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कुछ शङ्का रहेगी ?। अब लौकिक व्यवहार पर चलिए. लौकिक जन आधिक मास में नित्य कृत्य छोडकर नैमित्तिक कृत्य नहीं करते । जैसे यज्ञोपवीतादि, अक्षयतृतीया, दीपालिका इत्यादि, दिगम्बर लोग भी अधिक मास को तुच्छ मानकर भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी से पूर्णिमा तक दशलाक्षणिक नाम पर्व मानते हैं। अधिकमास संज्ञी पञ्चेन्द्रिय नहीं मानते, इसमें कोई आश्वर्य नहीं है क्योंकि एकेन्द्रिय वनस्पति भी अधिक मास में नहीं फलतीं । जो फल श्रावण मास में उत्पन्न होनेवाला होगा वह दूसरेही श्रावण में उत्पन्न होगा न कि पहिले में । जैसे दो चैत्र मास होंगे तो दूसरे
चैत्र में आम्रादि फलेंगे किन्तु प्रथम चैत्र में नहीं । इस विषय की एक गाथा आवश्यकनियुक्ति के प्रतिक्रमणाध्ययन में यह है
"जइ फुल्ला कणिआरया चूअग! अहिमासयंमि घुटुंमि । तुह न खमं फुल्लेउं जइ पञ्चंता करिति डमराई" ॥१॥
अर्थात् अधिकमास की उद्घोषणा होनेपर यदि कर्णिकारक फूलता है तो फूले, परन्तु हे आम्रवृक्ष ! तुमको फूलना उचित नहीं है, यदि प्रत्यन्तक (नीच) अशोभन (कार्य) करते हैं तो क्या तुम्हें भी करना चाहिये ?, सज्जनों को ऐसा उचित नहीं है।
इस बात का अनुभव पाठकवर्ग करें यदि अभ्यास
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