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जाता है। उत्तमरीति से उपदेश करते हुए यदि किसी को रागद्वेष की प्रणति हो तो लेखक दोष का भागी नहीं है क्योंकि उत्तमरीति से दवा करनेपर भी यदि रोगी के रोग की शान्ति न हो और मृत्यु हो जाय तो वैद्य के सिर हत्या का पाप नहीं है । परि. णाम में बन्ध, क्रिया से कर्म, उपयोग में धर्म, इस न्यायानुसार लेखक का आशय शुभ है तो फल शुभ है ॥ अधिक मास को लेखा में गिनकर पर्युषणापर्व करनेवाले महानुभावों को नीचे लिखे हुए दोषों पर पक्षपात रहित विचार करमे की सूचना दी जाती है ।
प्रथम दोष । आषाढ़ चौमासी वाद पचास दिन के भीतर पर्युषणापर्व करे इस नियम की रक्षा करते हुए तत्तुल्य दूसरे नियम का सर्वथा भङ्ग होता है, क्योंकि पचासवें दिवस संवत्सरी, और उसके पीछे सत्तरवें दिन चौमासी प्रतिक्रमणा करके पीछे मुनिराज को विहार करना चाहिये। यदि दूसरे श्रावण में सांवत्सरिक कृत्य करोगे तो सौ दिन बाकी रहेंगे तब सत्तर दिन का नियम कैसे पालन किया जायगा इसका विचार करो ।
दूसरा दोष । भाद्रसुदी में पर्युषणापर्व कहा हुआ है तत्संबन्धी पाठ आगे कहेंगे । अधिक मास मानने वाले दूसरे
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