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पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५३ अस्माल्ला इल्ले मित्रावरुणा दिव्यानि धत्ते । इल्लल्ले वरुणो राजा पुनर्ददुः ॥ हयामित्रो इल्लां इल्लल्ले इल्लां वरुणो मित्रस्नेजस्कामः ॥ इत्यादि
इसे देख क्या कोई यह कहेगा कि घेद उपनिषद् यधनों के बनाये हैं नहीं २ कदापि नहीं तो फिर षोड़शयोगरूपी अलोपनिषद् को सुनपा अनफा कयालरूपी ऋचाओं से फलित के ग्रन्थों को यवनों ने बनाया है ऐसा कहना . नुचित है या नहीं? ॥
इस अध्याय में जोशी जी का सारा जोर था सो इसका पूरा खगहन हो चुका । अत्र वेद उपनिषद् गृह्यसूत्र, धर्मशास्त्र रामायण, सुश्रुन, प्रादि के प्रमाणों से फलित की प्राचीनता भारत से सयंत्र फेलना दुष्टग्रहों की शान्ति साफ २ प्रगट हुई। और भी ऊटपटांग बातें जो २ जोशो जी ने लिखी थीं सर्वसाधारण को भलीभांति दर्शाकर ठीक २ उनका समाधान निम्प दिया। पक्षपात छोड़कर ममाजी भाई भी इन अध्याय को देखेंगे तो अपने चौथ नियम के अनुसार इस सत्य विद्या को मानने लगेंग परन्तु हठ के लिये कोई प्रोषधि नहीं हठी लोग न मानें तो विचारशीलपाठक अवश्य ही विचार सकेंगे कि हमारे जोशी जी का पक्ष कट गया, उन का मत काफर हुआ, अन्धकार दूर हुआ ॥ चतुर्थ अध्याय समाप्त ॥
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पांचवां अध्याय ॥ (ज्यो० १० पृ. ३३ पं० २०)-आर्यभह भास्कराचार्य बा. पदेव शर्मा शास्त्रो महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी फलित को नहीं मानते हैं। लट्ठमार पण्डितों से किस का वश चलता है। घे यही कहेंगे पृथ्वी स्थिर है, तारे चारों ओर घूमते हैं।
(समीक्षा)-वाह वाः ! यहा तो श्राप ने पूर्वाधार्यों को
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