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चतुर्थोऽध्यायः ॥ ( ज्यो० ० ० २८ पं० ११) में एक विचित्र धाम हिष्टी साहब ने लिखी है कि बदज्जातक के २८ वें अध्याय के 9 वें सोक में वराहमिहिर जी लिखते हैं।
पृथुविरचितमन्यः शास्त्रमेतत्समस्तं, तदनुलघुमयेदंतत्प्रदेशार्थमेव,, इत्यादि
अथोत फलित यवनेश्वरों में विस्तार पूर्वक लिखा उत्रीको वराहमिहिर जी ने संक्षेप से लिखा है।
(समीक्षा)-जोशी जी! बहज्जातक की पुस्तक यदि साप देख लेते तो धोखा न देते । पाम दीजिये तो सहजातक के सब २६ अध्याय हैं २८ वां अध्याय छह जातक का प्राण तक किसी ने नहीं सुना होगा। ये दो अध्याय हिष्टीसाइव ! क्या आपने धनाये या घगष्ट भी बना गये? । मत्य कहिये चौदह १४ वां स्कन्ध भागवत भी और २० वा अध्याय गीता भी कदाचित् माप को पाहिहार्ट होगी।
पृथविरचितमन्यैः २६ वे मध्याय के इस लोक का अभि. प्राय यह है कि यवमादि अन्य भाचायों में इस शास्त्र को विस्तारपूर्वक बनाया। इस मे पूर्व अपमे अनेक प्राचार्यों के नाम घगह जी लिख चुके हैं । “मागे मुनिमतान्यालोक्य सम्यक" लिखते हैं। पाठक गण ! भाज कल का कोई लेखक पोगकी कोई पुस्तक लिखे अस में यह भी लिखा हो कि थियासाफी वालों ने योग फिलोसफी की अच्छी पुस्तक लिखी है । अथवा कोई लिख दे कि प्रोफेसर मैक्समूलर ने संस्कृत की कई पुस्तक लिखीं। तब क्या हम का यह अर्थ होगा? कि कर्नल अलकाट का बीवी वसन्ता ने यह विद्या फेलाई । पहिले कोई ग्रन्थ न था।छत्रीप्रकार यवमाचार्य का नाम यहां पर लिखा है। आगे जोशीजी लिखते हैं कि बृहज्जातक से पहिले कोई जातक न घा, होता तो वराहमिहिर जी उन प्राचार्यों का कहीं नाम न लिखते।। बराह जी को फक्ति का जन्मदाता कहना चाहिये ।
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