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बनाने की क्या आवश्यकता है, क्या वेदको श्रुतिओं से मूर्ति के बिना ईश्वर की प्रशंसा और पूजा नहीं हो सक्ती है ।
मन्त्री-वाह ! साहिब! क्या वेदकी श्रुतिएं चैतन्य हैं ? वह भी तो जर अपरों का समूह ही है । इस प्रकार से ईश्वरपूजा का कारण जड़ ही सिद्ध हुआ। .. आर्य-श्रीमन् ! हम उन जड़ अक्षरों से ईश्वर ही का जाप करते हैं।
मन्त्री-महाशय जी ! हम भी तो मूर्ति द्वारा ईश्वर के स्वरूप को ही स्मरण करते हैं । अथवा जैसे आपनें जड़ अक्षरों में ईश्वर का जपन किया ऐसे ही हमने भी ईश्वर की जड़मूर्ति द्वारा ईश्वर के स्वरूप को स्मरण किया, भाई साहिब ! बात तो एक ही है । आप को भी मौलवी साहिब की तरह चक्कर खाकर स्थान पर आना ही पड़ेगा वा मूर्तिपूजा को मानना ही पड़ेगा। - आर्य-अच्छा जी, हम वेदकी श्रुतिओं को भी न पढ़ा करेंगे और केवल अपने मुख से ईश्वर की सेवा और प्रशंसा किया करेंगे कि हे परमात्मन् ! तूं ऐसा है और कहा करेंगे कि हे परमात्मन्! तूं हमको तारदे आदिर,तो फिर इसमें क्या व्यङ्गय है। .. मन्त्री -वाह साहिब ! आपके ऐसे कहने से तो यह सिद्ध होता है कि आप विद्या से रहित हैं क्योंकि केवल विद्या के प्रभार से जो कुच्छ मुख से बोला जाए उसे पद कहते हैं और कई अक्षरों के मिलने से पद बनता है तो फिर आपने जो कहा कि ऐसा तूं है तूं ऐसा है तूं हमको तारदे आदि २ क्या पद नहीं हैं ? और क्या जड़ नहीं हैं ? सर्व पद चाहे किसी ही भाषा के क्यों न होवें, जड़ही कहलाएंगे । इससे सिद्ध हुआ कि
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