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षष्ठोऽध्यायः ॥ प्रश्नकर्ता-गत सप्ताह के भार्यमित्र में फलित की निन्दा का लेख आपने क्यों छपाया पा । यदि माप बुग न माने तो ब्राह्मणसर्वस्व वा पताका में पाप के ज्योतिष मानने का समाचार रूपादें॥
स० परिखत-नहीं २ कृपा करना, समाज के लोग बुरा मानेंगे । बड़ा फजीता होगा।
प्रश्न-तो श्राप सत्य सनातनधर्म की शरण में क्यों नहीं मा जाते ? देखिये सत्य के ग्रहण करने वाले श्रीमान् विद्ध. दर पं० भीमसेन जी थे। आप लोगों का कोई मत नहीं ॥
स. पं०-" टुंडे हाथ से पमीना पोंछते हुए जन्मपत्र को लपेटते हैं " भाई क्या करें समय ऐसा ही आ गया है। “ वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः"
पर घरेल कार्यो में हम सनातनधर्मानुकल ही रहते हैं लड़के के जनेक ( यज्ञोपवीत ) में संस्कारविधि को ताक में रख अपनी प्राचीन पद्धति से संस्कार कराया था ॥ इति
हमारे मित्र हंमते हुए चले पाये ॥ पाठकगण ! समाजीमत वास्तव में कच्चा है और उच्च श्रेणी के विचारशील समाजी भी मानचके हैं। सौ दो सौ वर्ष में विराट सनातनधर्म से मिलकर इस नवीन पन्य का मोक्ष हो जायगा । देशहित के कार्य की सम्बति करने के निमित्त नवीन पन्ध की चाल कुछ लोगों के पमन्द प्राई । अतएप कक ऐसे देशहितैषी लोग भी इस में सामिल हैं। जिनके मम्मिलित होने से समाज जीवित हो रहा है । इस समय अधिक मालोचना इस विषय की नहीं लिखते । पाठक ! फिर (जोशी० ) चमत्कार का ध्यान करें।
(ज्यो० ० प ४४ पं०४)-इतने में थियोमोफी के प्रचारक कर्नल अलकाट और मैडम वलभष्टको हिन्दुस्तान में भाये एनी घसेन्ट ने बनारस में पाठशाला खोलदी, थीयो. सोफी के आने से नास्तिक ता चली गयी पर पुराना अन्ध
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