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ज्योतिषचमत्कारसमीक्षायाः
उत्तरार्द्धप्रारम्भः ॥
वसुदेवसुतंदेवं कंसचाणूरमर्दनम् । देवकीपरमानन्दं कृष्णंवन्देजगद्गुरुम् ॥ पाठक महाशय ! ज्योतिषचमत्कार में पृष्ठ १०० से ११२ पर्यन्त शकुन स्वप्न इत्यादि के फल तथा सामुद्रिक को कुछ स्थल बातें ( मूर्ख कहावतें) हेडिंग दे कर हंसी की तरह पर लिखी हुई हैं । अब हम यह दिखाना चाहते हैं कि इस पुस्तक के लेखक महाशय ने वैदिक आर्ष ग्रन्थों का कहां तक तात्पर्य जाना है। वास्तव में गृह्यसूत्रादि ग्रन्थों का नाम इन को विदित होता तो गृह्यसूत्र तथा बंद का कुछ अंश भी, य. गानी वा यवनों का बनाया हुआ है, करने में अटि करते॥
देखिये पाठक ! मानवगृह्यसूत्र पुरुष २ के पञ्चदश खण्ड में जोशी साक्ष्य के कहावतों की कमी शान्ति लिखी हुई है। ___ यदि दुःस्वप्नं पश्येदव्याहृतिभिस्तिलान् हुत्या दिश उपतिष्ठेत् । ओं बोधश्चमा प्रतिबोधश्व पुरस्तादगीपायताम्, गोपायमानञ्च मा रक्ष माणञ्च पश्चाद्गोपायताम्, विष्णुश्मा पृथिधी च नागाश्याऽधस्ताद्गोपायताम् । बृहस्पतिश्च मा विश्वे च मे देवा द्याश्नोपरिष्टोद्गोपायताम्॥
अर्थात् अनिष्ट सूचक ऊट गधादि पर चढ़ना प्रादि दु:स्वप्न देखै तो ( बोधश्चमा०) मन्त्र पढ़ कर चार व्याहतियों से घत मिला कर तिलों का हवन करै । हम अपने पाठकों से प्रा. र्थना करते हैं कि " दुःस्वपमा नभिष्टं भुवानमुपजायते " के अनुमार दुर्गापाठादि के माघ २ इस प्रकार की वैदिक शान्ति भी आप लोग अवश्य क्रिया करें।
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