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ज्योतिषचमत्कार समीक्षायाः ॥ वन्धुमती कन्यामस्पृष्टमैथुनामुपयच्छेत् । समानवां समानप्रवरां यवीयसी नगिनां श्रेष्ठाम् ॥ __ भाषा-बन्धुमती हो किभी पुरुष का संयोग न हुआ हो अपने वर्ण की हो पर से छोटी हो जिस के स्तम न उगे हों
और ऋतुमती न हुई हो रुपवती हो ऐसी कन्या के साप विवाह करना श्रेष्ठ है ॥ - प्रश्न-स्वामी दयानन्द जी ने "त्रीणि वर्षारयुदीक्षेत" छ. तीस धार रजस्वला हुए उपरान्त विवाह करना क्यों लिखा।
उत्तर-स्वामी जी ने सभी शाखों के विरुद्ध लिखा, खुध इस शाक का अर्थ बिगाड़ा है यह साक्षात् स्त्री के व्यभिचा. रिणी बनाने की विधि महात्मा जी ने लिखी है। माता पिता चैन करें कन्या पति खोजती फिरे। इस का अर्थ यह है कि जिम कन्या के पिता मातादि न हो वह ऋतुमती होजाय तब भी तीन वर्ष तक कुटुम्बियों की (उदीक्षेत) प्रतीक्षा करे कि ये वि. वाह कर दें। यह समय भी बीत जाय तब अपने कुल के सदूग जो पर मिले उसे घर ले यह प्रापदुम है। यही वसिष्ठ जी ने भी लिखा है। कुमार्यतुमती त्रीणि वर्षाण्युपासीतोवं त्रिभ्यो वर्षेभ्यः पतिं विन्देत्तुल्यम् ॥
अनुमान होता है कि शिसी दयानन्दी से इस सूत्र का भगह पगड अर्थ सुनकर जोशी जी वसिष्ठ जी का नाम लिख बैठे इस का अर्थ वही है जो पहिले लिख चुके हैं।
अभिप्राय यह है कि कन्या स्वयं अपना विवाह कदापि न कर यदि माता पितादि किसी कारण से न कर मकै अथवा पि. सादि कोई नहो तब भी तीन वर्षतक किसी वान्धवादि को नाश देखकर रहै । तदनन्तर लाधारी से (शकुन्तला की भांति) स्वयं विवाह करलेवे। क्यों कि प्रागे मिष्ठ जी ६३।६२झोक में यावध कन्यामृतवः स्पृशन्ति, लिखते हैं। यदि ठीक समय पर
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