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चौमासी प्रतिक्रमणादि करते हो, उसी तरह अन्य अधिक मास में भी दूसरे ही में करना वाजिब है। वैसा नहीं करोगे तो विरोध के परिहार करने में भाग्यशाली नहीं बनोगे । एक अधिकमास मानने में अनेक उपद्रव खड़े होते हैं और अधिक मास को गिनती में न लेनेवाले को कोई दोष नहीं है । उसी तरह तुमभी अधिक मास को निःसत्त्व मानकर अनेक उपद्रव रहित बनो। और उमास्वाति महाराज के वचन पर कौन भव्य श्रद्धावान् नहीं होगा; देखो महापुरुष के युक्तियुक्त वाक्य को “क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धा कार्यातथोत्तरा" अर्थात् अष्टमी का क्षय हो तो सप्तमी का क्षय करना और दो अष्टमी हो तो दो सप्तमी करना, तथा दो चतुर्दशी हो तो दो तेरस करना । इस न्याय को नहीं माननेवाले तिथि के विराधक हैं। दो अष्टमी, दो चतुर्दशी के माननेवाले को अष्टमी और चतुर्दशी का क्षय मानना पड़ेगा। कदाचित् तिथि का क्षय जैनपञ्चाङ्ग के प्रमाण से नहीं होता ऐसा मानोगे तो जैन पञ्चाङ्ग के प्रमाण से तिथि बढ़ती भी नहीं है ऐसा मानने में क्या प्रतिबन्ध है । इस रीति की व्यवस्था रहते हुए कदाग्रह न छूटे तो भले स्वपरम्परा पालो परन्तु स्वमन्तव्य में विरोध न आवे ऐसा वर्तावकरना बुद्धिमान पुरुषों का काम है । जैसे फाल्गुन के अधिक होनेपर दूसरे
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