम पहिले लिख चुके हैं। संहिता और मुहर्तग्रन्थ जातक भादि के ग्रन्थों में एक शब्द क्या एक साक्षर भी इस प्रकार का आप नहीं दि. खा सकते । षोडशयोगों के अतिरिक्त नीलकगठी में भी ऐसे शब्द कम मिलेंग। ऐसी दशा में फलित के सभी ग्रन्थों पर टूट पहना प्रापको योग्य नहीं । पाठकगण ! एक भलोपनिषद पुस्तम है जिस्में फारसी अरवी के शब्द भी आते हैं-यपा For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५३ अस्माल्ला इल्ले मित्रावरुणा दिव्यानि धत्ते । इल्लल्ले वरुणो राजा पुनर्ददुः ॥ हयामित्रो इल्लां इल्लल्ले इल्लां वरुणो मित्रस्नेजस्कामः ॥ इत्यादि इसे देख क्या कोई यह कहेगा कि घेद उपनिषद् यधनों के बनाये हैं नहीं २ कदापि नहीं तो फिर षोड़शयोगरूपी अलोपनिषद् को सुनपा अनफा कयालरूपी ऋचाओं से फलित के ग्रन्थों को यवनों ने बनाया है ऐसा कहना . नुचित है या नहीं? ॥ इस अध्याय में जोशी जी का सारा जोर था सो इसका पूरा खगहन हो चुका । अत्र वेद उपनिषद् गृह्यसूत्र, धर्मशास्त्र रामायण, सुश्रुन, प्रादि के प्रमाणों से फलित की प्राचीनता भारत से सयंत्र फेलना दुष्टग्रहों की शान्ति साफ २ प्रगट हुई। और भी ऊटपटांग बातें जो २ जोशो जी ने लिखी थीं सर्वसाधारण को भलीभांति दर्शाकर ठीक २ उनका समाधान निम्प दिया। पक्षपात छोड़कर ममाजी भाई भी इन अध्याय को देखेंगे तो अपने चौथ नियम के अनुसार इस सत्य विद्या को मानने लगेंग परन्तु हठ के लिये कोई प्रोषधि नहीं हठी लोग न मानें तो विचारशीलपाठक अवश्य ही विचार सकेंगे कि हमारे जोशी जी का पक्ष कट गया, उन का मत काफर हुआ, अन्धकार दूर हुआ ॥ चतुर्थ अध्याय समाप्त ॥ ---- - ---- पांचवां अध्याय ॥ (ज्यो० १० पृ. ३३ पं० २०)-आर्यभह भास्कराचार्य बा. पदेव शर्मा शास्त्रो महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी फलित को नहीं मानते हैं। लट्ठमार पण्डितों से किस का वश चलता है। घे यही कहेंगे पृथ्वी स्थिर है, तारे चारों ओर घूमते हैं। (समीक्षा)-वाह वाः ! यहा तो श्राप ने पूर्वाधार्यों को For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ भी अपना शिष्य बना डाला, जोशी जी महाराज | यदि भा. स्कराचार्य जी अपवा आर्यभट्टादि फलित को न मानते तो कोई पुस्तक फलित के खराहन की अवश्य बना जाते, क्या ये भाप के बराबर योग्यता वा माहात्म्य नहीं रखते थे। प्रार्यमह तथा भास्कराचार्य सभी प्राचार्य फलित को बराबर मा. नते चले आये हैं। शिरोमणिसिद्धान्त का भी कहीं माममात्र भाप ने सुन लिया है। पुस्तक के दर्शन नहीं किये, शिरोमणि से भास्कराचार्य जी का फलित को मानना स्पष्ट प्रकट है। यदि भाप उक्तसिद्धान्त पढ़े होते तो भास्कराचार्य जी महाराज को क्यों नास्तिकता का कलंक लगाते देखिये सिद्वान्तशिरोमणि___ जानन्जातकसंहिताः सगणितस्कन्धकदेशाअपि ।ज्यातिःशास्त्रविचारचारचतुरः प्रश्नेच किञ्जित्करः ॥ यःसिद्धान्तमनन्तयुक्तिविततं नो वेत्तिभित्तोयथा। राजाचित्रमयोऽथवासुघटितः काष्ठस्यकण्ठीरवः ॥ ७ ॥ गणिताध्याय० श्लो०७ अर्थात् सिद्धान्त विद्या गणित न जामता हो केवल फलित पढ़ा हो, ऐसा नक्षत्र सूची राजसभा में काष्ठ के सिंह प्र. पवा चित्रवत शोभा नहीं पाता है। गणित सहित जातकसंहिता शकन प्रमविद्या को जान कर विचारने वाला चतुर ज्योतिषी राजसभा में पूजित होता है। पाठक ! जातकसंहिता प्रश्नविद्या को भास्कराचार्य जी का मानना साफ २ प्रगट हो गया। इसीप्रकार बापदेव शाश्री जी भी फलित को मानते थे। यदि न मानते तो खपान लिख जाते । और अपने पञ्चांग में संवत्सरादि के फल न लि. खतेो रहाद्विवेदी जी का किरमा,सो अनेक जन्मपन विधिमिलाने में द्विवेदी जी के साम्य किये हुए हमारे यहां ( श्रीपिता जी के For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चमोध्यायः ॥ ५५ पास) परावर भाया करते हाल ही केसी गत वैशाख में सीतापुर के एक वकीलसाहव * की कन्या और एक बर के नाम्य कराने को सीतापुर अवध के प्रसिद्ध वकील वाबू होटेलाल एम०ए० महाशय का पिता जी की सम्मति लेने के मिमित्त भाया है। काशी जी के भनेक पगिडतों के, तथा सुधा. कर द्विवेदी जी के उन में हस्ताक्षर हैं, यह साम्य यथायोग्य है करके सम्मों ने लिखा है मैं पत्र दिखा सकता। और प. वांग में भी द्विवेदी नी फलादेश वरावर लिखते पाये। तथा नलित का काम करते हैं। यदि फलित न मानते तो ये सब काम छोड़ कर खान करने लगते। जो पत्र भापने उन का रूपाया है उम में अवश्य कुछ माया, तथा ( बड़प्पन) रचा, ऐसा अनुमान है। अब पृथ्वी का स्थिर होना भी सिद्ध करते हैं लटुमार पण्डित ही नहीं, बड़े २ भाचार्य पृथ्वी का स्थिर होना मान गये। जोशी जी ! ध्यान देखें, और सिद्धान्तशिरोमणि गो. लाध्याय देखें ॥ मरुच्चलोभरचलास्वभावतो, यतोविचित्रा. वतवस्तुशक्तयः। अर्थात् स्वभाव ही से पृथ्वी की स्थिरता, वायु, तथा सूर्य का चलना सिद्ध है। सूर्यसिद्धान्त में भी तारों का भमण करना और पप्पी का स्पिर होना साफ लिखा है। तन्मध्येभ्रमणंभाना-मधोध:क्रमशस्तथा। . (भाषा)-व्योमकक्षा में नक्षत्रों (तारों) का भ्रमण होता। मध्येसमन्तादण्डस्य भूगोलोव्योम्नितिष्ठति । विभ्राणःपरमांशक्तिं ब्रह्मणोधारणोत्मिकाम् ॥ भाषा-ब्रह्मा जी की धारणात्मिका परमशक्तिरे बल से *वाब भाशाराम जी एम० ए० For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ ब्रमाह के मध्यदेश में व्योम के बीच यह भगोल स्थिरता से स्थित है। पाठकगण ! जोशी जी की सभी बातों का वर्ण होता जाता है। नास्तिकतारुपी अजीर्ण रोगियों को यह चर्ण नाभदायक होगा ॥ ( ज्यो० प. पु. ३४)-जब यनामी लोग कावुल छोड़कर चले गये तो पारमदेश के लोग इन के चेले हो गये । मेरे पाप्त एक पारमोपिनास पुस्तक है । जिम में ऐसे श्लोक - यदामर्जखानेभवेत् आफतापोजलोलैः गनीखूबरूहम्जवाचः।मालखानेमुस्तरी इत्यादि (समीक्षा)-यूनानी और पारस के लोगों ने नहीं, किन्तु अकबर बादशाह के समय नवाबखानखाना ने जातकों का तर्ज ना करके ये पद्य बनाये हैं। पुस्तक का नाम खटकौतुक है मुम्बई के वे कटेश्वर प्रेस में छप भी गयी है। (ज्यं० १० पृ. ३४ पं० १० )-भडली के उत्पन्न होने से उन्नति हुई इन्हों ने शकुनाव की लिखी है । शुक्रवार को वादली-रहै शनीचर छाय। कवि कहै सुन भाली विम वर्षे नहिं जाय ॥ इत्यादि__(समीक्षा)-पाठक गण ! समय की विचित्र गति है। किसी समय में ज्योतिष विज्ञान की इतनी उन्नति थी कि भडनी जैसे अनपढ़ पुरुष भी भाषा में शकुन की पुस्तक लिख गये हैं। पर माण यह समय पाया है कि एक ग्रेजुएट ज्योतिषी जी ने सगान की पुस्तक बना डाली ॥ (ज्यो. च० पृ० ३६ पं०८)-फलित वाले कहते हैं कि मुसलमानों ने सब ग्रन्थ जला डाले यह सब झठ है। जब कि वेद पुराण और निकम्मी पुस्तकें तक वच गयीं तो फलित को धे क्यों जलाते॥ . (समीक्षा)-जोशी जो फलित वाले हो, नहीं किन्तु इ. तिहास तथा भारतवर्ष के सभी पढ़े लिखे लोग कहते हैं कि For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चमध्यायः॥ मुसलमानों ने छमारी पुस्तकें जनादी । हम्माम गर्म किये गये। और यहां तो आपने वेद पुराणों को भी निकम्मा लिखदिया। फलित विचारे की आप क्या परवाह करते ? जोशी जी महा. राज! वेद की बहुत सी शाखा जलायी गयी हैं, १९३१ शाखाभों का आप नाम बता सकते हैं? ॥ देखिये-महाभाष्य अ०१पा०१ ___चत्वारोवेदाःसाङ्गाःसरहस्या बहुधाभिन्ना एकशतमध्वर्युशाखाः सहस्रवा सोमवेदएकविंशतिधा बाहूच्यम्।नवधाऽआथर्वणोवेद,इति . कहिये ये शाखा कहां गयीं, वास्तव में यवनों के समय में वेद,ब्राह्मणा,गृह्य सूत्र, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिषविद्या की सैकड़ों सहस्रों पुस्तकें नदियों में बहायीं गयों और जलाकर नष्ट करदी, भाज तक इसी कारण अनेक देशहितैषी रोते हैं । (ज्यो००पृ०३७ )-गर्गजी के नाम से जोशी जी ने यह शोक लिखा है। म्लेच्छाहियवनास्तेष सम्यकशास्त्रमिदंस्थितम् । ऋषिवत्तेपिपूज्यन्ते किम्पुनदैवविद्विजाः ॥ - समीक्षा-जोशी जी ! यह लोक वाराहीसंहिता ( १०२ झो०१५) का है गर्ग जी का नाम आपने मिथ्या लिख कर क्या लाभ उठाया ?॥ . (ज्यो००प०३७पं०९)-हिन्दुधर्म के खण्डन करने को प्राया।हमने उस को दशवां अवतार मान लिया । यदि महम्मद और ईसा मूर्तिपूजा को खण्डन न करते तो कदाचित् उनकी भी मूर्ति मन्दिरों में धरी मिलती ॥ (समीक्षा)-जोशी जी! नमस्कार, बुद्ध को हिन्दु दशम प्र वतार नहीं किन्तु मधम अवतार मानते हैं। पुराण तो एक तर्फ रहे गीतगोविन्द से भी इतना ज्ञान हो जाता है। यथा-वेदानुद्वरतेजगन्निवहते भूगोलमुद्विभ्रते, For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७ ज्योतिषचमत्कार समीक्षाया ॥ देत्यान्दारयतेवलिंछलयते शत्रुक्षयंकुर्वते । पौलस्त्यंजयतेहलिंकलयते कारुण्यमातन्वतेम्लेच्छान्मूर्च्यतेदशाकृतिकृते कृष्णायतुभ्यन्नमः॥ बौद्धभगवान् ने करुणा यानी अस्मिाधर्म फैलाया। रहा ईसामसीह और महम्मद की मन्दिरों में मूर्ति रखना सोपाठक! हमारी सम्मति से तो डिपीमाहव एक नया मज़हर चला जाते तो स्वामी दयानन्दजी और केशवसेनचन्द्र से भी आप का नाम कम नहीं होता । केवल ज्योतिष का खरहन करने से आपकी मुराद पूर्ण न हो सकेगी। महाराजा नल युधिष्ठर शिव दधीचि और बड़े २ मुनियों तक की जव हिन्दूमन्दिरों में मूर्ति नहीं होती। किन्तु केवल अवतार तथा देवी देवताओं की मूर्तियां पूजी जाती हैं तव महम्मद और ईसा मादि मनुष्यों की मूर्तियां क्यों कर मन्दिरों में धरी मिलती है। नाम मात्रका कोई ( हरिभक्त) सनातनधर्म का मानने वाला यदि ऐसा काम करे तो हम न. हीं कह सक्ते। पर वैदिक हिन्दू नहीं कर सक्ता ॥ डिपटी साहब! आप ने लिखा है कि मैं वैष्णाय हूं तो प्राप बुद्धजी का अवतार फिर क्यों नहीं मानते। चारो सम्प्रदाय के श्री वैष्णव और स्मार्त सभी बौद्धावतार को मानते हैं। नया सम्प्र. दाय हरिभक्तों का कोई खड़ा कीजिये। दिल्ली के पांचों सवार पूरे हो जायंगे। श्रीरामानुज श्रीवल्लभाचार्य आदि की भांति वैष्णव लोग पांच आचार्य मानने लगेंगे ॥ (ज्योःच०प०३७५०९७)-इस वक्त तक तो फलित वाले ' केवल कुपहली का फल बताते थे । इम से कोई बडो हानि न थी ।अब तो इन का मन बढ गया भला घुरा मुहूर्त भी बतला. ने लगे इम समय रचे हुए ग्रन्थ मुहूर्त्तचिन्तामणि और काशी नाथ पद्धति हैं विमा ज्योतिषियों के पूछे विवाह भी नहीं हो सकता॥ For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चमोऽध्यायः ॥ पूर्ण २५ (aita: ) - इस समय से नहीं, किन्तु पूर्वकाल से ही मुहूर्त्तादि सभी काव्यों में माने जाते हैं। मुहूर्तचिन्तामणि और शोध के अतिरिक्त आप ने अन्य ग्रन्थों का नाम क्या नहीं सुना? नारद हारीत वसिष्ठ, गर्गादि ऋषि मुनियों के मुहूर्त्त तो दूर रहे किन्तु ला श्रीपति, कालिदास जो आदि श्रावाय के ( मुहूर्त) ग्रन्थों को भी आप देख लेते तो शीघ्रबोध मुहूर्तचि न्तामणि आधुनिक ग्रन्थों से मुहूती का प्रारम्भ क्यों लिखते ॥ जोशी जी ! तथा पाठकगण ! ध्यान देवेंकि ज्योतिषशास्त्र ही नहीं किन्तु गृह्यसूत्र तथा आयुर्वेद भी इस बात की साक्षी देते हैं कि शुभाशुभ मुहूर्त मत्ययुग से विचारे जाते हैं । प्रायुर्वेदाचार्य महर्षि सुश्रुत जी लिखते हैं कि जिस समय वैद्य को बुनाने के निमित्त दूत आवे तो वैद्य को इतनी बातों का विचार करना श्रावश्यक है । दूतदर्शनसम्भाषा वेषाचेष्टितमेवच । ऋक्षंवेलातिथिश्चैव निमित्त 'शकुनोऽनिलः ॥ सुश्रु० सूत्रस्थान अ० २९ ॥ भाषा- दूत का रूप, वाणी, भेष, तथा चेष्टा और नक्षत्र तिथि समय लग्न पवन कैमा चलता है । शकुन इत्यादि विचारे ॥ आद्राऽश्लेषामघा मूल पूर्वा सुभरणीषच । चतुथ्यवानवम्यांवा पष्ठयां सन्धिदिनेषुच ॥ मध्यान्हेचार्द्धरात्रौवा सन्ध्ययोः कृत्तिकासुच ॥ सुश्रु० सूत्रस्थान अ० २९ । १६ ॥ १७ ॥ उक्त तिथि तथा नक्षत्रादि में वैद्य के पास प्रथम दूत जाय तो अशुभ हो। इससे स्पष्ट है कि भले बुरे मुहूर्त इनके समय में भी बतलाये जाते थे। और विवाह आदि सभी संस्कार सु For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स.प ६० ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ।। हतं देख कर पूर्वकाल में भी होते थे।* यह प्रापस्तम्ब पार. स्करादि गृह्यसूत्रों से भलीभांसि सिद्ध होता है। मानवगृह्य. सत्र मनुस्मति से पहिले का बना हुमा ग्रन्थ है। इसी का मा. शय लेकर मानवधर्मशास्त्र बना है। यदि अच्छे मुहूर्त में संस्कारादि करने की रीति उस समय न होती तो गृह्यसूत्रकार लिख देते कि जव चाहो तब विवाह मादि करलो। पर उ. न्हों ने शुभ नक्षत्र तिथि वार शुभमुहूर्त उत्तरायण में शुभका• र्य करना माफ २ लिखा है। ___ रोहिणीमृगशिरःश्रवणशविष्ठोत्तराणीत्युपयमे तथोद्वाहे यद्वा पुण्योक्तम्॥मागृ.सू०७खण्ड भाषा-रोहिणी मृगशिरा अषणा धनिष्ठा तीनों उत्तरा ये वाग्दान अथवा विवाह के लिये अच्छे हैं"यद्वा पुरायोक्तम्,ज्योतिःशास्त्रोक्त शुभ मुहूर्त नक्षत्रों में विवाह करे। क्योंकि सभी गृह्यसूत्रों का आशय ले कर मुहूर्तग्रन्थ ज्योतिष के बनाये गये हैं। विस्तारपूर्वक यही विषय उन में लिखा है। नौर देखिये मानव गृह्यसूत्र ॥ तृतीयस्यवर्षस्यभूयिष्ठे गतेचूडाःकारयेत् । उदगयनेज्योत्स्नेपुण्येनक्षत्रेऽन्यत्रनवम्याः ॥ खण्ड २१ सू०१ भाषा-तृतीय वर्ष का कुछ अंश शेष रहने पर उत्तरायण शुक्ल पक्ष शुभ नक्षत्रादि में नवमी तिथि को छोड़ कर बालक का चहाफर्म करे, इस से स्पष्ट प्रगट हुभा कि इस के विरुद्ध दक्षिणायन प्रादि में शुभ कार्य करने का बुरा फल होगा। ग्रन्थ. * ( स० सि० ११ । २२ ) व्यतीपातत्रयंघोरं गण्डान्तत्रित यन्तथा । एतद्भसन्धित्रितयंसर्वकर्मसुवजयेत् ॥ ___ इत्यादि गणित के ग्रन्थों में भी अनेक प्रमाण हैं जिन से मुहूर्तादि स्पष्ट सिद्ध होते हैं । For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चमोऽध्यायः ॥ वद्धि के भय से अधिक प्रमाण नहीं लिखते आशा है कि इन प्रमाणों से हमारे ग्रेजुएट ज्योतिर्विद् जी का भ्रम दूर हो जा. यगा । रामायण तथा अन्य पुराणों में लिखा है कि बराबर पहिले भी मुहूर्त सभी कार्यों में किये जाते थे। रामचन्द्र जी के राज्याभिषेक का मुहूर्त तथा संकायात्रा का मुहूर्त करना भी लिखा है। अस्मिन्मुहूर्तसुग्रीव प्रयोणमभिरोचय। युक्तोमुहूर्तोविजयः प्राप्तोमध्यन्दिवाकरः ॥ अस्मिन्मुहूर्तविजये प्राप्तेमध्यन्दिवाकरे। सीताहृतातुमेयातु क्वासीयास्यतिवेगतः ॥ उत्तराफल्गुनोह्यद्य-वस्तुहस्तेनयोज्यते। अभिप्रयामसुग्रीव सर्वानीकसमादृताः ॥ अर्थात् हे सुग्रीव ! यात्रा करने को प्राज का मुहर्त उत्तम है। दोपहर के समय विजयमुहूर्त पड़ता है शीघ्र ही इस मुहूर्त में चलने से हम सीता को प्राप्त करेंगे। उत्तराफल्गुनी छूट कर हस्त नक्षत्र का योग हुआ है। चलो इस शुभ मुहूर्त में यात्रा करना उत्तम है। (ज्यो००प०३८)-पूर्वकाल में विधि नहीं मिलाई जाती थी। स्वयम्बर जैसे रामसीता अर्जुन द्रौपदी शकुन्तला दुष्यन्तादि के हुए। महा ! कैसी उत्तम रीति थी। कुण्डली मिलाकर वि. वाह करने की रीति उन्हों ने चलाई है। जो पढ़ते २ पागल होगये इत्यादि। (समीक्षा)-जोशी जी ! श्राप भूल पड़े हैं। केवल स्वयम्बर अथवा गान्धर्वविधाह उस समय में भी नहीं होते थे। पाठ प्रकार के विवोह धर्मशास्त्र में लिखे हैं ॥ उक्तञ्चब्राह्मादेवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः । गान्धर्वोराक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः ॥ For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२ ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ .. भाषा-ब्राह्म, दैव, पार्ष, प्राजापत्य, प्रासुर, गान्धर्व, राक्षम, पैशाच, ये सब ८ प्रकार के विवाह होते हैं। उन में पैशाच अधम है। ब्राह्म, देव, पार्ष, प्राजापत्य इन को मन जी ने उत्तम कहा है। सो इन्हीं में विधि मिलाने की गति प्र. धनित है । भगवान् रामचन्द्र तथा सीता जी इत्यादियों की भी धनषभअमरूप एक प्रकार की विधि मिलाई गयी थी। इसी कारण और राजा लोग धनुष को न तोड़ सके । भूप सहसदश एकहि वारा। लगे उठावन टरहि न दारा॥ यदि कहो कि ज्योतिष के अनुकूल विधि क्यों नहीं मिलाई गयी? सो ज्योतिष के प्राचार्य नारद जी प्रादि ने बचपन ही में जानकी जी की विधि रामचन्द्र जी के साथ मिला करके कह दिया था कि रामचन्द्र जी के साथ सीता जी का विवाह होगा ॥ यथा नारद वचन सदा शुचि सांचा। सो वर मिलहि जाहि मन रांचा ॥ इस गौरी जी के प्राशीर्वाद से नारद जी का विधि मि. लाना स्पष्ट प्रगट है। पूर्वकाल में ज्योतिषविद्या का इतना प्रचार था कि ऋषि मुनि अनेकप्रकार ( हस्त रेखा कुण्डली इत्यादि ) से ज्योतिष का ठीक २ विचार कर लेते थे। जैसे नारद जी ने हिमालय के पास जाकर पार्वती जी के विषय में कहा था कि महादेव जी के माथ इसका विवाह होगा॥ यथा सर्वलक्षण सम्पन्न कुमारी, होइहि सन्तत पियहिं पियारी। सदा अचल इहिकर अहिवाता, इहिते यश पैहहिं पितुमाता । इत्यादि दो-योगी जटिल अकामतनु,नग्गअमंगल भेष । For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चमोऽध्यायः ॥ ६३ अस स्वामी इहि कहमिर्लाहि, परी हस्तअसरेख * ॥ रा० मा० वा० का० इसी प्रकार शीलनिधि राजा के यहां लड़की के रेख - त्यादि का विचार करके नारद जी ने कहा था । किजो इहि वरहि अमर सो होई । समरभूमि तेहि जीते न कोई ॥ इत्यादि इस प्रकार के अनेक इतिहास पुराणों में हैं । जिनसे ज्योतिष की प्राचीनता तथा अनेक प्रकार से विधि मि लाने की रीति भलीभांति मिट्ट होती है। इसीलिये ऐसे महान् पुरुषों को एकत्र करने के अर्थ स्वयम्बर कहीं २ करना पड़ता था । वैसे पुरुषों की कुण्डली ढूंढने में अधिक परिश्रम - 1 मझ कर स्वयम्बर में सब महानुभावों के एकत्र होजाने से उस कन्या के योग्य वर के साथ ठीक २ साम्य तथा विवाह हो 1 जाताथा । और माधारण लोगों में श्राजकल की भांति कुण्डली मिलाने की सरलरोति उस समय में भी प्रचलित थी । स्वयम्बर केवल राजा महाराजाओं के यहां कहीं २ किमी खास कारण से होते थे । अन्य लोगों में नहीं, अब रहा शकुन्तला और दुष्यन्त का विवाह सो इस का नाम गान्धर्वविवाह है । इस में विधि मिलाने की रीति अव भी नहीं है । . प्सरा की पुत्री होने के कारण शकुन्तला को करावमुनि ने किसी ब्राह्मण के पुत्र के साथ ठीक २ विधि मिला कर पू alक्त चारप्रकार के विवाहों में कोई भी ( कन्यादान ) न कर सका । इसी चिन्ता में विवाह का समय निकल गया । इस कारण राजा दुष्यन्त के साथ गान्धर्वविवाह हुआ। गा धर्वादि विवाह कोई आज कल भी कर लेवे तो उसे विधि मिलाने की कोई श्रावश्यकता नहीं । मो श्राप के देश में भी * हस्त रेख शब्द से सामुद्रिक से नारद का बताना सिद्ध होता है ॥ For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ अधमकक्षा के विवाह ( हाटे ) प्रचलित ही हैं। जो चाहे सो कर सकता है ? मो शाप क्या चाहते हैं ? और कुण्डली मि. लाने का विशेष विचार भागे लिखा जायगा ॥ . (ज्यो० च० पू० ३९ पं०९ )-ज्योतिषी कर्मरेखा को भी मिटाने के लिये बुलाये जाते हैं। इन्हीं महाराज ने पृथ्वीराज को दो घण्टे तक मुहूर्त ढंढ़ते २ रोकदिया ॥ इत्यादि (समीक्षा)-जोशी जी ! डाक्टरसाहब को पाप कर्मरेखा मिटाने के लिये बुलाते हैं ? । वा किसी अन्यकार्य के लिये, क्योंकि आप के मत से अटलरेखा टल नहीं सकती । तो कहिये जिस की कर्मरेख में रोगी रहना लिखा है, या मृत्यु लिखी है, उस को डाक्टर का इलाज क्या कर सकेगा। विना कभरेखा के रोग हो नहीं सकता। तो कहो उस को उस के इलाज से कुछ लाभ होगा या हानि? । बस इसीप्रकार ज्योतिषियों को भी बलाया जाता है ॥ पाठक महाशय ! यदि किसी डाक्टर या हकीम के इलाज करने पर भी किमी रोगी को भाराम न हो, वा मर जाय तो इस कारण से कोई मनुष्य प्रायद का खण्डन नहीं कर सकता । इमीप्रकार पृथ्वीराज को मुहूर्त न मिलने के कारण दो घण्टे रोकने की वात श्राप की मच्ची भी हो तो इस से ज्योतिष का खगहन आप नहीं कर सकते । पृथ्वीराज के कपर अवश्य कोई खोटा ग्रह माया होगा । एक पृथ्वीराज नहीं, किन्तु सैकड़ों सहस्रों राजा महाराजाओं का मुहूर्त क. रने से अवश्य कल्याण हुआ है। (ज्यो० च० पृ० ४० )-वचपन में विवाह करने की रीति ज्योतिषियों ने चलाई । काशीनाथ महाराज लिख गये हैं कि दशवर्ष तक जो लड़की का व्याह न करे वह मरक में जाय । ऐसे बच्चों का व्याह वेद पुराणों में कहीं भी नहीं। वसिष्ठ जी लिखते हैं कि लड़की का व्याहु रजस्वला होने से तीनवर्ष पीछे होना चाहिये । मन जी का भी यही मत है। For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पञ्चमोऽध्यायः॥ ( मनीक्षा)-चपन में विवाह करने की रीति काशीगाथ मे नहीं चलाई, पूर्वकाल से मार्य लोगों में प्रचलित है। भगवान् रामचन्द्र महाराज का १५ पन्द्रह वर्ष की अवस्था में विवाह हुमा पा यह वाल्मीकि रामायणा से सिद्ध है देखियेदशरथ जी विश्वामित्र जी से क्या कहते हैं जनषोडशवर्षोंमे रामोराजीवलोचनः । नयुद्धयोग्यतामस्य पश्यामिसहराक्षसः॥ वा०स०२०॥ __ भाषा-हे विश्वामित्र जी ! अभी श्रीरामचन्द्र जी मोलह वर्ष से भी कम हैं यह राक्षसों से युद्ध नहीं कर सकते। इसी समय रामचन्द जी उन के संग गये। और यज्ञ की रक्षा कर धनष को तोड जानकी विवाही । कहिये यह विवाह केला हुआ? क्या र्माता जी अठारह वर्ष की होंगी ? या दश घा ग्यारह वर्ष की है । और अभिमन्यु का भी विवाह १४ वर्ष की अवस्था में हुआ था। विवाह से थोड़े ही दिन पीछे भारत के युद्ध में मृतक हुए। उस समय उन की स्त्री उत्तरा गर्भवती घी उस से राजा परीक्षित जी उत्पन्न हुये । ती कहिये जो रमस्वता होने के तीन वर्ष बाद ( ज्यो च० के अनुसार ) अ. तरा जी का विवाह करते तो पाण्डवों का वंश समाप्त ही हो चुका था। काशीनाथ इत्यादिकों को कलङ्क लगाते हुए भाप को कुछ भी लज्जा न भाई ! । रजस्वला होने से तीन बई पीछे विवाह करने की माज्ञा वसिष्ठ जी ने नहीं दी, किन्तु सत्यार्थप्रकाश में स्वामी दयानन्द जी ने दियी है। व. सिष्ठस्मृति के लोक हम पहिले देवके हैं यही वेद पुराण के अनुकूल है। मनु जी भी ऐसी ही प्रज्ञा दे गये हैं। त्रिंशद्वर्षाद्वहेत्कन्यां हृद्यांद्वादशवार्षिकीम् । त्र्यष्टवर्षोष्टवर्षा वा धर्मेसीदतिसत्वरः ॥ - मन० अ० ६ श्लो०६४ इसी प्रकार गृह्यसूत्रकार भी लिखते हैं देखिये । मान राह्य सू० सं० ७ ०८॥ For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ वन्धुमती कन्यामस्पृष्टमैथुनामुपयच्छेत् । समानवां समानप्रवरां यवीयसी नगिनां श्रेष्ठाम् ॥ __ भाषा-बन्धुमती हो किभी पुरुष का संयोग न हुआ हो अपने वर्ण की हो पर से छोटी हो जिस के स्तम न उगे हों और ऋतुमती न हुई हो रुपवती हो ऐसी कन्या के साप विवाह करना श्रेष्ठ है ॥ - प्रश्न-स्वामी दयानन्द जी ने "त्रीणि वर्षारयुदीक्षेत" छ. तीस धार रजस्वला हुए उपरान्त विवाह करना क्यों लिखा। उत्तर-स्वामी जी ने सभी शाखों के विरुद्ध लिखा, खुध इस शाक का अर्थ बिगाड़ा है यह साक्षात् स्त्री के व्यभिचा. रिणी बनाने की विधि महात्मा जी ने लिखी है। माता पिता चैन करें कन्या पति खोजती फिरे। इस का अर्थ यह है कि जिम कन्या के पिता मातादि न हो वह ऋतुमती होजाय तब भी तीन वर्ष तक कुटुम्बियों की (उदीक्षेत) प्रतीक्षा करे कि ये वि. वाह कर दें। यह समय भी बीत जाय तब अपने कुल के सदूग जो पर मिले उसे घर ले यह प्रापदुम है। यही वसिष्ठ जी ने भी लिखा है। कुमार्यतुमती त्रीणि वर्षाण्युपासीतोवं त्रिभ्यो वर्षेभ्यः पतिं विन्देत्तुल्यम् ॥ अनुमान होता है कि शिसी दयानन्दी से इस सूत्र का भगह पगड अर्थ सुनकर जोशी जी वसिष्ठ जी का नाम लिख बैठे इस का अर्थ वही है जो पहिले लिख चुके हैं। अभिप्राय यह है कि कन्या स्वयं अपना विवाह कदापि न कर यदि माता पितादि किसी कारण से न कर मकै अथवा पि. सादि कोई नहो तब भी तीन वर्षतक किसी वान्धवादि को नाश देखकर रहै । तदनन्तर लाधारी से (शकुन्तला की भांति) स्वयं विवाह करलेवे। क्यों कि प्रागे मिष्ठ जी ६३।६२झोक में यावध कन्यामृतवः स्पृशन्ति, लिखते हैं। यदि ठीक समय पर For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पनुमोध्यायः॥ कन्या-का विवाह पिता न करे तो जितनी बार रजस्वला हो उतनी गर्भ हत्याओं का पाप कन्या के पिता को होगा। प्रतएव ११ वर्ष से पूर्व कन्या का विवाह करदे । पराशर तथा स. म्वत स्मृति के प्रमाण हम पहिले लिख चके हैं। सारांश सभी ग्रन्थों का यह है कि वर्ष से १२ वर्ष पय्यंत विवाह कर देना चाहिये १० वर्ष पर्यन्त उत्तम काल ११ । १२ में गौण काल मानागया है। कदाचित् ठीक २ शुद्धि वा मुहूर्त न मिले तो १२ व वर्ष पूजा दान करके शकुन शान्तिपाठ ब्राह्मणों से कराकर अवश्य विवाह कर देवै॥ द्वादशैकादशेवर्षे यस्याःशुद्धिर्नजायते। पूजाभिःशकुनैर्वापि तस्यालगंप्रदापयेत्॥शीयो० - पाठ वर्ष से पूर्व ६।७ वर्ष की बालिकाओं का जो वि. वाह करते हैं वह अवश्य शास्त्र विरुद्ध कुरीति है। इस कु. रोति को हटाना सभी देश हितैषी विद्वानों को योग्य है। ज्योतिषशास्त्र में लिखा है कि ८ वर्ष से पूर्व विवाह कर देने से कन्या के विधवा होने का फल है। इस प्रकार का पालविवाह अवश्य हानिकारक है ॥ (ज्यो० १० पृ० ४१ पं०५)-सम् ११५० ई० तक यवन ज्योतिष की चढ़नी रही, इस बीच में सामुद्रिक प्रश्न योग इत्यादि बहुत मी विद्यायें चलीं जिन्हों ने फलित को और भी सहारा दिया। (समीक्षा)-पापका लेख वेसबूत महामिश्या है । सामु. द्रिक की प्राचीनता महाभाष्य के पतिलीपाणिरेखा,से सिद्ध हो चुकी है। षटपंचाशिका भी मापने नहीं देखी जो वराह जी के पुत्र ने प्रश्न की पुस्तक विक्रम के समय बनायी थी। सन् १९५० ई० से प्रश्न विद्या का चलाना जो आपने लिखा सो पापकी कपोल कल्पना मिश्या सिद्धहुई । जोशी जी! वाल्मीकि मुनिने रामायण,भगवान रामचन्द्र जी के जन्म से पहिले For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८ ज्योतिषधमत्कार समीक्षायाः ॥ ज्योतिष विद्या से बनाया था इसे तो आप स्वयं मानते हैं। कहिये यह प्रश्न विद्या नहीं तो कौन विद्या थी। इसी प्रकार महाभारत के समय धृतराष्ट्र के पाम बैठे २ संजय सारे समा. चार कुरुक्षेत्र के जान कर धृतराष्ट्र को सुनाते थे। महाशय जी! यह प्रश्न विद्या थी अथवा टेलिग्राफविद्या । इसी पृष्ठ में भाप फरमाते हैं कि जैमिनि महाराज ने एक नस्टा ग्रन्थ बनाया धन्य है इस बुद्धि को किसी चारपाक ने कहा है कि त्रयोवेदस्यकर्त्तारो भण्डधूर्तनिशाचराः। "वेद के बनाने वाले भांड धूर्त निशाधर हैं "वही कहा। धत आपने किई ॥ जोशीजी ! ऋषि मुनि उलटे ग्रन्य नहीं बनाते थे। जैमि. मिसत्र उलटा नहीं। किन्तु उलटी पुस्तक आपने जरूर बनायी है जिसमें ज्योतिष की निन्दा बौद्धावतार की मिन्दा और रजखला होने के तीन वर्ष बाद कन्या का विवाह मौसेरे भाई बहिनों के विवाह का समर्थन इत्यादि सभी शास्त्रविरुद्ध बातें लिखी हैं वेद पुराण निकम्मे कहे हैं वही पुस्तक उलटी है ।। (ज्यो० च० पृ. ४२ )-भृगुसंहिता की निन्दा लिखी है। आप फरमाते हैं कि भृगुसंहिता लिखने वाला बड़ा ही धत्तं होगा ॥ इत्यादि (समीक्षा) ज्योतिष को दयानन्द सरस्वती जी नहीं मानते थे। पर भगसंहिता उन्हों ने भी मानी है सन् १८७०ई० में संस्कृत का एक विज्ञापन प्रमुकर पुस्तके मान्य, अमुकर मुझे अमान्य हैं। इस विषय में स्वामी दयानन्द ने छपाया था। उस में भगसंहिता मान्य पुस्तकों में लिखी थी । और यह भी लिखा था कि ज्यातिष के अन्यों में भगसंहिता सच्ची है, इस से तीन जन्म का हाल जाना जाता है। पर ह. मारे सनातनधर्मी जोशी जी तो स्वामी जी को भी मात दे For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षष्ठोऽध्यायः॥ गये । म्यों नहीं, आप भी तो इंगलिश विद्या के विद्वान् हैं संस्कृत में स्वामी जी से कुछ न्यून हुए तो क्या हानि है। ( पश्चम अध्याय समाप्त) छठा अध्याय ॥ (ज्यो० ० ० ४३ )-सन् १९५० और १८६० तक ज्यो. तिष की बड़ी चढ़ती रही बड़े२ गांव ज्योतिषियों को मिल गये ॥ इत्यादि (समीक्षा)-माप का सकमीना ठीक नहीं, सष्टि के भारम्भ से आज तक बराबर ज्योतिषियों की बढ़ती है। बड़े २ राजा महाराजा अब भी ज्योतिषियों को गुरु मानते हैं। और आगे भी बराबर बढ़ती रहेगी चाहे श्राप लाख चेष्टा करें। पर ज्योतिषविद्या की कुछ हानि नहीं हो सकती। श्रम तो यूरोप के विद्वान् भी इस का आदर करने लगे हैं। पर शोक है कि भारतवर्ष के कुछ लोग दासवृत्ति में प्राण दे अपनी विद्या बुद्धि बुवा बैठे हैं और पश्चिम के लोग सभी विद्यानों की खोज तथा उन्नति कर रहे हैं। प.४३ पं०८ से उप्रेतीजी की कथा लिख कर मापने सिद्ध किया है कि फलित का उन दिनों कैसा प्रभाव था। किसी विद्वान् का मिथ्या उपहास करना निरर्थक है, सभ्यता के विरुद्ध है। भागे पाप ने लिखा है कि अंगरेजी पढ़ने वालों की संख्या बढ़ने लगी। वंगाल में ब्रह्मसमाज का प्रचार हुआ स्वा० दयानन्द जी ने मार्यसमाज का डंका बजाया। तब तो फलित से मन हठने लगा एक फलित से ही नहीं, सभी हिन्दुस्थानी वस्तुओं से उन की रुचि हटी । और एक प्रकार के नास्तिक हो गये। ये वाते भाप को बहुत ठीक हैं नास्तिकों के फलित न मानने से कोई हानि नहीं। पर स्वामी जी For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 90 ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ भृगुसंहिता को मानते थे कुछ २ मुहूर्त भी मान गये । ( म० प्र० पृ० २८ पं० १६ ) एकादशी और त्रयोदशी को छोड़के बाकी में गर्भाधान करना क्यों साहव स्वामी जी का मनुस्मृति से उद्धृत किया यह लेख ज्योतिष से सम्बन्ध रखता है या नहीं ? | ये रात्रि त्याज्य इसी कारण से हैं कि इन में गर्भाधान करने से दुष्ट सन्तान उत्पक्ष होती है। तथा युग्मरात्रियों में पुत्र और प्रयुग्म में कन्या होना मनुजी ने लिखा है। यह फलित नहीं, तो और क्या है। इसीप्रकार संस्कारविधि के लेखों से भी मुहूर्त आदि मानना सिद्ध होता है । और वर्तमान समाजी ज्योतिष की निन्दा भी करते हैं काम पड़ने पर मानते भी हैं। जन्मपत्र बराबर बनाते बनवाते हैं, कष्ट जाने पर ग्रहशान्ति पूजा पाठ भी करा लेते हैं । चश्मा डटा कर समाज में ज्योतिष की निन्दा के गीत भी प्रलापते हैं। इन के पण्डित तथा उपदेशक लोग प्रायः फलित के विरुद्ध लेख लिखने और लेक्चर देने में खूब उछल कूद मचाते हैं । और घर में आ कर इन में अनेक पण्डित फलित के काम से पेट पालते हैं । कहीं सत्यनारायण, कहीं चण्डीपाठ भी पड़ जाते हैं। एक समाजी परिहत ने किसी का एक वर्षफल्म बना र क्या था । और एक मनुष्य का जन्मपत्र का विचार कर रहे थे। मेरे एक मित्र ने समाजी परिहत से कहा कि पण्डित जी भाप भी ज्योतिष को मानते हैं ? ॥ 66 स० [पति हैं, हैं, स्वामी जी ने तो झूठा कहा है, पर मैं ठीक २ फल इस के देख कर कुछ २ सच्चा मानता हूं । प्रश्न – स्वामी जी की बात झूठी, या आप की ? ॥ समा० पं० - स्वामी जो भी थे । मनुष्य सत्य का ग्रहण असत्य का त्याग, हमारा चौथा नियम है कि हम सत्य बात को मानते हैं। स्वामी जी झूठे हों, या मच्छे हों इस से कोई हानि नहीं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षष्ठोऽध्यायः ॥ प्रश्नकर्ता-गत सप्ताह के भार्यमित्र में फलित की निन्दा का लेख आपने क्यों छपाया पा । यदि माप बुग न माने तो ब्राह्मणसर्वस्व वा पताका में पाप के ज्योतिष मानने का समाचार रूपादें॥ स० परिखत-नहीं २ कृपा करना, समाज के लोग बुरा मानेंगे । बड़ा फजीता होगा। प्रश्न-तो श्राप सत्य सनातनधर्म की शरण में क्यों नहीं मा जाते ? देखिये सत्य के ग्रहण करने वाले श्रीमान् विद्ध. दर पं० भीमसेन जी थे। आप लोगों का कोई मत नहीं ॥ स. पं०-" टुंडे हाथ से पमीना पोंछते हुए जन्मपत्र को लपेटते हैं " भाई क्या करें समय ऐसा ही आ गया है। “ वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः" पर घरेल कार्यो में हम सनातनधर्मानुकल ही रहते हैं लड़के के जनेक ( यज्ञोपवीत ) में संस्कारविधि को ताक में रख अपनी प्राचीन पद्धति से संस्कार कराया था ॥ इति हमारे मित्र हंमते हुए चले पाये ॥ पाठकगण ! समाजीमत वास्तव में कच्चा है और उच्च श्रेणी के विचारशील समाजी भी मानचके हैं। सौ दो सौ वर्ष में विराट सनातनधर्म से मिलकर इस नवीन पन्य का मोक्ष हो जायगा । देशहित के कार्य की सम्बति करने के निमित्त नवीन पन्ध की चाल कुछ लोगों के पमन्द प्राई । अतएप कक ऐसे देशहितैषी लोग भी इस में सामिल हैं। जिनके मम्मिलित होने से समाज जीवित हो रहा है । इस समय अधिक मालोचना इस विषय की नहीं लिखते । पाठक ! फिर (जोशी० ) चमत्कार का ध्यान करें। (ज्यो० ० प ४४ पं०४)-इतने में थियोमोफी के प्रचारक कर्नल अलकाट और मैडम वलभष्टको हिन्दुस्तान में भाये एनी घसेन्ट ने बनारस में पाठशाला खोलदी, थीयो. सोफी के आने से नास्तिक ता चली गयी पर पुराना अन्ध For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ कार भी प्रागया फलित की जड़ हरी होगयी पढ़े लिखे लोग ज्योतिषियों के पास जाने लगे इत्यादि ॥ समीक्षा - जोशी जी । जब पढे लिखे लोग ज्योतिषियों के पान जाते हैं और थियोसोफी वाले बड़े २ फिलोमफर भी इसे मानते हैं । तो निरर्थक श्राप का डाह ज्योतिषियों को कुछ नहीं कर सकता | भारत वर्ष में अधिकांश उच्च श्रेणी के लांग थियोमोफी के पक्ष में होते जाते हैं और वे सभी लोग ज्योतिष विज्ञान के तत्व के मर्म को समझने लगे हैं। इसी प्रकार जर्मनी तथा अमेरिकन यूरूप के अनेक लोग फलित के परिडत होते ही जाते हैं। ऐसी दशा में आप की चिल्लाहट कौ बुद्धिमान् सुनेगा । आप ने लिखा है कि थियोसोफी आने से पुराना अन्धकार छाया और नास्तिकता दूर हुई । वाह वाह नास्तिकता हटाने वालों के साथ क्या कभी अन्धकार आ सकता है ? फलित की जड़ हरी हंती देखकर जो आप ने अन्धकार कहा सो आप का अन्धकार थियासोफी की पुस्तक तथा मेकजीन पढ़ने से भी न हटा गुसांईजी ने मत्य कहा है ॥ नयन दोष जाकई जब होई - पीतवर्ण शशि कई कह सोई ॥ जोशी जी महाराज ! फलित वालों की तो दिन २ प्रति ष्ठा कढ़ती जाती है पर आपने लिखा है कि सन् १८६० ई० तक चढ़ती रही। आप भूल में पड़े हैं, शोधा होगा कि हम अंग्रेजी पढ़े हैं जैसे हम नहीं मानते वैसे ही और बी० ए० ऐम् ए० तथा बड़े २ नौकरी वाले लोग ज्योतिष को नहीं मा नते होंगे पर यह बात नहीं है अनेक अंगरेजी पढ़े बी० ए० ऐम् ए वकील वैरिस्टर अनेक पण्डितों से भी श्रद्धा ज्योति ष स्वयं जानते हैं। ऐसे लोग इस आप को पुस्तक को देखकर हंसते होंगे। अनेक डिप्टी कलक्टर तहसीलदार ज्योतिषी परितों को गुरु मानकर चरण छूते हैं । और वड़े २ रईस ब राजा महाराजा लोग ज्योतिषियों को घर बैठे श्रत्र भी For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AA षष्ठोऽध्यायः ॥ सालियाना घरावर देते हैं, भेंट ( नजर ) हाथ जोड़कर रईस लोग ज्योतिर्विदों को देते हैं। नौकरी इत्यादि पेशों से प्रा. ज दिन भी गणकयरों की अधिक प्रतिष्ठा ( इज्जत ) है ॥ __धर्म सभा और पांग संशोधिनी सभा महामण्डल तथा परिषद् इत्यादि सभाशों के प्रचार होने से बड़ी २ उपाधि और मेहल (सग्में) हम को मिलने लगे हैं। पहिले ये बातें कहां थीं? मेमोके प्रचार से ग्रन्थ रचना, टीका करना, पंचाग अपामा, इत्यादि द्वारा पहिले से दूना नाम तथा धन घर बैठे पैदा करने लगे हैं। सम्बाद पत्रों की कृपा से दूर २ नाम फैलने ल. मा है। सरकार गवर्नमेण्ट भी मध्छे ज्योतिषियों की इज्जत करती है। अनेक पण्डितों को हिलोमा दिये हैं। केवल हिन्दूलोग ही ज्योतिष को नहीं मानते किन्तु अन्यधर्मी ईमाई जैमी नमाजी समाजी तर मी मानते हैं। थियोसोफि. कल सोसाइटी में भी भादर किया है और वरावर इस प्रत्यक्ष शास्त्र का प्रादर बहता रहेगा। पाठक ! कुछ अदूरदर्शी लोग इस शास्त्र के विरोधी हैं सो ऐसे लोगों की सामान्य कोटि में गहमा है। अच्छे कुलीन शिक्षित लोगों में केवल एक हमारे मित्र पं० जनार्दन जोशी जो (ज्योतिष से क्यों चिह पड़े) हिपटौ साहब को छोड़ सभी कुस्लीन सनातन धर्मी तथा उच्च कक्षा के मार्यसमाजी तक ज्यो. तिष शास्त्र को मानते हैं। हां शद अन्त्यजादि जो समाजमें सम्मिलित हैं। नाई धोबी तेली चमार काही पात्रा कोरी कलार तमोली, ऐसे लोगों के मानने वा न मानन से कोई हानि नहीं हो सक्ती ।सूर्य मण्डल में धलि फेंकने से प्रकाश नहीं हट सकता उल्टी होकर वही धलि फेंकने वाले के म. स्तक की शोभा घटाती है। प्रियवर ! आज कल के कतिपय न्यूफैशन के जैन्टल मैन इस अमूल्य शाखा रूपी मणि की दुर्दशा करने को कटिवद्ध हैं। परिडत जी को देखते ही कहने लग जाते हैं कि “पण्डित For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ जी हम आप के शास्त्र को नहीं मानते, बाप दादे मूर्ख थे तो हम थोड़े मूर्ख हैं जो भाप के प्रपञ्च में फेल है। मैंने सुना है कि जब मेरी अवस्था ५। ६ वर्ष की थी तब हमारे बद्ध पोप (पिता) जी ने किसी ज्योतिषी को मेरा जन्मपत्र दिखाया था। ज्योतिषी ने कहा तुम्हारे पुत्र के ग्रह ऐसे पड़े हैं कि यह धर्म भ्रष्ट और अनाचारी होगा। पिता की प्राधा नहीं मानोगा इत्यादि सो हम पूरे रिपोरदाचारी धर्मात्मा सुन अनी ४ कुरानो और वारह किरानियों को पवित्र करके वैदिक धर्म में मिलाया, भोजन भी सन्द का मामा हम खाते हैं। पहो रगने पीने से किस का धर्म जाता है ? ये शोक पोपको को बनाये है॥ अवक्ष्यरेलोगोमांसं चाहालासमथापिया। यदिभुक्तंतुधि । शुभकान्द्रायणंचरेत् ॥ एकपडायुविधामा वाणांसहभोजने। योकोपित्यजेत्यानं शेषमशन मोजयेत् ॥ पाराशर स्मृति अं० ११ ॥ - कार -अमन सहनादि, ऐन, क ( वीर्य ) गोमांस नीवर पोती इत्यादि ) धागाल का अन ईमा रन खा लदे तो कृष्ल बान्द्रामा त परै एक र लोक न करते समय उन में से यदि एक मनुष्य भी पसल र उठ जाय तो अन्य लोग उच्छिष्ट समझकर खाना छोड़ देवें। असंस्पृश्येनसंस्पृष्टः स्नानंतेनविधीयते । तस्यचोच्छिष्टमनोयात् एण्यासान्कृच्छमाचरेत्॥ अविस्मृ० श्लो ७४ ॥ भाषा-चाण्डालादि का स्पर्श करने वाला स्नान करने से शद्ध होता है | वाह ! वा ! पोप जी जब हम स्नान करने पर जाड़े से अकड़ गांप? लो या हा धर्म नष्ट हुए । कहिये भाप For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - षष्ठोऽध्यायः ॥ ७५ ! के ज्योतिष का फन ठीक क्यों नहीं मिला, वम तुम्हारा ज्योसिषझूठा " । हम के पीछे एक दूसरे महाशय पहुंचे आप फरमाते हैं कि पति श्री माप के सितारों का हिमाव कपास के खिलाफ है। सुझे भी ऐतकाद गोया बिल्कुल नहीं है, किसी पंडल ने मेरी बाल्दा के ज़नुम पत्तर में विधवा होना लिखा था, सो सत्रहवें वर्ष उस वदुत्रा की यजेह से उनके खामिद का इन्तकाल हो गया, बड़ा सद्ना उन्हें उठाना पड़ा। बाद नियोग कराने से मेरी पैदा हुई चूंकि खी विधवा हरगि ज नहीं हो सकती वेद का खोफ है "पतिमे आदर्श कृषि प का विचार क्या काम दे सकता है ?| अनुम पत्तर के स रहते तो हमारा जन्म कैसे होता ?। विरेमन लोगों ने "मान्यस्मिन् विधवा नारी नियोकव्याद्विजातिभिः, और "न दिदीयस माध्यमां कचिङ्गतपदिश्यते" ये लोक मनु में मिला दिये हैं" ॥ पाठक ! इन की बात चीत अभी पूरी नहीं होने पाय 'थी कि मिष्टर पेटल जी भैरव के वाहन को साथ जे ब रूट के अग्रिहोत्र से वायु शुद्ध करते हुए पहुंचे इनको खते ही हमारे परिइतभी तो कविता करने लगे ॥ बूटं च कोटं पतलून दिव्यं चुरुटं मुखे चल मद्वितीयम् । बधगुलामं शुभकर्महानं न्यूफेसनं भूष्टपथं कठौ शुभम् ॥ बाबू पैट-यू पण्डित वेड्नेत पड़ा झूठा अभी दोशाल हुआ दुम कहा था दुम्हारा ग्रह वहीत अच्छा टुम खुश रहे - गा फिर क्यों rिबिलिस का बेमारी हमारा अच्छा नहीं होता टुम झूठा माइफैमली को हिष्टिरीया मार्च से बहोत ज्यादा है। यू बैडमैन टुम्हारा विचार ग़लत पेस्कारी का मोमिनेसन हमारा जनवरी से हो गया तो क्या तुम सच्चा हो सकता है। विलिस से हम को बढ़ा टक़लीफ है हालत For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६ ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ खराव हो गया, वस इस विषय को अधिक बढ़ाने की इच्छा नहीं है इन की आलोचना अधिक नहीं करते आगे अपने निर्दिष्ट की ओर चलते हैं। (ज्यो० १० १० ४५॥ ४६ ) में विचार करने योग्य विषय नहीं एक कल्पित कथा लिखी है। पृ०४७ । ४८ में लिखा है कि मैंने एक हजार लक जन्मपत्र देखे विधवा स्त्री तथा संन्यासियों के जन्म पत्र तक इकट्ठे किये । मैंने जो फल कहे कईवार ऐसे ठीक लगे कि एक दिन मेरी कचहरी में ६ मुकदमों में राजी नामा हो गया। जब हजार कुण्डली देखी तो सच्चा भेद समझ गया। पाठक ! हम नहीं कह सक्ते कि ऊपर की वात कहां तक सच्ची है। यदि आप का कथन सत्य हो तो जरा शोचिये तो विना गुरु लदय के छोटी २ पुस्तकों की देख भाल करने मात्रसे जब भाप अच्छा फलादेश कहने लग गये थे और ६ मुकदमों में राजी नामे करा दिये थे तो ये सब बातें ज्योतिषी वंश के प्रताप से हुई होंगी। यदि आप किसी विद्वान् से कुछ काल अध्ययन कर लेते सिद्धान्त ग्रन्थ पढकर ग्रह गणित तथा पञ्चांग बनाना सीख फलित के बड़े बड़े ग्रन्थों का तत्व समझ कर फलादेश कहते तो वड़े २ लाभ विदित हो जाते वडा पुण्यफल मिलता ॥ यथा दशदिनकृतपापहन्तिसिद्धान्तवेत्ता त्रिदिनजनितदोषंतत्रविज्ञःसएव । करणभगणवेत्ताहन्त्यहोरात्रदोषं जनयतिबहुदोपंतत्रनक्षत्रसूची ॥ हक को श्राप के कहे फलादेश ठीक मिलने में सन्देह जान पड़ता है। ग्रहगणित के दशभेद और बड़े २ ग्रन्थों का मर्म जाने विना सत्य फल ठीक २ नहीं कहा जाता ॥ For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षष्ठोऽध्यायः॥ उक्तन-दशभेदंग्रहगणितंजातकमविलोक्य निरोक्ष्यशेषमपि। यःकथयतिशुभमशुभंतस्यनमि थ्याभवेद्वाणी ॥ ____ जो ज्योतिष के अान्तरिक शत्र हो, एक भी ग्रन्थ किसी विवाद से न प फनादेश की रेन दौडाने में तो लन की बाशी कभी गत्य होती है? नहीं २ कदापि नहीं ॥ ज्योतिष चमत्कार का प्रथम भाग ममाप्त हुभा ॥ इम भाग में जोशीजी का विशेष जोर पासमका सपडन दूढना से हो सका सभी धि. षप वेद ब्राह्मण गृह्यसूत्र स्मृति प्रतिहाम ज्योतिष के सिद्धान्त ग्रन्थों से मिट्ट कर दिये हैं। मैंने जो कुछ लिखा है वह ममातम धर्म सथा हिन्दु शास्त्रों के अनु कल लिखा है। निष्पक्ष धि द्वान् महाशय ज्योतिष नमस्कार की पुस्तक से से मिलाकर सत्यासत्य का निर्णय करें "ज्योतिष चमत्कार समीक्षा, यह पुस्तक सनातन धर्म का प्रकाश फैलाने के हेतु लिखी गयी है। मैं पाशा करता हूं कि विचारशील विद्वान् रस के पाठ से समतर होंगे। जोशी जी के कुतकों के कारण लिन लोगों को हिन्द ज्योतिष में शंका उत्पन्न हुई होंगी और रजस्वला होने के ती. नवर्ष उपरान्त कन्या का विवाह तथा मौसेरे भाई बहिनों के विवाह का समर्थन इत्यादिधर्म को दुबाने वाली बातें लिपकर जोशी जी ने जो अन्धकार फैलाना चाहाथा सो नष्ट हुआ। कुतकों का खराडन और दूढ समाधान हो जाने से धर्म की बुर द्धि होगी। लवनिमेष परिमाण युग वर्ष कल्पशरचण्ड । भजसिन मन तेहिराम कहंकाल जासुको दण्ड ॥ --- (*) ओं शान्तिः ३ (*)---- कपिल देशान्तर्गत षष्टिखात मिबासी पं० हरिदत्त ग. पाकात्मज रामदत्त ज्योतिर्वित्कृतं ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः पूर्वार्द्ध समाप्तम् ॥ ॥ शुभम्भवतु ॥ For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achan उत्तरार्द्धभूमिका ॥ पाठकग ! ज्यो० ० के द्वितीय भाग में पृ० से ७५ तक राशि नक्षत्रादि का कइ २ वर्णन तथा फलित की मोटी २ बातें लिखी हैं। और हेडिंग लिखा" जो फलित को प. दना चाहें योवृध भाग को पढ़ें, अन्य छोहदें,-अस्तु इस भाग की मालोचना नहीं लिखी, जहां कहीं खण्डम करने योग्य इस में स्थल होगा उसका खगान भी इस पुस्तक में भन्यत्र हो जायगा ॥ ___तीसरे भाग में पृ० ७६ से १०८ पर्यंत नरपशु और वन्देदीन, रामानन्द इत्यादि नाम देकर निरर्थक गडबड़ा व्यास लिखा है। क्योंकि न तो नाटक के तर्ज में है और न उपभ्यास के तर्ज पाल रस कुछ ठीक न होने के कारण गहबड़ा न्यास नाम इस ऊटपटांग लेख का ठीक है ॥ पाठक ! इस उपन्याम वा गड़बड़ा न्यास के उत्तर में तुपन्यास वा कोई शुद्ध लेख लिखना सभ्यता के विरुद्ध है इन मिरर्थक वातों को लिख कर अपने पाठकों का समय नष्ट नहीं करते । पृ० १०० से पालोचना प्रारम्भ की जाती है बड़े २ ग्रन्थों के पुष्ट प्रमाण लिख कर सामुद्रिक इत्यादि की माधीनता सिद्ध करते हैं। ह०-रामदत्त ज्योतिर्विद ॥ For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कारसमीक्षायाः उत्तरार्द्धप्रारम्भः ॥ वसुदेवसुतंदेवं कंसचाणूरमर्दनम् । देवकीपरमानन्दं कृष्णंवन्देजगद्गुरुम् ॥ पाठक महाशय ! ज्योतिषचमत्कार में पृष्ठ १०० से ११२ पर्यन्त शकुन स्वप्न इत्यादि के फल तथा सामुद्रिक को कुछ स्थल बातें ( मूर्ख कहावतें) हेडिंग दे कर हंसी की तरह पर लिखी हुई हैं । अब हम यह दिखाना चाहते हैं कि इस पुस्तक के लेखक महाशय ने वैदिक आर्ष ग्रन्थों का कहां तक तात्पर्य जाना है। वास्तव में गृह्यसूत्रादि ग्रन्थों का नाम इन को विदित होता तो गृह्यसूत्र तथा बंद का कुछ अंश भी, य. गानी वा यवनों का बनाया हुआ है, करने में अटि करते॥ देखिये पाठक ! मानवगृह्यसूत्र पुरुष २ के पञ्चदश खण्ड में जोशी साक्ष्य के कहावतों की कमी शान्ति लिखी हुई है। ___ यदि दुःस्वप्नं पश्येदव्याहृतिभिस्तिलान् हुत्या दिश उपतिष्ठेत् । ओं बोधश्चमा प्रतिबोधश्व पुरस्तादगीपायताम्, गोपायमानञ्च मा रक्ष माणञ्च पश्चाद्गोपायताम्, विष्णुश्मा पृथिधी च नागाश्याऽधस्ताद्गोपायताम् । बृहस्पतिश्च मा विश्वे च मे देवा द्याश्नोपरिष्टोद्गोपायताम्॥ अर्थात् अनिष्ट सूचक ऊट गधादि पर चढ़ना प्रादि दु:स्वप्न देखै तो ( बोधश्चमा०) मन्त्र पढ़ कर चार व्याहतियों से घत मिला कर तिलों का हवन करै । हम अपने पाठकों से प्रा. र्थना करते हैं कि " दुःस्वपमा नभिष्टं भुवानमुपजायते " के अनुमार दुर्गापाठादि के माघ २ इस प्रकार की वैदिक शान्ति भी आप लोग अवश्य क्रिया करें। For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८० ज्योतिषमत्कार ममीक्षायाः ॥ सामवेद के २६ वै ब्राह्मण में और मानवगृह्यसूत्र के १५वें रखण्ड तथा नापस्तम्भ के १२ ३ खण्ड में विस्तार पूर्वक यह विषय भरा हुआ है । अनेक प्रकार के उत्पात अनिष्ट शकुम दुःस्वप्नादि की शान्ति स्पष्ट रूप से इन ग्रन्थों में ज्योतिष के ग्रंथों की भांति वर्णित है। विस्तार भय से अधिक न लिख फार कुछ अंश यहां उद्धृत किया जाता है। मागृखं०१५ मू०६ गौर्वा गां धयेत् । स्त्री वा लियमाहन्यात् कर्त्तसंसर्ग हलसंसर्ग मुसलसंसर्ग मुसलप्रपतने मुसलं वावशोयुतान्यस्मिंशादभुत एताभिर्जुहूयात् । स्वस्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्तिनापूषाविश्ववेदाः, इत्यादि ॥ ___ भाषा-गौ का दूध गौ पोवैवा दो स्त्री परस्पर मारपीट भ. थवा बाहु युद्ध करें। फसल काटते समय दो दराती लड़पड़ें, कई हल परस्पर खेत में चलते हुए अकस्मात् भिड़प, धान्य कूटते समय दो मुमल भिड़ कर टूट जापं, अथवा दो दांत भिड़ कर अकस्मात् टूट जावे और राष्ट्र दर्शन उल्फादर्शमादि आश्चर्यजनक शकुन होयं तो "स्वस्तिन इन्द्रो० " इत्यादि पांच और पांच "त्रातारमिन्द्रः" इत्यादि इन दश मन्त्रों से पत की दश प्रधामाहुति करे, और जप होम पूर्ववत् करना चाहिये। सामवेदीय षड्विंश ब्रा० खराड ११ में देखिये सोऽधस्ताद्रिशमन्वावततेऽथ यदास्य ग वा मानुषमहिष्यजाश्नोष्ट्राः प्रसूयन्ते हीनाङ्गान्यतिरिक्तानि विकृतरूपाणि वा जायन्ते। असम्भवानि भवन्त्यधलानि चलन्त्येवमादीनि तान्येतानि सर्वाणि रुद्रदैवत्यान्य तानि, रुद्राय स्वाहा, पशुपतये स्वाहा,शूलपाणये स्वाहा, ईश्वराय For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तागडे-प्रथमोऽध्यायः ॥ स्वाहा, सर्वपापशमनाय स्वाहेति ब्याहृतिभिहृत्वाऽथ साम गायेत् । भाषा-जिप के गौ स्त्री भैम वकरी घोड़ी उष्टी के हीनाङ वा अधिकार विकृत रूप असंभव बच्चा उत्पन्न हो वा अचल पदार्थ चलायमान हो तो महान् उत्पात समझो । तच्छ मनार्थ शिव जी के पांच नामों से घताहुति देवै तो शान्ति हो॥ ___ पाठकगण ! इस प्रकार की अनेक शान्ति वेद ब्राह्मणादि में विद्यमान हैं कश्च विचार इस का पूर्वार्द्ध में भी लिख चुके हैं । स्थानाभाव से अधिक नहीं लिखते जो महाशय दे. खना चाहे वह विस्तारपूर्वक मामवेद के षड्विंश ब्राह्मण में खं० ३ से १२ खराड तक देख लेवें।। जिन लोगों ने ब्राह्मण गृह्यसूत्रादि वैदिक ग्रन्थों का कभी नाम भी न सुना होगा दर्शन तो दूर रहा। इस प्रकार के बाब लोग हिन्दुधर्म की मभी बातों को मूर्ख कहानत, कहैं तो क्या प्राश्चर्य है ! क्योंकि तमाम अवस्था उल्ल की गोल गोल भांख होती हैं। कुत्ते की दुम टेढ़ी होती है इत्यादि र. टते २ जो लोग समय बिता चुके हैं। उन की समझ में हिन्दू सनातनधर्म की फिलोसफी कम पाती है। हिन्दुधर्म मनुष्य को बुद्धि की कमौटी है। निर्बुद्धि लोगों को उस के द्वारा अच्छी जांच हो जाती है ॥ अब यहां से वाल्मीकीय रामायण के अनुसार शकुनादि के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान होना सिद्ध करते हैं। जिस समय भगवान् रामचन्द्र जी महाराज ने लंका को प्रस्थान किया था। उस समय सुग्रीव से कहा था कि हे सुग्रीव ! मुझे शकुन शुभ जान पड़ते हैं। अवश्य रावण को मार कर जानकी जी को हम लावेंग॥ निमित्तानिचपश्यामि योनिप्रादर्भवन्ति । निहत्यरावणसंख्ये ह्यानयिष्यामिजानकीम् ॥ वा० रा० यु० का० ४ स० ७ श्लो०॥ For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८२ ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ इसीप्रकार महाभारत में युद्ध के समय भगवान् कृष्णचन्द्र जी से अर्जुन ने कहाथा कि हे केशव ! मेरे हाथ से गाण्डीव धनुष गिरा पड़ता है और शकुन भी विपरीत जान पड़ते हैं " निमित्तानिचपश्यामि विपरीतानिकेशव ! ” और युद्धकाण्ड के २२ वें सर्ग में श्रीरामचन्द्र जी ने लदमण जी से कहा है कि हे भाई लक्ष्मण जी ! संसार के नाश करने वाले लक्षण दिखाई पड़ते हैं। काक, गद्ध, शगाल अशुभ सूचक शब्द करने लगे हैं। भयंकर वायु, उल्कापात, भूनिकम्प, इत्यादि दुःशकुन देखने से ज्ञात होता है कि ऋक्ष वानर तथा राक्षसों का भयंकर युद्ध हो कर अवश्य नाश होगा । मोः ! देखो वृक्ष पर्वत विना वृष्टि तथा वायु के टूट रहे हैं। इत्यादि श्लो० १-से ११ पर्यन्त २२वें सर्ग में देखिये ॥ निमित्तानिनिमित्तज्ञो दृष्ट्वालक्ष्मणपूर्वजः । सौमित्रिपरिष्वज्य इदंवचनमब्रवीत् ॥ १॥ लोकक्षयकरभीनं भयम्पश्याम्युपस्थितम् । निवर्हगंप्रवीराणा-पृक्षवानररक्षसाम् ॥ ३॥ वातावकरपावान्ति कम्पत्तेचवरन्धरा। पर्वतावाणिवेपन्ते पतन्तिदमहीरुहाः ॥ ४॥ काकार नास्तथानीय-धाःपरिपतन्ति च। शिवाश्याप्यशुमान्नादा-सदन्तिसुमहाभयान् ११ जब कि बाल्मीकीय रामायक्ष से प्रार्षग्रन्थ में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् रामचन्द्र जी का शाकन इत्यादि मानना साफ साफ लिखा है। लब हमारे जोशी जी जैसे,शास्त्रानभिज्ञ लोगों का प्रलाप कौन भास्तिक बुद्धिमान् हिन्दू सुनेगा ?। उपरोक्त प्रमाणों से भलीभांति इस विषय का पुष्ट समाधान हो गया। आशा है कि समो आर्य सनातनधर्मावलम्बी अपने पूर्वजों की भांति शकुन इत्यादि सभी विषयों में पूरा २ विश्वास रक्खेंगी। For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराई-प्रथमोऽध्यायः ॥ सामुद्रिक विद्या जिस का आज कल विलकुल लोप हो गया है। केवल दो चार रेखा याद करके दो च पैसे मांग खाने वाले लोगों ने हाथ देखने का चार्ज ले कर इस विद्या का अनादर करा दिया है। पूर्वकाल में इम का कैसा प्रचार था सो वाल्मीकीयरामायण से दिखाते हैं। जिस समय रावणा ने रामचन्द्र जी तथा लक्ष्मण जी को युद्ध में मूर्च्छित कर दिया था, तब नीता जो यो पुष्पक विमान में चढा त्रिजटा के साथ राममि में भेजा और यह कहा कि हे सीते ! अब तूं देख रामचन्द्र जी मारे गये हैं। उस समय श्री महारानी जानकी जी ज्योतिषियों के वाक्य याद करके विलाप करने लगी कि हाय ! मेरा विधवा योग किसी ने भाज तक नहीं घत लाया था। केश रोम जंघा दांत के चिन्ह तो मेरे सब उत्तम सौभाग्य बढ़ाने हारे थे ॥ उक्तञ्चभरिनिहतंद्रष्टा लक्ष्मणंचमहा विललापसीता करुणंशोककर्षिता ॥१॥ इमानिखलुपमानि पादयोबकुलस्विरः । अधिराज्यभिषिच्यन्ते नरेन्द्र पतिभिःसह ॥२॥ वैधव्यंयान्तियानायोऽलक्षणैर्भाग्यदुर्लभाः । नात्मजस्तानिपश्यामि पश्यन्तीहतलक्षणा ॥१॥ सत्यनामानिषदमानि लोणामुक्तानिलक्षणे । तान्यद्यनिहलेराने वितधानि भवन्ति मे ॥८॥ केशाःसूक्ष्मा:समानीला अवौचासंहलेमम । वृत्तेचारोमकेजधे दन्तायविरलामम ॥ ८ ॥ यु० का० स०४८ पाठक ! महारानी जानकी जी के इन वाक्यों से सामु. द्रिक इत्यादियों की प्राचीनता कैसी साफ झलकती है ! पर For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ जोशी साहब ने यवनों से इस का रचना बताया है, ठीक है कि इन विचारों को इतिहाम पुराण पढ़ने सुनने का अवसर कहां से गिला होगा । यदि रामायण के दर्शन किये होते तो यवनों का नाम क्यों लिखते ? ॥ अपने शास्त्रों से परिचय न होने के कारण यही दशा होती है कि वाल्मीकीय रामायण तो दूर रहा युरन सीकृत रा. मायण भी आप पढ़ लेते तो यवनाके पास क्यों जाना पड़ता। लक्षण तासु विलोकि भुलाने । हृदय हर्ष नहि प्रगट वखान ॥ जो यहि वरै अमर सोहोई। समर भूमि तेहि आत न कोई॥बा०मा० प्रश्न-जन्मपत्र का वनाना आपने किसी पुराना से सिद्ध नहीं किया। क्योंकि जोशी जो सनातनधर्मी हारभक्त होने के कारण पुराणों को मानते हैं ॥ उत्तर-जोशी जी ने पुराणों का दरोगा बड़े वढ़ों को बना दिया। यदि सत्यनारायण की कथा सुनने का भी क. भी उन्हें अवसर मिलता तो जन्मपत्र की शका नहीं रहती "लेखयित्वा जन्मपत्री नाम्ना चक्र कलावती” । और रामायण के अनुमार रामचन्द्रजी के जन्म समय के ग्रहों का तथा ति. घि नक्षत्रादि का वर्णन हम पूर्वार्द्ध में लिख चुके हैं । जन्मपत्र न बनाकर सम्बत् मास तिथि नक्षत्र ग्रह बार इत्यादि का जान किस प्रकार होगा, जन्म दिवम क्या श्राप के ज्योतिष चमत्कार से विदित होगा ? । धन्य हो जन्म तिथि भी मेटना चाहते हो?॥ प्रश्न-नाम कर्म संस्कार में ( होडाचक्र ) जन्म नक्षत्र के अनुसार नाम रखना यवनों ने चलाया होगा जब पूर्वकाल से प्रचलित है तो किसी प्राचीन आर्ष ग्रन्थ का प्रमागा दो। हम सनातन धर्मी हैं। ___ उत्तर-मानवगृह्यसूत्र देखिये, खं० १८ सू० २ “देवताप्रयं नक्षत्रानयं देवतायाश्च प्रत्यक्ष प्रतिषिद्धम्" For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरार्द्ध-प्रथमोऽध्यायः ॥ ८५ भाषा-जिस नक्षत्र में जन्म हो उसके देवता सम्बन्धी तथा नक्षत्र सम्बन्धी नाम रक्खै तथा आपस्तम्ब १४ "नक्षत्र नाम च निर्दशति,, । वालक का नक्षत्र सम्बन्धी नाम धरै । वस कह दीजिये कि ये सभी ग्रन्थ यवनों के वनाये हैं। यवन विचारे चाहे इन रीतियों को आज तक भी नहीं मानते पर "वककी तीन टांग" वाली हट आप की पूरी हो जायगी। प्रश्न-जोशी जी का जोर साम्य पर अधिक है। आपने साम्य का विषय किसी पुराण में नहीं दिखलाया ॥ ___ उत्तर-लीजिये जोशी जी ! मानैं अथवा न मानें हम पुराणों में भी दिखलाते हैं अग्नि पुराण के १२१ अध्याय से १३२ तक ज्योतिष का विषय व्यास जीने सूक्ष्म रूप से कहा है। ज्योतिःशास्त्रप्रवक्ष्यामि शुभाऽशुभविवेकदम् । पातुर्लक्षस्यसारंयत् तज्ज्ञात्वासर्वविद्ववेत ॥ षडष्टकेविवाहोन नचद्विादशेस्त्रियाः । नत्रिकोणे हतप्रीतिः शेषेचसमसप्तके ॥ द्विादशे त्रिकोणेच मैत्रीक्षत्रिययोर्यदि। भवेदेकाधिपत्यंच ताराप्रीतिरथापिवा ॥ आदिनाडीवरंहन्ति मध्यनाडीचकन्यकाम् । अन्यनाडीद्वयोमृत्युर्नाडीदोषंविवर्जयेत् ॥ ____ पाठक महाशय ! वेद ब्राह्मण, गृह्यसूत्र सुश्रत, रामायणा, तथा पुराणादि, के अनेक प्रमाणा देकर ज्योतिःशास्त्र (फलित) की प्राचीनता मिटु कर दी है। सभी विषयों का पुष्ट समाधान हो गया । जोशी जी ने अपनी पुस्तक में यवनों से ज्योतिष का चलना इत्यादि वेप्रमाण मनमाना लिखा था प्रमाण कछ भी न दे कर जो मुंह में आया सो लिख दिया। अब उस पुस्तक का प्रबल खण्डन देख कर रद्ध गुरुजन-धर्मात्मा सज्जन प्रसन्न होंगे। बोलो सनातनधर्म की जय ॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥ For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६ ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ ____ ज्यो० ८० पृ० ११३ से ११५ तक " दो ज्योतिषियों की सच्ची कथा ,, शीर्षक मनगढन्त कथा लिखी है। मेरे विचार से ये कोई पढ़े लिखे साढ़े वाईस नाम मात्र के ज्योतिषी होंगे क्योंकि आपने भी तो पुस्तक के टाइटिल पेज में अपने नाम के साथ ज्योतिषी नाम को दुम लगाई है ॥ ___ पृ. ११६ से ११७ तक साठी के चांवना काढ़ा आदि के माथ साथ कार्तवीर्य के स्तात्र गंगाजल हरिवंश के शपथ खानेवालों को दिल्लगी उठाई है। आप फ़रमाते हैं कि अब तो इन गीदड़ भवकियों में कोई नहीं पाता । धन्य हो मनातनधर्म इसी का नाम है कि गंगाजल हरिवंश तक की मरम्मत करडाली ॥ पृ० ११८ तथा ११९ में कौड़ी फैश कर जिस प्रकार पूरी तथा अधरी कौड़ियों का बोध होता है। उसी प्रकार रमल तथा पंचपक्षी प्रश्न मापने वताई हैं । ठोफ है “ मति अनरूप कथा मैं भाषी ,, एक देहाती किमान की याहावत याद आई है कि तार ( टेलिग्राफ ) को देख कर कोई किसान प्र. पने घर आया, और अपने मित्रों से कहने लगा कि मरे भ. य्या ! हम हूं अपने घर तार बनाई। कल बोला कि कैसे बनाई ? ॥ हीरा-दुई खम्भा लावो एक पूरब धांइ गाढ़ी एक पश्चिम धाइ वामें सूत वांध देउ खरी तार बा जायगो ॥ पाठक ! जिन शक्ति के बल से तार चलता है । माइन्स न जानने के कारगा ये लोग उघ बात को नहीं जानते थे। इसी प्रकार हमारे जोशी जी भी रमन के पांसे किम २ धातुओं से और किस प्रकार कसी विधि के साथ और पाचन. नाये जाते हैं। उप में क्या शक्ति विद्यमान है इस बात श्रो कुछ भी न जानने के कारण किमान की भांति कौड़ी में दौड़े हैं। आनेक रम्मा ग रगल के द्वारा प्रश्न तथा अनेक गुप्त बातें प्रश्न से बता देते हैं बार कौड़ियों से बनावें ॥ ( ज्यो० च० पृ० १९० ५० १३)-१९ वर्ष में सूर्य और पृथ्वी For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरा?-प्रथमोऽध्यायः ॥ को चान उसी प्रकार फिर से आ पड़ती है १९ वर्ष से ग्रह उसी क्रम से फिर लगते हैं। ____ ममीक्षा-ज्योतिषी जी! आप एक ग्रहणा निकालने की कोई नई सारणी बना डालिये १९ वर्ष से वही क्रम इस हिसाब से जल्दी मारगी लप्यार हो जायगी राम शोचा ॥ ___ ज्यो० च० पृ० ११९ से १२५ पर्यन्त जो कुछ खगहन करने योग्य विषय है उन का स्वराछा इस पुस्तक में पूर्व लिख दिया है। अधिक मनमानी निरर्थक बातें इन पृष्ठों में भी हैं । जैसे "कोई धर्मात्मा सोशियल सान्फरेन्स का सभापति इन का ( ज्योतिषियों का ) हुक्का पानी बन्द करा देगा, ममाचारपत्र में मन का विज्ञापन न छापै (इत्यादि) इन के खोटे दिन प्रा गये इत्यादि" लिखा है। समीक्षा-प्राप के तुल्य उच्च शिक्षा प्राप्त तथा उच्च पद प्राप्त हुए पुरुष को इस प्रकार के शब्द शोभा नहीं देते। रांड त्रिपों की भांति गाली देने से खराख्न नहीं होता ॥ ____ जोशी जी पण्डितों को जातिच्यत करने वाली सभा के सभापति श्राप बनेंगे या कोई और, मेरी समझ में तो इस प्रधान कर्भ के योग्य प्राप ही हैं। क्योंकि ऐसे सदाचारी धर्मात्मा अन्य लोग कहां, आप की इस कान्तरन्म का जल्मा कबतक हो जायगा। आगे आपने कहा कि इन के खोटे दिन आ गये, पर मुझे पूज्यपाद व्यास देव का वाक्य पाद आता है ॥ हत्तश्रीगणकान्वेष्टि गतायुश्चचिकित्सकान् । गतश्रीनगतायुश्च ब्राह्मणान्वेष्टिभारत ! ॥ (ज्यो० च० पृ० १२७ )-लम्बा मनुष्य बुद्धि हीन होता है यह एक मूर्ख कहावत पुराने ममय में कोई लम्बा मनष्य मूर्ख बद्धि हीन होगा उसे देख कर यह अनुमान कर लिया, लम्बे मनुष्य मूर्ख होते हैं। For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ ज्योतिष चमत्कार समीक्षायाः ॥ समीक्षा-हमने तो श्राप को यह मूर्ख कहावत किसी मूर्ख के जवानी कहीं नहीं सुनी। हां आज एक बीए की लिखी हुई पुस्तक में यह विचित्र कहावत लिखी देखी, जोशी जी लघण्ट की ज्योतिष से तो यह वात आपन नहीं लिखी है क्या ? ॥ ____ पृष्ठ १२८ का ख उगन पूर्व हो चुका है १२९ पृष्ठ में निरर्थक वाते हैं । ज्यो. च. पृ. १३० हिन्दुस्तान में सन् १८९८ में ८ ग्रह एक राशि में इकट्ठे हुए भार ज्योतिषियों ने कहा प्रलय हागा ___ समीक्षा-कोई ज्योतिषी इस प्रकार की वेहूदा वात नहीं कहेगा । सष्टि तथा प्रलय की ठीक २ ग गाना न्याय व्याकरण से नहीं किन्तु ज्योतिष ही से होती है। तिथिपत्रों के पहिले पृष्ठ में “ सष्टितो गताब्दाः " तथा " शेषाब्दाः" इत्यादि लिखा रहता है। प्रलय कब होगा, इस बात को सूर्यद्धिान्त का पहिला अध्याय पढ़ने वाले ज्योतिष के विद्यार्थी भी भली भांति जानते हैं । युगानांसप्ततिःसैका मन्वन्तरमिहोच्यते । कृताब्दसंख्यातस्यान्ते सन्धिःप्रोक्तोजलप्लवः ॥ स० सि० १ । १८ भाषा-इकहत्तर ७१ चतुर्यगी का एक मन्वन्तर होता है उस में कृत युगके प्रमाणा १७२८००० सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्षों तक जलप्लव (छोटा प्रलय होता है) किसी भांग पीने वाले मनुष्य ने ८ सन् में प्रलय का होना बताया होगा पञ्चांग के पहिले पृष्ठ की भी ख़बर होती तो क्यों ऐसी बात कहता ॥ ( ज्यो० च० पृ० १३१)-किसी की कुण्डली लामो हम यह सिद्ध कर देंगे कि यह धनवान है और यह भी सिद्ध कर देंगे कि महा दरिद्र है वही अल्पायु होगा वही दीर्घायु समीक्षा-क्यों नहीं यह आप की बुद्धि का चमत्कार है। महाशय जी अहेलिभिः पञ्चभिरुचकर्म है नरो भवेत्रोचकुच For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराई-द्वितीयोऽध्यायः ॥ श्व पार्थिनः, पांच ग्रह जिस के उच्च के पड़े हों उस को आप दरिद्री मिटु कर दीजिये। भगवान् रामचन्द्र जी की इस पुस्तक में कराडली लिखी है उम का नाम निकाल दीजिये " शनि यदा भानः ” के अतिरिक्त और भी कोई श्लोक याद है या नहीं ? ॥ ___ज्यो० च०प० १३३-जिस के 9। ६।१२ वां लान में मंगल हो ऐसो कन्या को मंगली कहते हैं । यह दूसरे विवाह में चढ़ाई जाती है। समीक्षा-मंगनी कन्या दारह योग वालों को व्याही जा. ती हैं जो नव युवक हों, दूसरे विवाह में विना नंगली भी व्याही जाती हैं। क्योंकि यह सब भाग्यानुसार हैं नहारानी सुमित्रा तथा सत्यभामा के क्या ६वां नंगल ही था क्यों दू. सरे विवाह में व्याहीं गयीं। ___ज्यो० च० पृ० १३५ से १४३ तक प्रसस्यता सहित निरर्थक वाते भी हैं । “यथा पृ० १३१ में मेरे जीवन समय में ही ज्योतिष नहीं रहेगा। पृ० १४२ पं० ११ में इतना धन कमाते हैं तो भी इन के मन्तानों को भीख मांगते ही देखा। पृ० १४३ ५० ९ में” मात साठ वर्ष तक संस्कृत पढ़ते हैं फिर मुहूर्त चिन्ता मणि ग्रहलापत्र सारावली इत्यादि रटते २ मर जाते हैं” ॥ ____ समीक्षा-जोशी जी ने अपने जीवन समय में ज्योतिष का लोप होना तो लिखा है परन्तु अपना जीवन समय क्यों नहीं लिखा? किती से मर्यादा गिना लेते । और जो भीख मांगते ही देखा इत्यादि लिखा है सो पाठक ! यही तो जोशी माहब ने निघड़क कलम चलाई है । भला किस ज्यो. तिषी विद्वान् को तथा उन को सन्तान को आपने नंगे पांव भीख गांगते देवा ? । दूर न जाइथे आप के पहाड़ी ज्योतिषी पण्डितों की बात कहता हूं देखिघे माला के पं० नीलाम्बर जोशी जी, वालियर के पं विष्णदत्त जोश जी, टिहरी के For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ पं० महीधर जी इत्यादि को श्राप ने नंगे पैर कहां भीख मां. गते देखा? । इसी प्रकार स्वर्गीय पं० यशोधर जी बरेली, तथा पं० गंगाधर जी गढ़वाल इन के सन्तानों को नंगे पैर भीख मांगते कब देखा? । धन्य हो ऐसी बात लिखते समय भाप की बुद्धि तथा सभ्यता ज्योतिष चमत्कार के पृष्ठों में कहीं दव तो नहीं गयी थी ? हम तो आप को भी ज्योतिर्विदों की सन्तान मानते हैं क्या आप को तो कभी वैसा मौका नहीं पड़ा था ? और भागे का वचन भी आप का पूरी २ सभ्यता प्रमट करता है। भारत वर्ष के ज्योतिर्विद् महाशयो शान्ति धारण करना योग्य है क्योंकि यावत्खलः प्रवलयिष्यति दोषजालं तावत्समर्थनविधौ सुजनोऽपि चालम्। नैसर्गिको यदु भयोर्जगतीति रीतिर्नाऽरोहतीति मम चेतसि कापि भीतिरिति ॥ ___ समाप्तोयं द्वितीयोध्यायः ॥ अब यहां से ज्योतिष चमत्कार के उन १२ प्रश्नों का उ. तर दिया जाता है। ज्यो० १४४ पृ० से १४८ पर्यन्त लिखे हैं । १-यदि कोई ज्योतिषी जन्मपत्र देख कर यह वतादे कि यइ अंगरेज की है यह मुसलमान की वा हिन्दू की ? उसे द. शहजार रूपये दूंगा। समीक्षा-आप ने सबाल ग़नत पूछा है। अगरेजों का मत १९०७ वर्ष से और १३ सौ वर्ष से मुहम्मदी धर्म प्रचलित है। ज्यातिष की उत्पत्ति के समय मनातन वैदिक धर्म था । तो उन का पता उस से कैसे लग सकता है? । अभाव का भाव नहीं होता, यह सबाल आप का वे समझो का है यदि चतुपद वा वृक्ष तथा मनध्य को जन्म पत्री के विषय में ऊपर का प्रश्न आप करते तो ठीक था। लाइये दश हजार की थैली For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराई-तृतीयोऽध्यायः ॥ मनुष्य तथा पशु पक्षी वृक्ष इन सब के जन्म पत्रों को हम पृथकर बतादेंगे। निम्न लिखित व ते होनी चाहिये ( क ) जन्मपत्र पूरा२ पद्धति का हो, सम्पूर्ण चक्र तथा कुण्डली लिखी हों (ख) इष्ट काल ठीक २ सत्य हो, एक पल का भी फर्क नहीं होना चाहिये ( ग ) मोर पक्षीय गणित अर्थात् ग्रह स्पष्टादि सूर्यमिद्धान्त के अनुमार हों (घ) कोई योग्य पुरुष मध्यस्थ हो जैसे पं० शिवकुमार शास्त्री जी, अथवा महाराज दर्भङ्गाप्रभति ॥ क्योंकि आप की वातों का प्रमाण नहीं ठीक २ वतादेने पर भी दश हजार क्या एक फूटी कौड़ी भी आप नहीं देंगे ऐसा अनुमान होता है। (२)-तीसरे कोठे से भाई बहिनों का ज्ञान होता है पुरुष ग्रह से भाई, स्त्री ग्रह से वहिन इत्यादि (प० १४३) शनि की दृष्टि है आप कहेंगे कि भाई बहिन कुछ नहीं।। समीक्षा-तीमरे कोठे से भाई बहिनों का ही नहीं किन्तु कई बातों का विचार होता है “ महोदरीणाम थकिकरागां पराक्रमाणामुपजीविनांच" इत्यादि विना गुरु के और वातें समझ में न आसकी तभी तो श्राप भ्रमजाल में पड़े, शुभ ग्रह की दृष्टि प्रथया युक्त होने से शनिबाला योग भी आप का कट जायगा। (३)-पृ० १४५-शनिक्षेत्रे यदा भानुर्भानुक्षेत्रे यदा शनिः । सद्य एव भवेन्मृत्युः शंकरो यदि रक्षति ॥ और ( पं०८) तीस वर्ष में दो वर्ष ऐसे होने चाहिये कि जिन में माघ फाल्गुन के । जन्मे हुए सारे पृथ्वी के बालक होते ही मर जांय । कहो तो ऐसे बालकों को जन्म पत्रियां दिखा दूं । ज्योतिषी कहेगा किसी ग्रह की दृष्टि से ये वासक बच गये क्या ग्रह की दृष्टि ईश्वर की कृपा से बलवान् है ॥ समीक्षाआप के लेख परस्पर विरुद्ध क्यों होते हैं? शुभ ग्रह की दृष्टि से इस योग का कट जाना आप स्वयं लिख चुके For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ ज्योतिष चमत्कार समीक्षायाः ॥ हैं। नीम वर्ष में ऐसे दो वर्ष कदापि नहीं पड़ सकते जिन में शुभग्रह की दृष्टि इत्यादि न हो। फिर दुनिया भर के वालकों को भरने की फिर आप को कों पड़ी, विना दीर्घायु योग पड़े केवल इन योग के पड़ने से शवश्य मृत्यु होगी। जन्म पत्र इन वागकों के दिख दूं यह बात आपने विचित्र कही जोषित बालकों के मिना दीर्घायु योग अथवा विना शुभयोग के ऐसे जम्मान गरे जन्म में भी नहीं दिखा सकेंगे। हो मरे हुये बालकों के जन्मपत्र किसी परिहन को धोखा देने के लिये भाप ने रख छोड़े हों तो ठीक है आप दिखा देंगे। जोशी जी ! ईश्वर जिस्की रक्षा करता है उसी के ऊपर ग्रह की शभद्रष्टि भी होती है। ऐमी गौटी २ वांतें भी भाप नहीं समझते कहां तक बुद्धि की तारीफ करें शरीर से भी स्थल मान पड़ती है ॥ ४-धनी लोगों के जन्मपत्र में यह भी लिखा देखा कि शनि उच्च का है धनी होगा पर ढाई वर्ष तक उच्च का होता है उन में बहुतेरे घोर दरिद्री हैं । ___समीक्षा-कोई प्रमाण तो दिया होता जोशी जी ! केवला उच्च का शनि हो जाने मात्र से ही धनवान होना कहीं नहीं लिखा है। इस प्रकार के अनेक योग होने में एक राजयोग पूरा होता है। फिर श्राप व्यर्थ प्राक्षप क्यों करते हैं? (पञ्चःदिभिरन्यवंशजाता ) के अनुसार पांच ग्रह जिम के उच्च के पड़े हों ऐसे पुरुष को श्राप दरिद्री दिखा दें। हम दश हजार की डींग तो नहीं हांक ते पर जो कुछ होगा पत्र पुष्प प्राप की नजर करके अपनी हार मान लेंगे। ५-पहिले कोठे से बालक का रंग बललाते हैं गोरा है या काला ? क्या रूस और यूरोप में मव के ग्रहों का एक ही माल होता है। जो सब गोरे ही होते हैं । हसब देश में सब काले क्यों होते हैं ? क्या सब ही को केतु होता है। For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराद्ध-तृतीयोऽध्यायः॥ ममीक्षा-आप तो अंक शास्त्र के शत्र हैं भला आप इन बातों को क्या समझते । पहिले कोठ से रंग नहीं किन्तु कद बतलाया जाता है। रंग तो चन्द्रमा के नवांशेश के अनुसार " चन्द्रसमेतनवांशपवर्णः " बतलाते हैं रहा रूस और यूरोप का फल मो पाठक महाशय ! इस श्लोक का अभिप्राय कुरूप है या रूपवान् इस बात को निश्चय करने का है। क्या वि. लायत में कोई कसप नहीं होते। साहब लोग अच्छी खवसूरत मेमों को विवाह काने के किये क्यों ढूंढते हैं। एक का हाथ पकड़ लेते क्योंकि वहां तो सभी गोरी होने से रूपवती होनी चाहिये थी सो बात नहीं है। ज्योतिष शास्त्र का वि. चार देश काल के अनुमार करना कहा है। ___ “लोकाचारंतावदादौ विचिन्त्य, देशेदेशे यो स्थितिः सैव कार्या। लोकेऽपीष्टं पण्डिता वर्ज यन्ति दैवज्ञोऽतोलोकमार्गेणयायात्” (राजमार्त०) ___इस के अनुमार रूस जर्मन अमेरिका आदि के किसी मनुष्य का जन्मपत्र लाइये हम वतादेंगे कि इस का रूप अच्छा है अथवा बुरा गौरारंग प्रधान होने पर भी यह अधिक गोरा है यह पीतवर्ण अथवा रक्तवर्ण लेकर गोरा है अथवा दू. वा श्याम वर्ण लेकर है इत्यादि यही उत्तर हवासियों का भी समझो उस देश के अनुसार उनका भी ठीक २ ज्ञान हो सकता है। ६-रांड़ स्त्रियों के विषय का उत्तर पूर्व दे दिया है। जो आपने लिखा है कि वैधव्य योग वाली सुहागिन और सुहा. ग के योग वाली विधवा हैं सो ठीक नहीं, उन स्त्रियों के इष्ट काल अवश्य ग़लत होंगे जिन के ऐसे उलटे योग आपने देखे होंगे अथवा यह वात भाप की बनावटी गलत है । जोशीजी! यह तो कहिये कि जो कुराष्ठलियां आपने बटोर रक्खी हैं उन के योग किसी पण्डित ने विचारे या प्राप ही ने अपनी बुद्धि के घोड़े दौड़ाये हैं। For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ 9- प्रायः ज्योतिषी तेजी मट्टी की पुस्तकें छापते हैं। यदि ये लोग तेजी मट्टी को जानते तो लखपति हो जाते || समीक्षा - "कृषिगोरक्ष वाणिज्यं वैश्यकर्म स्वमायणम्, इस द्वाक्य के अनुसार यह वृत्ति वेश्यां की होने के का रण स्वयं वाणिज्य नहीं करते । बम्बई प्रान्त के ज्योतिषी प्रायः तेजी मन्दी का हाल वहां के वैश्यों को बतलाते हैं सो वहां के मारवाड़ी इत्यादि लखपति क्या किरोड़पति हैं | ८- " पृष्ठ चन्द्रे भवेन्मृत्युः " इस यात्रा विषय के प्रश्नों का उत्तर दे दिया है || - नाडीवेध का उत्तर साम्य के अन्तर्गत प्रश्नोत्तर में आ गया, १०- यदि ज्योतिषी शभ मुहूर्त और भाग्य को जानता तो इस का लाभ प्राप स्वयं उठाता सब भाग्यशालिनी कन्याओं को अपने घर ले आता शुभ मुहूर्त को देख कर कितने ही ज्योतिषी लखपति हो गये होते ॥ समीक्षा- धन्य हो जोशी जी ? एक मूर्ख कहता था कि "डाक्टर वैद्यों को लोग क्यों बुलाते इत्यादि । डाक्टर साहब डाक्टर थे तो अपने बाप को क्यों मरने दिया ? वैद्य जी स्वयं क्यों कर मरते ?" | वही कहावत आपने किई । ज्योतिषी लोग ग्रहों के अनुसार जैसी कन्या मिलने का योग होता है इस बात को जानते हैं । भाग्यशालिनी कन्या किसी राजा के घर जन्मे तो उस के अच्छे ग्रह देखकर जबर्दस्ती अपने घर उठा लावें ? वाहवा ! डिपटी साहब अच्छा सवाल किया । और लखपति हो जाने वाला मुहूर्त्त छाप ने किस ग्रन्थ में देखा था, लोक तो लिखते ॥ ११- पृ० १४० । ९४८ क्या हिन्दुओं के यहां रांड रंडुवे कम हैं ? ज्योतिष से हमें क्या लाभ हुआ ? मुसलमानों को विना ज्योतिष विवाह करने में क्या हानि हुई ? ॥ समीक्षा - तो अब आप की राय से मुसलमान हो जाना For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराई-तृतीयोऽध्यायः ॥ चाहिये ?। खव यवन २ रटते हुए दुनियां भर को यवन ही करना निश्चय किया होगा! वेद में "शतं जीमेव शरदः शतवंशणुयाम शरदः, इत्यादि अर्थात् हम सौ वर्ष तक जीवें सौ वर्ष तक सुनैं इस प्रकार के अनेक मन्त्र हैं। बस कह दो इस वेद से हमें क्या लाभ हुआ ?। सन्ध्या में नित्य इस मन्त्र का पाठ करते २ सैकड़ों हिन्दू दयानन्दी १०० वर्ष से पहिले मर गये अन्धे और बधिर भी हो गये। केवल ज्योतिष के निषेध से प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। ___ जोशी जी ? उपोतिष शास्त्र से बड़े २ लाभ हुये इसी शास्त्र से इस देश की उन्नति हुई जब से इस का लोप होने लगा। तब से देश की दुर्दशा प्रारम्भ हुई । ओर नास्तिकता फैलने लगी विधवा अधिक होने लगीं । नाम मात्र की जन्मपत्री अाजकल कन्यानों की वनायीं जाती हैं। इष्ट काल ठीक नहीं होता यही रांड रंडुवा अधिक बढ़ने का मूल कारण है। १२ अंगरेजों ने ज्योतिष की प्रशंसा क्यों न किई। भास्कराचार्य वापदेव शास्त्री पं० सुधाकर द्विवेदी जी ने झूठा कहा। समीक्षा-जोशी जी : यह पुस्तक आपने होली के दिनों में तो नहीं लिखी ? क्योंकि भांग पीने का सन्देह होता है। पहिले आप स्वयं लिख चुके हैं कि २।१ विलायत के अंगरेज भी ज्योतिषी हैं और पृ० ४४ में कर्नल अलकाट और ऐनीवैसेन्ट के कारण फलित को जड़ हरी हुई। नाप लिख ही चुके हैं फिर अंगरेजों ने प्रशंसा न किई यह लेख यहां पर फिर क्यों लिखा है। इसीप्रकार पूज्यपाद भास्कराचार्य जी तथा वापदेव जी का नाम प्राप वार २ क्यों लिखते हैं ? ॥ शिर अरु शैल कथा चित रहई । ताते वार वीस तें कहई ॥ पूवार्द्ध में द्विवेदी जी का फलित मानना हम सिद्ध कर चुके हैं जिन को कुछ भी सन्देह होवे उन का पञ्चाङ्ग वे महाशय मंगा देखें । राजा मन्त्री संवत्सर के फल आय व्यय चक्र For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ और विवाहादि मुहूर्त्त लिखे रहते हैं । जोशी जी महाराज यह फलित नहीं तो और क्या है ? फलित किस पहाड़ का नाम है ? ॥ आप बुद्धिमानों का फलित मानना लिखते ढूंढ़ते हैं । देखिये महाभाष्यकार जैसे ऋषि मुनि फलित को मानते थे क्या वे बुद्धिमान् कुछ आप से कम थे ? ॥ 66 “ उत्पातेन ज्ञाप्यमाने वातायकपिलाविद्यु-दातपायातिलोहिनी । कृष्णा सर्वविनाशाय दुर्भिक्षायसिताभवेत् ॥ ( महाभाष्य ) भाषा - जो पीली विजुली चसके तो अधिक हवा चले लोहित वर्ण की चमके तो गरमी अधिक हो, काली धमकै तो नाश हो श्वेत चमके तो दुर्भिक्ष हो । 29 सुश्रुत अ० ३२ । १५ -- यस्य वक्रानुवक्रगा ग्रहा गर्हितस्थानगताः पीडयन्ति । जन्मक्षं वा यस्योरकाशनिभ्यामभिहन्यते, होरा वा,, For Private And Personal Use Only भाषा – निन्दित स्थान में हो कर वक्रानुवक्र ग्रह जिस के जन्म नक्षत्र अथवा जन्म लग्न को पीड़ित करें । क्रूर दृष्टि से देखें अथवा जिस की होरा को उल्का ( पुच्छल तारा ) शनिश्चर क्रूर दृष्टि से देखे वा घात करे उसे अरिष्ट जानना || पाठक ! बड़े २ ऋषि मुनि वैज्ञानिक विद्वान् सत्ययुग से ज्योतिषशास्त्र को बराबर मानते चले आये हैं। पर जोशी जी महाराज जैसे लोग अपनी हठ ( मम मुखे जिल्हा नास्ति) कहां छोड़ते हैं ? उन को शास्त्रों के वाक्यों की क्या परवाह है ? जो मुंह में आया वह लिख दिया ॥ ॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥ क Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरा?- चतुर्थोऽध्यायः ॥ ९७ ज्यो. च. पृ. १५१ से नैाण की ममालोचना किई गई है, देखिये किस प्रकार पूर्वापर विरोध इस लेख में भरा है ॥ पं. १ ज्योतिषी लोग मृत्यु का विचार अच्छा करते हैं। और इसी से ज्योतिष का विचार अधिक तर पुष्ट हुआ है। मृत्यु का वर्ष ही नहीं किन्तु महीना और दिन भी ठीक वतला देते हैं मुझं निर्याणा की सच्चाई का पूरा २ विश्वाम है। ____ ममीक्षा-यहां नाप मच्ची बात शिन प्रकार मानने लगे धन्यवाद है, जब मृत्यु का विचार नछा बत-गाते हैं और आपको पूरा विश्वास भी है फिर आप उस विद्या का खण्डन करने को केसे उद्यन हो गये ?! आगे शापने लिखा है कि "नि.. -या की सच्चाई मानगिक विद्या से सम्बन्ध रखती है,, प्राप इमोचन गाल में पड़कता इस चमत्कार को नहीं लिख वेठे? ना. ममिक विद्या से नहीं, किन्तु नियाग्रा की सच्चाई गणित विद्या से सम्बन्ध रखती है। निर्याणा कोई तन्त्रविद्या नहीं है। किन्तु मृत्ययोग देख कर इस का गणित किया जाता है। (द्वाविंशःकथितस्तुकारणं द्रेष्काणे निर्धनस्य सूरिभिः) ___जोशी जी ! कह दीजिये कि ग्रहगा भी मानपिक विद्या से सम्बन्ध रखना है । "जिस दिन ज्योतिषी लोग तिधि पत्र में ग्रहगा लिखते है लोगों को विश्वास हो जाने के कारण सी दिन ग्रहगा दीखने लगता है, क्या हानि । (पृ. १५२ पं०८)-ज्योतिषी लोग जान चंगे लोगों का निर्यागा नहीं निकालते। बुड्ढे और रगियों का विचार करते हैं। कच्चे दिल वाले इन्हैं सच्चा बना देते हैं। पक्के दिन घाले इन्हें झूठा। समीक्षा-अनेक जवान चंगे लोगों का निर्याशा बराबर ज्योतिषी लोग निकालते हैं। फिर झठ बोलने का ठेका श्राप ने क्यों ले लिय ? और कच्चे दिना पके दिल से ?। जशी जी ! For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ प्राप का चा दिन है या पक्का दिल, क्योंकि खण्डन करके से तो भाप ने दिखाया है कि हमारा पक्का दिल है। और अभी पृ० १५२ पं०५ में "मुझे निाश का रिश्वास है" भाप लिख पाये हैं। प्रापने ज्योतिष के निर्याणा में विश्वास किया तो आप कच्चे दिल वाले अपने ही लेख से सावित हुए ॥ पाठक ! पूर्वापर विरोध देखा ? पहिले पृष्ठ और दूसरे पृष्ठ के लेखों को भी खबर नहीं रही । तब ही तो लोटा चढ़ाने का सन्देह होता है ॥ ____ ज्यातिष अद्भुत विद्या है नैणि निकालने वाले अनेक ज्योतिषी विद्वान अब भी भारतवर्ष में विद्यमान हैं। मी थोड ही वर्ष हुए कि कलकत्ते में एक ज्योतिषी ने एक रोगी का विचार प्रशद्वारा जन्मकराडली बना कर बताया। सारे कटस्य का हाल कहके क्षेत्र कृष्णा १० को उस बंगाली बाबू की मृत्यु क्ता दी घो। ठीक उभी समय ३६ वर्षको अवस्था में बाबू की मृत्यु हुई। कलकत्ते के विख्यात वेद्य बाब गंगा प्रसादसेन जी ने इस का इलाज किया था। यह कोई जोशी जी के वन्देदोन अथवा रामानन्द जी को जैमी झठी क्षघा नहीं है। कलकत्ते के अनेक प्रसिद्ध लोग तथा हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक पं० दुर्गाप्रसाद मिश्र जी तथा भारतमित्र पत्र के वर्तमान सम्पादक बाब वालमुन्द महोदय प्रादि इस घटना का हाल भलीभांति जानते हैं। भित्र जी ने भारतधर्म पुस्तक में विस्तार पूर्वक इस का हान लिया है। ज्यो. च० १० १५२ तथा १५३ एक मनुष्य को तित्राती घर भाता था मैंने कहा मन्त्र जानता हूं । एक लम्बा जना ले और पावार के दिन तड़के एक घंट पानी पिला दिया और कहा कि तेगा उबर गया । उसे विश्वास हो गया जबर कट गया । ममीक्षा-फाहिये भला न गप्प का क्या ठिकाना, तन्त्र मन्त्र टोने मोने भाव मात कर दिये, जी सत्रों मदी के एक ग्रंजएट ने अच्छी तन्त्र विद्या फैलाई । जोशी जी ! माप विश्वास दिला कर प्लेग वालों को क्यों अच्छा नहीं करते । For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरार्द्ध-चतुर्थोऽध्यायः ॥ एक लम्बा जना और एक लोटा पानी ले कर आप प्लेग के दिनों में दौरा किया करें। देश का बड़ा ही उपकार होगा। और नौकरी से भी अधिक प्राप को इस डाक्टरी के द्वारा प्राप्ति भी होगी । ज्यातिषचमत्कार को पुस्तक वे चने से उतना फ पदा नहीं हो सकता ॥ ज्यो. च० पृ. १५७ पं०-८-प्रत्य ज्यातिष हेडिंग दे कर लिखा है, हमारे पुराने ऋषि मुनियों ने ( सत्यज्योतिष ) त. पस्या और योग के वल से मीखा था इसी सत्य ज्योतिष के सीखने के लिये मनुष्य गणाना अंगरेज लोग करते हैं । समीक्षा-क्या आप का मत्य ज्योतिष यही है ? हमने तो यह शोचा था कि कदाचित् गणित विद्या को आप सत्य ज्योतिष मानते होंगे, पर आपने गणित की भी इतिश्री करदी। जोशी जी ! (ज्यो. च० ए० ४१ पं० ४)-में तो “ मन् ११५०ई० तक ज्योतिष की चढ़ती रही इत्त वीच में सामुद्रिक योग प्रश्न इत्यादि बहुत सी विद्यायें चलीं” इत्यादि प्राप लिख चुके हैं, तो कहिये आप के मत से सन् ११५१ के लगभग जत्र योग विद्या चली तो पूर्वकाल में ऋषि मुनियों को सत्य ज्योतिष सीखने के लिये योगविद्या क्या ज्योतिषचमत्कार से प्राप्त हुई ?॥ ___ पाठक महाशय ! ध्यान देखें कि योगविद्या और ज्यो. तिष विद्या पृथक २ हैं क्योंकि न्याय, वैशेषिक, योग, सांख्य, मीमांसा, वेदान्त ये षट् शास्त्र हैं। और शिक्षा, कल्प, व्याकरणा, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष, ये षट् वेदांग हैं। योग और ज्योतिष को एक समझना मूर्खता है। देखिये छान्दोग्य उपनिषद् में इन सब विद्याओं का पृथक २ वर्णन है और इस आर्ष ग्रन्थ से ज्योतिष की प्राचीनता भी सिद्ध होती हैं। ___“सहोवाच ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेद सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं प. जमं वेदानां वेदं पित्र्यं राशिं दैवं निधिं वाको For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२० ज्योतिषचमत्कार नमीक्षायाः ॥ वाक्यनेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्यायं सर्पदेव जनविद्यामेतभगवोऽध्येमि,, छा० प्र० ७ भाषा० - नारद जी बोले कि ऋग्वेद को स्मरण करता हूं तथा साम, यजु प्रथर्व, बेद को स्मरण करता हूं (इतिहास पुराणं पचमं वेदानां वेद) और इतिहास पुराण पांचवां वेद पढ़ा है ( पित्र्यं ) प्रारूप (राशिं देवं ) देवमुत्पातज्ञानं जिस से दे यतों के किये हुये उत्पात का ज्ञान होता है अर्थात् गतित को ( निधिं ) महाकालादि निधिशास्त्र को ( वाकीवाक्य) तर्कशास्त्र ( एकायन ) नीतिशास्त्र ( देवविद्यां ) निरुक्तम् (ब्र ह्मविद्यास्) ब्रह्म सम्बन्धी उपनिषद् योग का ( भूतविद्यां ) भूत तन्त्र को ( क्षत्रविद्याम् ) धनुर्वेद को ( नक्षत्रविद्यां ) फलित ज्योतिष को ( पपदेवजनविद्याम् ) सर्पविद्या गारुड गन्ध युक्त नृत्य गीतादि वाद्य शिल्प ज्ञान को भी मैं हमरण करता हूं ॥ इम छान्दोग्य के वाक्य से कितनी विद्या सिद्ध होगई और यहां भी नक्षत्र राशि चक्र वाले फलित ज्योतिष को ( जिस्को अंशी जी महाशय यवनज्योतिष कहते हैं ) पृथक हां ग्रहण किया है । पृ० १५० - ज्योतिष घोर नास्तिकता का मूल है सर्व शक्ति मान् जगदीश्वर को छोड़ ग्रहों की पूजा करने लगे । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा - मला झाप पूजा उपासना के तत्र को तो समझिये " मत्तः परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय । मयि सर्व मिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इत्र के अनुसार प्रत्येक पदार्थ में ईश्वर की सत्ता अनुभव करके सूर्य्यादि ग्रहों के द्वारा भगवान की आराधना हिन्दु लोग करते हैं। नव ग्रह ही नहीं तैंतीस कोटि तथा असंख्य देवताओं की पूजा किई जाती है। इसी भाव को लेकर पर्वत नदी वृक्ष तक की पूजा हम लोग For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तर- चतुर्भेऽध्यायः ॥ १०१ करते हैं । तब राहु मंगल की पूजा से प्राप क्यों घड़ाये क्योंकि ग्रहों को तो भगवान के शरीर भीतर ही माना गया है। कालात्मा दिनकृन्मनस्तुहिनगुः सत्वं कुज ज्ञोगिरो जीवीज्ञा सुखे सितश्च मदनो० । इत्यादि वृ० जा० ॥ ग्रहों की पूजा साक्षात् जगदीश्वर की पूजा है इनी लिये यज्ञादि में प्रथम ग्रहों की पूजा होती है यज्ञोपवीत में ग्रहयाग पहिले किया जाता है हवन में भूः स्वाह । इदमये । भुवः स्वाहा इदं बायये । स्वः स्वाह । इदथं सूयय। तीसरी ति कालात्मा सूर्य भगवान के नाम से ग्रहों को दिई जाती है । जोशी जी ! छाब छाप एक नई पद्धति भी बना डालिये क्योंकि हमारी पद्धति ( दशकम ) तो ग्रह पूजा ग्रहयाग युक्त होने से काम की नहीं रही। और दयानन्दी संस्कार विधि से काम चला लेते तो प्राप कहते हैं मैं नमाजी समाजी नहीं हूं । तो कहिये आप के जो बाल बच्चे होंगे उन के संस्कार क्या ज्योतिषचमत्कार से होंगे ? या कोई नयी पद्धति वनैगी । छाप ने लिखा है कि ज्योतिष घोर नास्तिकता का मूल है। इन हिसाथ से ज्योतिष के मानने वाले लोग अर्थात् सभी हिन्दुमात्र नास्तिक हो गये, तो आप का नाम होडाचक्र से रक्खा गया यज्ञोपवीत में ग्रहयाग भी कराया होगा आप के पूर्वज तो नास्तिक नहीं है? | कहिये आपका मत क्या है। धन्य हो दुनियां भर को नास्तिक बना दिया । भगवान् शंकराचार्य जी के वाद प्रास्तिक धर्म फैलाने को जोशी जी का ही जन्म हुआ है ॥ 1 ज्यो० च० पृ० १५० पं०५- अंगरेज लोग नित्य प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर आज की रोटी हमें दे उन को रोटी भी मिलती है और मक्खन भी, हिन्दू निर्वाण की इच्छा करते हैं अकाल महामारी से पूरा २ निर्माण हो रहा है ॥ - समीक्षा - लीजिये वेदान्त की भी मरम्मत कर डाली, जिन को मक्खन तथा रोटी का टुकड़ा ही दृष्टि पड़ता है ऐसे लोग For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ ज्योतिषचमत्कार ममीक्षायाः ॥ मोक्ष वा निर्वाणपद की निन्दा न करें तो और कौन करेगा? तभी से ईश्वर का कोप होने के कारण अकाल महामारी, इत्यादि फैले हैं। पाठक वन्द १९०७ मन में छपी हुई ज्योतिष चमत्कार पुस्तक का खण्डन पूरा हुमा मैंने सुना है कि अंगरेजी में यह पुस्तक कुछ अधिक जोशी जी ने लिख रक्खी है। मैंने अंगरेजी भाषा न जानने के कारण केवन हिन्दी में लिखी हुई पुस्तक का खण्डन किया है। यदि अवमर मिल गया तो इस का अंगरेजी अनुवाद भी कराया जायगा उस में अंगरेजी की पु. स्तक का पूरा खण्डन छपैगा ॥ पृष्ठ पंक्ति इस वार के ज्यो० च० पु० से ठीक २ मिलेगी इस बात का पाठक ध्यान रखें ॥ यह ग्रन्थ ईर्षा वा द्रोह से वा किसी का दिल दुखाने के अ. भिप्राय से नहीं लिखा गया । केवल सनातन वैदिक धर्मस्थापन, धर्म रक्षा के लिये लिखा गया है। सम्पूर्ण प्रमाण प्राचीन आर्ष ग्रन्थों के इस पुस्तक में दिये गये हैं। मैं आशा करता हूं कि सनातन धर्मी विद्वान् तथा मर्वसाधारण इस पुस्तक को देखकर प्रसन्न होंगे ओ शान्तिः ३ कर्माचल देशान्तर्गत षष्ठिखात निवासी पण्डित हरिदत्त दैवज्ञात्मज रामदत्त गण विरचित ज्योतिष चमत्कार समीक्षाया उतरार्दुः समाप्तः ॥ ॥ समाप्तोयं ग्रन्थः ॥ यत्रयोगेश्वरःकृष्णो यत्रपार्योधनुर्धरः । तत्रश्नीविजयोभूतिर्धवानीतिर्मतिर्मम ॥ पं० रामदत्त ज्योतिर्विद् भीमताल नैनीताल शुभम् भवतु ॥ For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acha www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नोत्तरी प्रश्न-मेरी समझ से तो ज्योतिष झठा है १।२ वातों को देख कर अनुमान कर लिया गया है कि मनुष्य की आयु विद्या धन इत्यादि गर्भ हो से नियत हो गये हैं। कभी टल नहीं सकते तो ‘पृष्ठेचन्द्रभवेन्मृत्यः ,, क्यों कहा है। क्या श्रायु घट सकती है। उत्तर-ठीक है हम बझते हैं कि पाप आयु बढ़ाने को वैद्य वा डाक्टर को क्यों बुलाते हो ? अटल आयु टल नहीं म. कती तो माफ किमी को जहर देर्दै अथवा स्वयं खा लेवें, क्योंकि प्रायु तो गर्भ ही से नियत हो चुकी है विष क्या कर सकता है ? । कालिज में जा कर लेक्चर दी जिये कि विद्या गर्भ हो से नियत हो गयी है। पढ़ना फिजल है । और आप नौकरी छोड़ कर बैठ जाइये क्योंकि धन तो गर्भ में ही निश्चय हो चका है। जो कुछ होगा टल नहीं मकता तो आप नौ. करी के द्वारा या धन कभी बढ़ा भी सकते हैं ? ॥ प्रश्नकर्ता जी ! योग तप अनुष्ठान तथा यत्न इत्यादि क. रने से प्रायु भी बढ़ सकती है। अनेक ऋषि मुनियों ने प्रायु को बढ़ा कर योगाभ्यासादि के द्वारा मृत्य को जीत लिया “न तस्य रोगी न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयंशरीरम्” इसी प्रकार अर्थार्थी भगवद्भक्तों को धन राज्य ऐश्वयादि प्रत्र तथा सुदामा जी की भांति प्राप्त हो जाता है। विद्या भी इसी प्रकार जिज्ञासु भक्तों को वाल्मीकि जी इत्यादि की तरह श्रा जाती है। ज्योतिष के द्वारा केवल पूर्वजन्मों के जो अनेक संचित कर्म हैं उन के शुभाशुभ फल विदित हाते हैं। महर्षि जैमिनि साफ कह गये हैं कि "उपदेशं व्याख्यास्यामः” अर्थात् "उपदिश्यते प्राक्तनशुभाशुभं कर्माने नेत्यु पदेशो जातकशास्त्रविशेषस्तं व्याख्यास्यामइत्यर्थः” जैसे कि किसी मनुष्य ने अपने पूर्व For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ . ज्योतिष चमत्कार समीक्षायाः ॥ जन्ग में ४० बर्ष की अवस्था में कोई गहा पाप शिया होय तो दूसरे जन्म में उमी अवस्था में मान पर दुष्ट ग्रह की दशा भावगी। उम मनुष्य को महा कष्ट होवे गा। और इम जन्म के जो कर्म हैं उन से इन शास्त्र का उतना सम्बन्ध नहीं है। हां पूर्व जन्म के कर्म और वर्तमान जन्म के क्रमों का मेन हो जाने के कारण कुछ २ मम्वन्ध अवश्य हो जाता है। पूर्व जन्म में किमी मनुष्य में विद्या में पूर्ण जाति प्राप्त किई । इम जन्न में उन का पञ्चम वृहस्पति उच्च का पड़ेगा। पूर्वाभ्याम होने के कारण बहुत शीघ्र विद्या इम जन्म में उसे आजाय गी। पढ़ने में अधिक परिश्रम उन बुद्धिमान् को नहीं करने पड़ेगा पूर्वजन्म के मूर्ख का पञ्चम शनि नीच का पड़ेगा । उम व्यक्ति की इस जन्म में महामूढ बुद्धि होगी कितना ही पढ़ाया जाय पर कुछ असर नहीं होगा हा उम भर पुस्तक रटते २ कुछ २ प्रभाव इम जन्म के कर्म का हो जाने से साक्षर होजायगा यदि पूर्वजन्म का अभ्यास होता तो षटशास्त्री तक इतना परिश्रम करने से हो जाता ॥ सारांश यह है कि इस जन्म के नबीन कर्म सञ्जप करने के निमित्त हम स्वाधीन हैं। पूर्वसंचित कर्मों के फल प्राप्त करने को परतन्त्र हैं अर्थात् ग्रहों के आधीन हैं। इसी का नाम दैत्र है बस यही देवाधीन फल जन्मपत्रादि के द्वारा दैवज्ञ लोग शास्त्र चतु से देख कर बतला देते हैं । इप्त को विद्या प्रच्छी प्रावेगी अथवा मूर्ख होगा धनाढ्य वा दरिद्री होगा, शान्त अथवा क्रोधी प्रारोग्य तथा रोगी होगा इत्यादि सैकड़ों बातें जान लेते हैं उस शास्त्र को झठा कहना नास्तिक अथवा मूर्ख अनार्य का काम है। पृष्ठे चन्द्रे इत्यादि यात्रा विषय का प्रश्न है, दिशाशल भद्रा योगिनी चन्द्रमा आदि यात्रा सम्बन्धी जो कुछ शुभाशुभ बातें विचारी जाती हैं, उन का अभिप्राय इस प्रकार है कि For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०५ प्रश्नोत्तर जसे कोई ज्येष्ठ के महीने में शीत देश के रहने वाले मनुष्य से कहै कि उमादेश में इम वीच मत जाना मर जानोगे, तो उप का यह प्राशय नहीं होगा कि जुरुवा देश में जाते ही राम नाम सत्य की नौबत हो जायगी, कटकन भी साथ ले जाना, अभिप्राय यह हुआ कि गर्मी में सख्त तकलीफ मिल्नेगो मृत्य तुल्य कष्ट होगा, स्वास्थ्य बिगड़ जायगा, इस लिये शीतकाल में जाना ॥ इसी प्रकार "पृष्ठ चन्द्रे भवेन्मत्यः" इत्यादि समझना चा. हिये। यदि अरिष्टी ग्रह को दशा उन अवमर पर आई हुई होय तो, निषिद्ध मुहूर्त में यात्रा करने से अवश्य मृत्यु भी हो जाय, शुभ दशा में भी दुष्ट मुहर्त में यात्रा करने वाले को दुःख अनेक प्रकार के उम यात्रा में भोगने पड़ेंगे। अत एव शुभ दशा तथा उत्तम मुहूर्त में यात्रा करने का शास्त्र में उपदेश है ।। ___" वारेचोपचयावहस्य सदशास्विष्टं प्रयाणं जगुः। कर्णान्त्यादितिभद्वि केषु मृगमेत्राऽर्कषु नोजन्मभे, इति मु० मा० या० प्र० श्लो १॥ सभी नास्तिक हिन्दू वरावर इसी कारण पूर्वकाल से मुहूर्त, शुभकार्य यात्रा आदि के करते तथा मानते चले आये हैं। भगवान् रामचन्द्र ने लंका यात्रा करते समय सुग्रीव से कहा था कि इस मुहूर्त में चलने से विजय होगा वाल्मीकि रामायण में साफ लिखा है अस्मिन् मुहूर्त सुग्रीव प्रयाण मभिरोचय” । इत्यादि ॥ कोई आवश्यकीय वा पराधीन कार्य अथवा संकट प्रा. जाने पर ग्रीन काल में भी उष्णा देश में जाना पड़ता है। कभी ऐसा अधमर भी ना पड़ता है कि जहां प्लेग फैला हो, महामारी से जो शहर खाली हो गया है वहां भी किसी कार्य या जाना पड़ता है । इसी प्रकार आपत्ति काल मा जाने पर "ब्रह्मवाक्यं जनार्दनः" इत्यादि मतानुसार गणेश रूपी परमात्मा का ध्यान वा प्रार्थना करके गुरु तथा ब्राह्मणों की For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ ज्योतिषचमत्कार ममीक्षायाः ॥ श्राज्ञा लेकर माधारण शिवा ( चौघड़िया) मुहूर्त करके जाना चाहिये इस को प्रापद्धर्म कहते हैं। कमुहूर्त में यात्रा करने वाले को शुभ दशा होने के कारमा केवल क्लेश और दुष्टदशा दुर्मुहूर्त होने से मृत्यु हो जाती है ॥ प्रश्न-शनि क्षेत्रे यदाभानुः भानुक्षेत्रेयदाशनिः । सद्यएवभवेन्मृत्युः शंकरो यदि रक्षति ॥ इम योग में नाम लेने वाले बालक जन्मते ही मरजाने चाहिये । पर २० । २५ वष के मैंने कितने ही इस योग बाल दखे जो कि माज तक जाते हैं सो क्यों नहीं मर गये ? ॥ उत्तर-त्रिषष्ठकादशेराहु-स्त्रिषष्ठकादशे शनिः। त्रिषष्ठकादशेभौमः सर्वानिष्टोन्निवारयेत् ॥ इस प्रकार के अनेक अरिष्ट भंग करने वाले योग जिन के पड़ने से अरिष्टी योग पट जाते हैं सो शुभ योग कोई पड़जाने के कारण उन की मृत्यु नहीं हुई होगी नहीं तो अवश्य मरजाते॥ प्रश्न-मूल नक्षत्र में जन्म होने से पिता का नाश होना लिखा है "आद्ये पिता नाशमुपैति मूलपादे, इत्यादि, अनेक मूल नक्षत्र वालों के पिता माता जीवित देखे हैं मूल नक्षत्र वालों को धनाढय भी देखा सो तन को मूल नक्षत्र का फल "क्यों नहीं लगा ॥ उत्तर-मूला नक्षत्र का फल ठीक २ लगा होगा, क्योंकि "स्वगै शुचिः प्रोष्ठपदेषु माघे,, माघे इत्यादि के अनुसार स्वर्ग अथवा पाताल लोक के मूल होंगे और भी मूल के कई वि. चार हैं वे अच्छे होंगे नहीं तो अवश्य पिता प्रादि का नाश हो जाता, मूग वृक्ष के विचार से " फन्ले राज्यं शिखावृद्धिः " इत्यादि उत्तम योग पड़ जाने से राजतुल्य अथवा धनाढ्य होना भी सम्भव है ये सूक्ष्म विचार बड़े कठिन हैं। इन वि. चारों को छापेकी एक भाषा टीका रख लेने वाले लोग नहीं लागते । वे तो यही हैं। रि मू । नक्षत्र पड़ा तो पिता का For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्नोत्तर ॥ नाश हुमा । बड़े २ विद्वानों के समीप विद्या पढ़ने से सदम विचार आते हैं ॥ प्रश्न-अथवा अन्य विचार मेरे अनुमान से तौ ज्योतिषी लोग अपनी बुद्धि के बल से बताते हैं (१) १६ सोलह वर्ष में विवाह होगा, तीन लड़के होंगे, अमुक वर्ष में भाग्योदय तथा अमुक में कष्ट इत्यादि मिलती जुलती वातें बताते हैं ॥ . उत्तर-बुद्धि के बल से तथा शास्त्र के बल से सभी बातें बताई जाती हैं विना बद्धि के शास्त्र का विचार नहीं होता। मजिष्ट्रट कानन के बल से “इन्साफ" न्याय करता है? अथवा बुद्धि के, विना बुद्धि के तो कानून की धारा अंड वंड होजा. यगो बिना कानन पढ़ा कोरा बुद्धिमान कुछ भी इन्साफ नहीं कर सकेगा नहीं तो सरकार विना लौ पास किये बुद्धिमानों को अथवा कानन पढ़ाकर मूर्ख मा निर्बुद्धि लोगों को मजिष्ट्र ट बना देती ॥ . इसी प्रकार बुद्धि तथा शास्त्र के बल से सभी बातें बतायी जाती हैं ज्योतिषी पण्डित्त भी बिचार बताते हैं, अमुक घर्ष बिवाह अमुक में भाग्योदय अमुक में कष्ट इत्यादि न बताबें तो क्या यह वतावै कि "अमुक वर्ष में यज्ञदत्त के मींग या पंच जमेगी, चार पैर अयत्रा तीन कान हो जायेंगे, हाथ से चलने और पेर से खाने लगेगा इत्यादि” धन्य हो महाशय जी ! जो संमार से मिलती जुलती वाते हैं वही बतायी जाती हैं, आप क्यों घबड़ाये ? ॥ प्रश्न-ज्योतिषी ने कहा चिन्ता हो, ऐसा कौन हैं जिसे चिन्ता नहीं फिर कहा रोग हो वा कष्ट हो ऐमा कौन है जिसे कष्ट वा रोग न हो, कह दिया लाभ हो लाभ किसे नहीं होता। उत्तर-पनकर्ता जी ! अनुमान होता है कि आप को अभी मंमार का अनुभव नहीं हुआ ऐसे अनेक लोग हैं जिन्हें स्वप्न में भी चिन्ता नहीं, गिईन्द्र होकर परमात्मा का भजन करते For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ हैं, हां पराधीन दासवृत्ति करने वाले लोग फिकिरमन्द अवश्य रहते हैं। अनेक लोग ऐसे नीरोग हैं जिन्हों ने कभी डाक्टर तथा हकीम का दर्शन भी नहीं किया मौट ताजे रहते हैं। कोई कष्ट वा रोग उम्र भर नहीं हुआ और इसी प्रकार किसी को रात दिन बैंक में लूनाछन रुपया भरने की फिकिर रहती है और किसी को एक पैसे का भी लाभ नहीं होता। कुत्ते की तरह पराये टुकड़े खाकर पेट पालना पड़ता है। सो ज्योतिषी लोग लोभ वाले को लाभ, कष्ट वाले को कष्ट पूर्व कर्मानुसार शास्त्र के बल से ठीक २ बता देते हैं। दश का लाभ होगा अथवा ५० का सहस्र पति वा लखपति होना। राजयोग चक्र वर्ती मागइलिक क्या होगा मब बातें ज्योतिष बता देता है। प्रश्न-मैं ५० कुण्डली मिलाकर रांड और सुहागिन स्त्रियों की भाप के सामने रखता हूं आप बता देवेंगे राड़ों की कौन और सुहागिन स्त्रियों की कौन हैं ? ॥ उत्तर-हां जिन का पूर्ण वैधव्य योग होगा अवश्य बता देंगे फिर जिन का भई वैधव्य योग होगा प्रथा माम्य ठीक न होने से वैधव्य होगया हो उन की कुण्डली बताना कठिन है। अगर आप परीक्षा करना चाहें तो चतुष्पद और मनुष्यों का पूरा जन्मपत्र ले प्रावैहम पृथक र बता देवंगे। पर जन्म पत्र उन के ठीक २ सच्चे हों एक पल का भी फरक न हो और सिद्धान्तों के अनुसार स्पष्ट तथा पूरा २ गणित होना चाहिये। प्रश्न-जिन के सौभाग्य का पूरा योग हो ऐसी कन्याओं के साम्य की क्या जरूरत है। क्योंकि विधा तो हो नहीं सकतीं और जिन का विधवा योग होगा तो वे अवश्य विधवा होंगी साम्य से क्या लाभ हुआ योग सच्चा या साम्य ॥ उत्तर-दोनों सच्चे पूर्ण सौभाग्य के ग्रह जिन के होते हैं वे विधवा कदापि नहीं होती हैं। पर साम्य ठीक न करनेसे ( दम्पती) दोनों क्लेश में रहते हैं अनैक्यता कलह वियोग For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वा रोग तन के पीछे २ बराबर लगा रहता है ठीक २ साम्य हो जाने से प्रीति पूर्वक प्रानन्द अथवा सुख से उन का जीवन व्यतीत होता है । अतएव साम्य की आवश्यकता उन के लिये भी हुई, और जिन का पूर्ण वैधव्य योग होता है उन के साम्य ही में गड़बड़ पड़ जाती है या तो घर के लोग वि. चाह रुक जाने के भय से कुण्ड नी बदल कर अच्छे ग्रह बना देते हैं। अथवा धींगा धींगी करके विना ठीक २ साम्य किये विवाह करा देते हैं। विवाह होते ही वे कन्या पूर्वकर्मानुसार विधवा हो जाती हैं । पति प्रति कूल जन्म जहं जाई । विधवा होइ पाय तरुणाई ॥ ऐमी विधवानों के ग्यारह घार क्या हजार वार भी विधवा विवाह करोगे तो फिर भी विधवा हो जायगी और नियोग करने वाले दोस्त भी प्लेग में धड़ाधड़ उड़ते जायंगे। बाबू सा. हब! शक्त योग और ठीक साम्य न होने के कारण प्रायः वि. धवा होती हैं। तीसरे दर्जे के ग्रह जिन के होते हैं अर्थात् सौभाग्य तथा वैधव्य के मिले हुए उनके लिये खासकर साम्य की अधिक मावश्यकता है। इति ॥ For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्पण-. श्रीमान् ब्राह्मणकुलभूषण, मिथिलाधिपति हिज हाइनेस, औनरेवुल, सर रमेश्वरसिंह जी, म. हाराज बहादुर के. सी० आई० ई० दरभंगा नरेश समीपेषु॥ श्रीमान् भारतधर्म महामण्डल के सभापति हैं। मैं महामण्ल का धर्मोपदेशक हूं, सनातन धर्म की रक्षा के निमित्त यह ग्रन्थ निर्माण किया है, अतएव श्रीमान् के कर कमल में इसे समर्पित करता हूं। कृपापूर्वक अंगीकार करके मेरा परिश्रम सफल कीजिये ॥ भवदीय रामदत्त ज्योतिर्विद धर्मोपदेशक भा० ध० महामण्डल For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only