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चतुर्थोऽध्यायः ॥
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भाषार्थ जो कोई पुरुष बुद्धिमान् होकर अत्यन्त दुःख में रहता हो अर्थात् कभी क्लेश रहित न हो अथवा जिस किसी को प्राकाश से पर्वत टूट २ गिरते मालूम पड़ते हों अथवा पत्थर पीजैं वा पत्थर वा पाषाणपात्र टूट जाय अथवा भूकम्प होय, या स्थूल वृक्ष मूल से उखड़ पड़े, वा नदी का तट असिम तप्त रहे चौपाये पात्र २ पगों वाले हो जांय तो नहान् विघ्न के लक्षण जानना । इन के शान्त्यर्थ सूर्यदेवता का पूजन करे और ( उदृश्यं जातवेदसं० ) मन्त्र से स्थालीपाक की प्राहुति देखे पुनः सूर्य्य नारायण के पांच नामों से घृत का हम कर व्याहृति हवन करे तदनन्तर उक्त मन्त्र का प्रष्टो. तर शत अप करके स्वस्तिवाचन करे तो उक्त दोष की शान्ति होवे ||
पाठक महाशय ! यह दिग्दर्शनमात्र ही दिखलाया गया है । ग्रन्थवृद्धि के भय से अधिक नहीं लिखा। इन प्रमाणों से साफ २ ग्रहों की शान्ति तथा भूकम्प उल्कापात केतुदर्शन । मादि की भी शान्ति वाराही संहिता आदि ज्योतिष के ग्रन्थों में जिस प्रकार वर्णित है वह स्पष्ट प्रकट हुई। किसी प्रास्तिक हिन्दु को इस में कुछ भी शंका न रहेगी । हठीलोग मानें या न मानें। मायुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थ सुश्रुत के अनुसार भी ग्रहों की पीड़ा देना तथा शान्ति का वर्णन करते हैं इस आग्रन्थ को समाजी तक मानते हैं स्वामी द०जी ने भी सत्यार्थ प्रकाश के कई एक स्थलों में इस का नाम लिखा है ।
भूतविद्या नाम देवासुरगन्धर्वयक्षरक्षः पितृ पिशाचनागग्रहाद्युपसृष्टचेतसा शान्तिकर्म्म वलिहरणादि ग्रहोपशमनार्थम् ॥ सुश्रुत अ०९।१५
भाषा - देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षम, पितृ, पिशाच, नाग, श्री नवग्रह, सूर्यादि (तथाबालग्रह) इन के लगने से पीfer चित्त वालों को ग्रह आदि दोष दूर करने के अर्थ शान्ति कर्म तथा बलिदान आदि कर्म भूनविद्या कहलाती है ॥
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