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पञ्चमोऽध्यायः ॥ वद्धि के भय से अधिक प्रमाण नहीं लिखते आशा है कि इन प्रमाणों से हमारे ग्रेजुएट ज्योतिर्विद् जी का भ्रम दूर हो जा. यगा । रामायण तथा अन्य पुराणों में लिखा है कि बराबर पहिले भी मुहूर्त सभी कार्यों में किये जाते थे। रामचन्द्र जी के राज्याभिषेक का मुहूर्त तथा संकायात्रा का मुहूर्त करना भी लिखा है। अस्मिन्मुहूर्तसुग्रीव प्रयोणमभिरोचय। युक्तोमुहूर्तोविजयः प्राप्तोमध्यन्दिवाकरः ॥ अस्मिन्मुहूर्तविजये प्राप्तेमध्यन्दिवाकरे। सीताहृतातुमेयातु क्वासीयास्यतिवेगतः ॥ उत्तराफल्गुनोह्यद्य-वस्तुहस्तेनयोज्यते। अभिप्रयामसुग्रीव सर्वानीकसमादृताः ॥
अर्थात् हे सुग्रीव ! यात्रा करने को प्राज का मुहर्त उत्तम है। दोपहर के समय विजयमुहूर्त पड़ता है शीघ्र ही इस मुहूर्त में चलने से हम सीता को प्राप्त करेंगे। उत्तराफल्गुनी छूट कर हस्त नक्षत्र का योग हुआ है। चलो इस शुभ मुहूर्त में यात्रा करना उत्तम है।
(ज्यो००प०३८)-पूर्वकाल में विधि नहीं मिलाई जाती थी। स्वयम्बर जैसे रामसीता अर्जुन द्रौपदी शकुन्तला दुष्यन्तादि के हुए। महा ! कैसी उत्तम रीति थी। कुण्डली मिलाकर वि. वाह करने की रीति उन्हों ने चलाई है। जो पढ़ते २ पागल होगये इत्यादि।
(समीक्षा)-जोशी जी ! श्राप भूल पड़े हैं। केवल स्वयम्बर अथवा गान्धर्वविधाह उस समय में भी नहीं होते थे। पाठ प्रकार के विवोह धर्मशास्त्र में लिखे हैं ॥ उक्तञ्चब्राह्मादेवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः । गान्धर्वोराक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः ॥
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