Book Title: Murtimandan
Author(s): Labdhivijay
Publisher: General Book Depo

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Page 194
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरार्द्ध-चतुर्थोऽध्यायः ॥ एक लम्बा जना और एक लोटा पानी ले कर आप प्लेग के दिनों में दौरा किया करें। देश का बड़ा ही उपकार होगा। और नौकरी से भी अधिक प्राप को इस डाक्टरी के द्वारा प्राप्ति भी होगी । ज्यातिषचमत्कार को पुस्तक वे चने से उतना फ पदा नहीं हो सकता ॥ ज्यो. च० पृ. १५७ पं०-८-प्रत्य ज्यातिष हेडिंग दे कर लिखा है, हमारे पुराने ऋषि मुनियों ने ( सत्यज्योतिष ) त. पस्या और योग के वल से मीखा था इसी सत्य ज्योतिष के सीखने के लिये मनुष्य गणाना अंगरेज लोग करते हैं । समीक्षा-क्या आप का मत्य ज्योतिष यही है ? हमने तो यह शोचा था कि कदाचित् गणित विद्या को आप सत्य ज्योतिष मानते होंगे, पर आपने गणित की भी इतिश्री करदी। जोशी जी ! (ज्यो. च० ए० ४१ पं० ४)-में तो “ मन् ११५०ई० तक ज्योतिष की चढ़ती रही इत्त वीच में सामुद्रिक योग प्रश्न इत्यादि बहुत सी विद्यायें चलीं” इत्यादि प्राप लिख चुके हैं, तो कहिये आप के मत से सन् ११५१ के लगभग जत्र योग विद्या चली तो पूर्वकाल में ऋषि मुनियों को सत्य ज्योतिष सीखने के लिये योगविद्या क्या ज्योतिषचमत्कार से प्राप्त हुई ?॥ ___ पाठक महाशय ! ध्यान देखें कि योगविद्या और ज्यो. तिष विद्या पृथक २ हैं क्योंकि न्याय, वैशेषिक, योग, सांख्य, मीमांसा, वेदान्त ये षट् शास्त्र हैं। और शिक्षा, कल्प, व्याकरणा, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष, ये षट् वेदांग हैं। योग और ज्योतिष को एक समझना मूर्खता है। देखिये छान्दोग्य उपनिषद् में इन सब विद्याओं का पृथक २ वर्णन है और इस आर्ष ग्रन्थ से ज्योतिष की प्राचीनता भी सिद्ध होती हैं। ___“सहोवाच ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेद सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं प. जमं वेदानां वेदं पित्र्यं राशिं दैवं निधिं वाको For Private And Personal Use Only

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