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षष्ठोऽध्यायः॥ गये । म्यों नहीं, आप भी तो इंगलिश विद्या के विद्वान् हैं संस्कृत में स्वामी जी से कुछ न्यून हुए तो क्या हानि है।
( पश्चम अध्याय समाप्त)
छठा अध्याय ॥
(ज्यो० ० ० ४३ )-सन् १९५० और १८६० तक ज्यो. तिष की बड़ी चढ़ती रही बड़े२ गांव ज्योतिषियों को मिल गये ॥ इत्यादि
(समीक्षा)-माप का सकमीना ठीक नहीं, सष्टि के भारम्भ से आज तक बराबर ज्योतिषियों की बढ़ती है। बड़े २ राजा महाराजा अब भी ज्योतिषियों को गुरु मानते हैं। और आगे भी बराबर बढ़ती रहेगी चाहे श्राप लाख चेष्टा करें। पर ज्योतिषविद्या की कुछ हानि नहीं हो सकती। श्रम तो यूरोप के विद्वान् भी इस का आदर करने लगे हैं। पर शोक है कि भारतवर्ष के कुछ लोग दासवृत्ति में प्राण दे अपनी विद्या बुद्धि बुवा बैठे हैं और पश्चिम के लोग सभी विद्यानों की खोज तथा उन्नति कर रहे हैं।
प.४३ पं०८ से उप्रेतीजी की कथा लिख कर मापने सिद्ध किया है कि फलित का उन दिनों कैसा प्रभाव था। किसी विद्वान् का मिथ्या उपहास करना निरर्थक है, सभ्यता के विरुद्ध है। भागे पाप ने लिखा है कि अंगरेजी पढ़ने वालों की संख्या बढ़ने लगी। वंगाल में ब्रह्मसमाज का प्रचार हुआ स्वा० दयानन्द जी ने मार्यसमाज का डंका बजाया। तब तो फलित से मन हठने लगा एक फलित से ही नहीं, सभी हिन्दुस्थानी वस्तुओं से उन की रुचि हटी । और एक प्रकार के नास्तिक हो गये। ये वाते भाप को बहुत ठीक हैं नास्तिकों के फलित न मानने से कोई हानि नहीं। पर स्वामी जी
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