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चतुर्थोऽध्यायः ॥
३७
हमारा कश्या करें १ नक्षत्र उल्कापात से हम को कल्याण रहे २ ग्रह चन्द्रमा प्रादित्य राहु मृत्यु ( धूमकेतु ) ( केतु ) और रुद्र इमारा कल्याण करें ३ रेवती अश्विनी भरणी श्रादि हम को ऐश्वर्य और धन देवें ४, अट्ठाईन नक्षत्र योग रातदिन हम को सुखकारक हों ५ प्रातः सायंकाल अच्छे शकुन सुरुभ ॥६॥ शं देवीशं बृहस्पतिः ॥११॥ देवी और बृहस्पति कल्याण
कर ॥
देखिये यदि यह दुःख नहीं देते तो उन की शान्ति के अर्थ प्रार्थना करनी क्यों है ? क्या यह अमर्थ प्रलाप है ? | कभी नहीं । वेद में प्रार्थना इसी कारण है कि ग्रहादि शान्त भी हो जाते हैं और जैसे मनुष्य के कर्म होते हैं तद्नुसार ही ग्रह होते हैं। ग्रह और कर्म एक से ही होते हैं, ग्रहों से मनुष्यों के कर्म जाने जाते हैं, जिन के ग्रह स्पष्ट हैं शुद्ध हैं उन के कर्म प्रत्यक्ष हो जाते हैं उन की जन्मपत्री की बात कभी झूठी नहीं होती। राशियों में ग्रहों के आने से मनुष्यों के कर्मों से सम्बन्ध होता है। क्योंकि (गृह्यन्ते ते ग्रहाः ) ग्रहण करते हैं इसी से उन का नाम ग्रह है । अब यहां से ग्रहशान्ति तथा हवन ब्राह्मण भोजनादि से उपद्रवों का शान्त होना ब्राह्मणा श्रति से भी दर्शाया जाता है ।
सामवेदीयषडविंश ब्राह्मणे पचमप्रपाठके नवमः खण्डः ॥
स दिवि मन्वावर्त्ततेऽथ यदास्यतारावर्षा - णि बोल्काः पतन्ति धूमायन्ति दिशो दह्यन्ति केतवश्वोत्तिष्ठन्ति गवां शृङ्गषु धूमोजायते गवां स्तनेषु रुधिरं स्त्रवत्यर्थहिमान्नपततीत्येवमादीनि तान्येतानि सर्वाणि सोमदेवत्योन्यभुतानि प्रायश्चित्तानि भवन्ति सोमं राजानं वरुणमिति -
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